vinod upadhyay

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बुधवार, 2 अप्रैल 2014

लोकसभा चुनाव के लिए पुलिसबल जुटाने की मशक्कत

निर्वाचन आयोग के साथ पुलिस प्रशासन के लिए भी शांतिपूर्वक चुनाव करवाना चुनौती होता है। यही वजह है कि पुलिस प्रशासन ने इस बार खास तैयारी की है। विधानसभा चुनाव के मुकाबले लोकसभा चुनाव में पोलिंग बूथ बढ़ाए गए है। इस कारण चुनाव ड्यूटी में पुलिस बल भ बढ़ाया जाएगा। इस बार 16 कंपनियां व 5 हजार पुलिस बल के चुनाव व्यवस्था में लगाए जाने की संभावना जताई जा रही है।
300 मतदाताओं पर एक पुलिस जवान
विधानसभा चुनाव में 2279 मतदान केंद्र बनाए गए थे। लोकसभा चुनाव के लिए 2466 मतदान केंद्र बनाए गए है। पुलिस मुख्यालय से इस बार 16 कंपनियों की मांग की गई है। इनसे लगभग 1500 पुलिस बल मिलने की संभावना जताई जा रही है। इसके अलावा जिला पुलिस बल के साढे तीन हजार जवानों का बल भी इसमें शामिल रहेगा। इस तरह लगभग 5 हजार पुलिस बल के चुनाव ड्यूटी में शामिल होने की संभावना जताई जा रही है। इसके अलावा होमगार्ड, कोटवार व विशेष पुलिस का दर्जा देकर ं 2500 लोगों को निर्वाचन ड्यूटी में लगाया जाएगा। इस हिसाब से चुनाव में पुलिस व्यवस्था संभालने में 7500 लोग लगेंगे। जिला निर्वाचन कार्यालय के मुताबिक जिले में कुल 23 लाख 46 हजार 393 मतदाता है। इस हिसाब से 300 मतदाताओं पर एक पुलिस जवान नियुक्त किया जाएगा।
210 संवेदनशील मतदान केंद्र
लोकसभा चुनाव के लिए 210 मतदान केंद्रों को संवेदनशील घोषित किया है। सामान्य मतदान केंद्रों के मुकाबले इन पर सुरक्षा काफी मजबूत रखी जाती है। प्रत्येक मतदान केंद्र पर कम से कम पांच जवानों को नियुक्त किया जाता है। इस हिसाब से संवेदनशील मतदान केंद्रों की सुरक्षा एक हजार से ज्यादा पुलिस जवान करेंगे। विधानसभा चुनाव में 218 संवेदनशील मतदान केंद्र घोषित किए गए थे। इनमें से 66 को अति संवेदशील की श्रेणी में रखा गया था।
जबलपुर, छिंदवाड़ा जाएगा 481 का बल
मप्र में प्रथम चरण के चुनाव के लिए दौरान जबलपुर व छिंदवाड़ा में चुनाव ड्यूटी के लिए पुलिस मुख्यालय से 481 जवानों का बल भेजने के निर्देश दिए गए है। इंदौर पुलिस के आला अफसर अपने पास मौजूद बल में से इतने लोगों को चुनाव ड्यूटी के लिए भेजने के छांट रहे हैं। यह बल 6 अप्रैल को जबलपुर व छिंदवाड़ा के लिए रवाना होगा।
छत्तीसगढ़ की बटालियन के बल को स्क्वॉड में लगाया
कुछ समय पहले इंदौर पुलिस को छत्तीसगढ़ की 21 वी बटालियन की सी कंपनी का बल मिला है। इसके 105 जवानों को फिलहाल फ्लाइंग स्क्वॉड में नियुक्त कर 36 दलों का गठन किया गया है। हालांकि निर्वाचन आयोग के निर्देश पर अब 36 की जगह 27 फ्लाइंग स्क्वॉड किए जाने की संभावना जताई जा रही है।
विधानसभा चुनाव के लिए मिली थी 13 कंपनियां
विधानसभा चुनाव के लिए इंदौर पुलिस को 13 कंपनियों का बल मिला था। इनमें सीआरपीएफ की 7 कंपनियां, आरएएफ की 1 कंपनी, सीआईएसएफ की 3 और हरियाणा व केरल की 1 कंपनियां और उनके अफसर शामिल थे। चुनावी व्यवस्था संभालने में इंदौर पुलिस के 4 हजार जवानों के साथ 800 जवानों का अतिरिक्त फोर्स भी लगाया गया था। इस बार पोलिंग बूथ की संख्या बढ़ने के कारण बल के बढ़ाएं जाने की संभावना भी जताई जा रही है।
36 फ्लाइंग स्क्वॉड व 36 सर्विलेंस टीम बनी थी
विधानसभा चुनाव के दौरान हर विधानसभा में चार सर्विलेंस टीम बनाई गई थी। जिला निर्वाचन आयोग द्वारा प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में 4-4 फ्लाइंग स्क्वॉड के दस्ते बनाए गए थे। इसमें एक मजिस्ट्रेट व पुलिस दल के चार अधिकारी व कर्मचारी और एक विडियोग्राफर नियुक्त किया गया था। इस तरह जिले की सभी नौ विधानसभा क्षेत्रों के लिए 36 फ्लाइंग स्क्वॉड का गठन किया गया था। इसके अलावा 36 स्टेटिक सर्विलेंस टीम तैयार की गई थी। इसमें भी फ्लाइंग स्क्वॉड की तरह ही मजिस्टे्रट व पुलिस बल को शामिल किया गया था। इन टीमों की जिम्मेदारी लगातार विधानसभा क्षेत्रों में मूवमेंट करने के साथ प्रत्याशियों के चुनावी खर्च पर विशेष नजर रखना था। इसके अलावा 209 पुलिस सेक्टर मोबाइल भी तैनात की गई थी।
पारदर्शिता के लिए बढ़ाए गए वीडियोग्राफर
निर्वाचन आयोग द्वारा विधानसभा चुनाव में पारदर्शिता रखने के उद्देश्य से प्रत्येक फ्लाइंग स्क्वॉड व दस्ते में एक-एक वीडियोग्राफर की नियुक्त किया गया है, ताकि चुनाव संबंधित किसी भी आपत्ति या विवाद की स्थिति के लिए साक्ष्य जुटाए जा सके। पिछले विधानसभा चुनावों के वीडियोग्राफर की संख्या कम होती थी और विशेष मौकों पर ही जिला निर्वाचन आयोग विडियो रिकॉर्डिंग करवाई थी। यही वजह है कि इस बार भी लोकसभा चुनाव के दौरान वीडियो रिकॉर्डिंग किए जाने की संभावना जताई जा रही है।
481 जवानों को जबलपुर चुनाव ड्यूटी के लिए भेजेंगे
विधानसभा चुनाव में चार हजार पुलिस तैनात किया गया था। मतदान केंद्र बढे है इस कारण पुलिस बल भी बढ़ाया जाएगा। पिछली बार 13 कंपनियां आई थी लेकिन इस बार 16 कंपनियों को बुलाया गया है। फिलहाल छत्तीसगढ़ की एक कंपनी आई है जिसे फ्लाइंग स्क्वॉड में लगाया गया है। इंदौर पुलिस के 481 जवानों को जबलपुर व छिंदवाड़ा भीे चुनाव ड्यूटी के लिए भेजा जाएगा।
- मोहित वरवंडर, आरआई
16 कंपनियों की मांग की गई
इस बार मतदान केंद्र बढ़ने के कारण 16 कंपनी की मांग की गई। इनके अलावा जिला साढ़े तीन हजार पुलिस बल को चुनाव ड्यूटी में लगाया जाएगा। इसके अलावा होमगार्ड, कोटवार व विशेष पुलिस का दर्जा प्राप्त अधिकारियों को भी नियुक्त किया जाएगा। विधानसभा चुनाव के मुकाबले लोकसभा चुनाव काफ स्मूथ होता है। इस कारण सुरक्षा व्यवस्था के लिए ज्यादा बल लगाने की जरुरत नहीं होती।
- राजेश कुमार सिंह, एडिशनल एसपी हेडक्वार्टर

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

किसानों का 12,0000,00,000 हड़पा बीमा कंपनियों ने

प्रदेश के 9,584 गांवों की 10 हजार करोड़ रूपए की फसल तबाह
किसानों को राहत पहुंचाने की बजाय राजनीति में जुटी सरकार भोपाल। प्रदेश में बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि से 49 जिलों के 9,584 गांवों की करीब 10 हजार करोड़ रूपए की फसल तबाह हो गई है। तबाह हुए किसानों को मरहम लगाने के लिए मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान,उनके मंत्रिमंडल के सदस्य और अधिकारी खेतों में पहुंच कर बर्बाद फसलों का जायजा ले रहे हैं। लेकिन फसलों के बीमा के नाम पर किसानों के 12 अरब रूपए दबाकर बैठी बीमा कंपनियां सुगबुगा भी नहीं रही हैं। जबकि ओलावृष्टि से तबाह किसान राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना से कोई उम्मीद लगाए बैठे हैं। योजना का हाल यह है कि पिछले 13 साल में 2 करोड़ 71 लाख किसानों से प्रीमियम के रूप में 11 अरब 91 करोड़ रूपए वसूले गए, लेकिन मौसम की मार पर फायदा मात्र 50 लाख किसानों को ही मिला और वह भी कौडिय़ों में। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि पिछले सात साल में कर्ज के बोझ के तले प्रदेश में करीब आठ हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं। वहीं दूसरी तरफ किसानों को राहत पहुंचाने की जगह प्रदेश की भाजपा सरकार धरना,प्रदर्शन और बंद का आयोजन कर राजनीतिक गोंटियां सेकने में लगी हुई है।
किसानों के साथ छलावा है फसल बीमा योजना
करीब एक दशक पहले शुरू हुई राष्ट्रीय फसल बीमा योजना का सीधा-सीधा मकसद फसल नष्ट होने की स्थिति में क्षतिपूर्ति करना और किसान को मदद पहुंचाना है। अपने घोषित मकसद की वजह से जाहिर है कि यह योजना काफी लोकलुभावनी दिखाई देती है, लेकिन हकीकत इसके उलट है। बीमा कंपनियों ने बड़ी चालाकी से इसकी ऐसी शर्तें तय की हैं कि हर्जाने का दावा मान्य होने पर कंपनियों को बहुत मामूली भुगतान करना पड़े। मुआवजा भी तब मिलता है, जब तालुका या प्रखंड स्तर पर फसल बर्बाद हुई हो। इससे कम क्षेत्र में नुकसान होने पर भरपाई नहीं की जाती। इतना सब कुछ पक्ष में होने के बाद भी कंपनियों की नीयत किसानों को फायदा देने की नहीं है। फसल बीमा का अग्रिम प्रीमियम वसूल करने वाली बीमा कंपनियां जरूरत पडऩे पर दावा राशि का भुगतान करने में भी आनाकानी करती हैं। वर्ष 2012 में ऐसा ही एक उदाहरण होशंगाबाद जिले में देखने को मिला। फसल बीमा योजना के तहत होशंगाबाद जिले में 49 हजार 175 किसानों से बीमा प्रीमियम काटा गया। कुल बीमित राशि 222 करोड़ रुपए की थी, जिसके लिए दो निजी कंपनियों को दस फीसदी यानी 22 करोड़ 22 लाख रुपए का प्रीमियम मिला, लेकिन जब फसल खराब हो गई तो कंपनियों ने 222 करोड़ रुपए की राशि में से केवल 17 करोड़ 15 लाख रुपए के क्षतिपूर्ति भुगतान का हिसाब लगाया यानी प्रीमियम राशि में से भी 5 करोड़ 5 लाख रुपए बचा लिए गए। बीते रबी सीजन में भी बीमा कंपनियों ने गेहूं की फसल के लिए किसानों से 15 करोड़ 73 लाख रुपए का प्रीमियम लिया, लेकिन जब भुगतान की बारी आई तो उन्हें सिर्फ 85 लाख रुपए देकर चलता कर दिया। बीमा कंपनियों की इन धांधलियों का मामला हाल में मध्य प्रदेश विधानसभा में उठा। विधायकों ने सरकार से मांग की कि किसानों को बीमा कंपनियों से फसल बीमा योजना का फायदा दिलाया जाए।
किसान को मिलता है सिर्फ 50 पैसे मुआवजा
राज्य के 49 जिलों में हुई ओलावृष्टि से 10 हजार करोड़ रूपए की फसल बर्बाद हो गई है। हालांकि, किसानों के पास बीमा है, लेकिन इसका फायदा उन्हें नहीं मिलने वाला है। पिछले 13 साल का अनुभव बताता है कि बीमा होने के बावजूद किसानों के हाथ कुछ नहीं लगता है, जबकि कंपनियां हजारों करोड़ रुपए कमा रही हैं। बीमा योजना में भारी खामियां है, जिसका लाभ कंपनियां उठा रही हैं और लाखों की बर्बादी झेलने वाले किसान को भरपाई के नाम पर सिर्फ 50-50 पैसे मिल रहे हैं। जानकारी के अनुसार, 'फसल बीमाÓ करने वाली कंपनियों ने पिछले 13 साल में 2 करोड़ 71 लाख किसानों से प्रीमियम के रूप में 11 अरब 91 करोड़ रुपए कमाए हैं। गौरतलब है कि कंपनियां केंद्रीय सहकारी बैंकों और उनकी शाखाओं के माध्यम से बीमा करती हैं। किसान अगर फसल का बीमा नहीं करवाएं तो ये बैंक उन्हें कर्ज भी नहीं देते हैं। किसानों का कहना है कि सरकार की गलत योजना से बीमा कंपनियां सीधे तौर पर 65 प्रतिशत से ज्यादा पैसा अपनी जेब में डाल लेती हैं और किसानों को लाखों रुपए की फसल नष्ट होने के बदले में कभी 50 तो कभी 80 पैसे का मुआवजा देकर पल्ला झाड़ लेती हैं। किसानों के प्रतिनिधियों का कहना है कि बीमा कंपनियां फसल बर्बाद होने पर किसानों को प्रीमियम से भी कम राशि का क्लेम देती हैं। यानी वे किसानों से प्रीमियम का पैसा भी हजम कर जाती हैं और मुआवजे की राशि भी खा जाती हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2010 में फसल बीमा के तहत प्रदेश के किसानों ने खरीफ फसलों के लिए 11374.53 लाख स्पए प्रीमियम के तौर पर जमा कराया था,जबकि उन्हें लगभग आधी रकम लगभग 5416.28 लाख रूपए ही दावे के अंतर्गत मिल सके। इसी तरह वर्ष 2012-13 में खरीफ -के लिए 20781.50 लाख रूपए प्रीमिय जमा हुआ और फसल खराब होने पर मिले मात्र 7507.77 लाख रूपए। इस तरह बीमा कंपनिया किसानों को ठग रही हैं।
बीमा कंपनियों को कोई नुकसान नहीं
राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के अंतर्गत एग्रीकल्चर इंश्योरेंस कंपनी के पास किसानों का बीमा होता है। प्रदेश के जिला सहकारी बैंक और प्राथमिक सहकारी समितियों के जरिए जो किसान अल्पकालीन कृषि ऋण लेते है उनके ऋण की राशि को ही बीमा राशि मानते हुए उसका डेढ़ से साढ़े तीन प्रतिशत तक प्रीमियम राशि शुरूआत में ही काट ली जाती है। बीमा कंपनी केवल उस सीमा तक नुकसान की भरपाई करती है जितनी उन्हें प्रीमियम के रूप में प्राप्त हुई। दावे की राशि ज्यादा होने पर राज्य और केंद्र सरकार आधा-आधा वहन करती है। इस कारण बीमा कंपनी को इसमें कोई नुकसान नहीं होगा। बल्कि जिस वर्ष में ज्यादा प्रीमियम मिलता है और दावा भुगतान कम किया जाता है उस वर्ष उन्हें फायदा होता है।
ऐसे फंसाया जाता है पेंच
फसल बीमा योजना की सबसे बड़ी गड़बड़, योजना का स्वैच्छिक और अनिवार्य होना है। जो भी किसान बैंक या सहकारी संस्था से ऋण लेता है, बैंक उससे बिना पूछे अनिवार्य रूप से प्रीमियम काट लेता है। उसे कोई जानकारी, रसीद या पॉलिसी का कागज नहीं दिया जाता। जिसके चलते किसान को मालूम ही नहीं चलता कि उसकी फसल का बीमा हुआ भी है,या नहीं। मौसम आधारित फसल बीमा योजनाएं हमारे मुल्क में पश्चिम मुल्कों से आई हैं। और सब जानते हैं,कि इसमें विश्व बैंक की सिफारिशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बहुत बड़ा दबाव था। पश्चिमी मुल्कों और हमारे यहां की परिस्थितियों में यदि अंतर करके देखें, तो इसमें बुनियादी फर्क है। यूरोपीय मुल्कों में जहां सैंकड़ो-हजारों एकड़ जमीन के किसान और कंपनियां बहुतायत में हैं, तो हमारे यहां छोटे-छोटे काश्तकार हैं। एक बात और। वहां के किसान संतुष्ट होकर स्वेच्छा से अपनी फसल का बीमा करवाते हैं,लेकिन हमारी सरकारों ने इस बीमे को जबर्दस्ती किसानों पर थोपा है। किसान चाहे न चाहे,उसे बीमा करवाना ही पड़ेगा। आलम यह है कि हमारे यहां सभी फसल बीमा योजनाएं सरकार के अनुदान और सहयोग से क्रियान्वित हो रही हैं। उसके बाद भी तस्वीर कुछ इस तरह से है, पैसा किसान व सरकार का, मुनाफा कंपनियों का और नुक्सान सिर्फ व सिर्फ किसान का। कुल मिलाकर, सरकारों के तमाम दावों और वादो के बाद भी फसल बीमा योजना किसानों के लिए सिर्फ एक छलावा साबित हुई है। लगातार हो रही किसानों की आत्महत्याएं, फसल बीमा योजना की नाकामी को उजागर करती हैं। बीमा कंपनी द्वारा किसानों की फसल का बीमा व्यक्तिगत होता है। लेकिन फसल के नुकसान होने पर मुआवजा सामूहिक मिलता है। प्राकृतिक आपदा के बाद 3 और 5 साल के औसत उत्पादन के आधार पर नुकसान का आकलन होता है। अधिकांश फसल कटाई प्रयोग किसान के सामने नहीं होते। मौसम खराबी का आंकलन करने के लिए हर जगह पर्याप्त लैब और उपकरणों का अभाव है। अऋणी किसानों को नहीं मिल पाता बीमा योजना का लाभ। विडंबना की बात यह है कि एक तरफ किसानों को यहां फसल बीमा का फायदा नहीं मिला,तो दूसरी तरफ बैंक अधिकारी किसानों को कर्ज वसूली के लिए परेशान कर रहे हैं। किसानों पर दंड व ब्याज लगाया जा रहा है।
सरकार की आर्थिक सेहत बिगड़ी
करीब एक लाख करोड़ के कर्ज में डूबे प्रदेश की वित्तीय स्थिति पहले ही गड़बड़ चल रही थी, अब असमय बारिश और ओलावृष्टि ने सरकार की आर्थिक सेहत पर सीधा असर डाला है। किसानों को दो लाख करोड़ की मदद की घोषणा को पूरा करने के लिए विभागों के बजट की कटौती की माथापच्ची शुरू हो गई है। जानकारी के अनुसार सरकार पीडब्ल्यूडी, पीएचई, पर्यटन, खेलकूद, उद्योग संवर्धन, पुलिस इत्यादि महकमे के बजट से कटौती कर किसानों को राहत राशि उपलब्ध कराने की तैयारी कर रही है। यदि यहां से भी व्यवस्था पूरी नहीं हुई तो विकास कार्यो को रोककर राशि जुटाई जाएगी। प्रदेश की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। ओला-पाला से खरीफ की फसल चौपट होने के बाद जैसे-तैसे किसानों ने हि मत कर फिर फसल बोई, फसल पक कर तैयार हुई और फिर प्रकृति की मार से फसल बर्बाद हो गई। किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज के लिए सरकार ने 12000 करोड़, किसानों को लेट रेट पर बिजली के लिए 1700 करोड़ का प्रावधान किया था। कर्ज में डूबे किसानों ने बिजली का बिल जमा नहीं किया। किसानों की कर्ज बसूली स्थगित कर दी गई, अब सरकार उनका ब्याज भी भरेगी, जिससे उन्हें अगली बार फिर भी शून्य प्रतिशत ब्याज पर कर्ज मिल सके। जानकारी के अनुसार चालू वित्तीय वर्ष में खेती के लिए 11209 करोड़ रूपए सहकारिता कर्ज दिया गया। खेती के लिए भरपूर बिजली के साथ 1800 करोड़ के बिजली बिलों का भुगतान राज्य सरकार ने माफ किया। किसानों की आर्थिक स्थिति खराब होने के कारण ट्रैक्टर सहित कृषि कार्य में उपयोग होने वाले वाहनों की बिक्री प्रभावित हुई है। जिसका सरकार के राजस्व में सीधा असर पड़ा है। मुद्रांक एवं पंजीयन से प्राप्त होने वाली राशि में भी कमी आई है।
कर्ज के जाल में किसान
किसानों की आत्महत्या के पीछे कर्ज एक बड़ा कारण है। लघु और सीमांत किसानों के लिए बगैर कर्ज से खेती करना लगभग असंभव हो गया है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भागदौड़ करनी पड़ती है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फस जाते हैं। यदि हम पूरे मध्यप्रदेश में किसानों पर कर्ज की मात्रा का आकलन करेंं तो पाते हैं कि प्रदेश के किसान करीब दस हजार करोड़ रूपए से भी ज्यादा के कर्जदार हैं। क्योंकि अपेक्स बैंक के रिकॉर्ड में किसानों पर साढ़े सात हजार करोड़ रूपए कर्ज के रूप में दर्ज हैं। इसमें कम से कम ढाई हजार करोड़ का साहूकारी कर्ज जोड़ दें तो यह आंकड़ा दस हजार करोड़ को पार कर लेता है। सन् 2006 में गठित राधाकृष्णन समिति ने भी किसानों की आत्महत्या के लिए कर्ज को एक मु य कारण माना है। मध्यप्रदेश में आत्महत्या करने वाले किसान 20 हजार से लेकर 3 लाख रूपए तक के साहूकारी कर्ज में दबे थे। साहूकारी कर्ज की ब्याजदर इतनी ज्यादा होती है कि सालभर के अंदर ही कर्ज की मात्रा दुगनी हो जाती है। ऐसे में यदि फसल खराब हो जाए तो आने वाले समय में यह संकट और भी बढ़ जाता है। 2012 में फसल खराब होने के बाद आत्महत्या करने वाले, पांच एकड़ जमीन वाले छह किसानों पर तो एक लाख रूपए से अधिक का कर्ज था। जिन 42 किसानों ने आत्महत्या जैसे कदम उठाए हैं उनमें से 41 किसान कर्जदार थे। उनके नाम पर कुल मिलाकर साहूकारों का करीब 32,27,000 रूपए और बैंकों का 11,56,000 रूपए का कर्ज है। इस तरह उनके पर कुल मिलाकर 43,83,000 रूपए का कर्ज है। उल्लेखनीय है कि उनके कुल कर्ज का 74 प्रतिशत हिस्सा भारी ब्याज वाले साहूकारी कर्ज का है। यानी ग्रामीण क्षेत्रों तक बैंकों की पहुंच के बावजूद किसान साहूकारों के सामने हाथ पसारने को मजबूर है।
100 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदी का लक्ष्य
प्रदेश में उत्पादन वृद्धि में गेहूं की भूमिका सर्वाधिक है। रदेश में रबी विपणन वर्ष 2014-15 में समर्थन मूल्य पर गेहूं खरीदी का कार्य सभी संभागों में एक साथ 25 मार्च से प्रारंभ होगा। खरीदी का कार्य 26 मई तक किया जाएगा। इस संबंध में खाद्य, नागरिक आपूर्ति विभाग ने आदेश जारी किए हैं। पूर्व में प्रदेश में गेहूं खरीदी का कार्य 18 मार्च से प्रारंभ होना था। हाल ही में असमय बारिश एवं ओला-वृष्टि के कारण राज्य सरकार ने सभी संभाग में 25 मार्च से एक साथ गेहूं खरीदी किए जाने का निर्णय लिया है। प्रदेश में समर्थन मूल्य पर गेहूं खरीदी के लिए 3000 केन्द्र निर्धारित किए गए हैं। गेहूं खरीदी के लिये राज्य सरकार ने मध्यप्रदेश स्टेट सिविल सप्लाइज कार्पोरेशन को नोडल एजेंसी बनाया है। कार्पोरेशन ने इस वर्ष 100 लाख मीट्रिक टन गेहूं खरीदी किए जाने का अनुमान लगाया है। समर्थन मूल्य पर गेहूं खरीदी के लिये अब तक लगभग 17 लाख 50 हजार किसान का पंजीयन भी किया जा चुका है। वर्ष 2013 में प्रदेश में गेंहू उत्पादन 161.25 लाख मीट्रिक टन हुआ। मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा पंजाब के बाद गेंहू उत्पादन में तीसरे स्थान पर जा पहुंचा। ओलावृष्टि के बाद अब उत्पादन कमी होने की संभावना है।
नाटक नौटंकी कर रहे हैं शिवराज: यादव
मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव ने सीएम शिवराज सिंह चौहान से अपील की है कि वो घडिय़ाली आंसू बहाने की नौटंकी बंद करें और किसानों की मदद करें। राज्य सरकार के मुखिया होने के नाते यह उनकी जिम्मेदारी है और धर्म भी। उनके पास जो कुछ भी है पहले वो किसानों में बांटें, कम पड़े तो केंद्र से मांगे। यादव ने कहा है कि पिछले दिनों में हुई ओलावृष्टि के कारण प्रदेश के किसानों की रबी की फसलें गेहूं, चना, मसूर, सरसों आदि पूरी तरह बर्बाद हो गईं है। प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा हाल ही में आलोवृष्टि और अतिवृष्टि के लिए प्रदेश के किसानों को 2000 करोड़ रूपये की सहायता राशि मुहैया कराने की घोषणा की गई थी, लेकिन मुख्यमंत्री ने इस घोषणा को नजरअंदाज करते हुए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति अपनाते हुए 6 मार्च को प्रदेश बंद कर धरना दिया है जो असंवैधानिक तथा जनता के प्रति गैरजिम्मेदाराना है।
घोषणा में 15 हजार, कागजों में 9 हजार की राहत
एक तरफ जहां मुख्यमंत्री ने किसानों की फसलों के हुए नुकसान पर 15 हजार रूपये प्रति हैक्टेयर की राशि का मुआवजा देने की घोषणा की है वहीं तहसीलदार, पटवारी किसानों को प्रति हैक्टेयर केवल 9 हजार रूपये से ज्यादा की सहायता राशि न देकर इतिश्री कर रहे हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा है कि किसानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है। किसानों की फसलों का अभी तक सर्वे नहीं किया जा रहा है, जबकि किसान पुत्र कहलाने वाले किसान हितैषी प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराजसिंह चौहान ने स्वयं घोषणा की थी कि 5 मार्च तक किसानों की फसलों की क्षति की सर्वे रिपोर्ट बुलाई जाएगी।
जो संपत्तियां बर्बाद हुईं उनका क्या
वहीं प्रदेश में अतिवृष्टि एवं ओलावृष्टि से हुई मकान, पशु हानि आदि की क्षति के बारे में भी अभी तक कोई सर्वे आदि की तैयारी राज्य सरकार द्वारा नहीं की गई है। मुख्यमंत्री ने घोषणा की थी कि सर्वे रिपोर्ट आने के बाद ही केंद्र सरकार को किसानों की फसलों की हुई क्षति का मेमोरेंडम भेजा जाएगा, लेकिन बगैर मेमोरेंडम के ही केंद्र सरकार पर किसानों को राहत राशि के लिए दबाव बनाया जा रहा है। प्रदेश के किसानों और प्रदेश की जनता को गुमराह किया जा रहा है। कांग्रेस पार्टी मुख्य मंत्री के इस कृत्य की घोर निंदा करती है।
विज्ञापन बंद करो, किसानों को राहत दो
यादव ने कहा है कि मुख्यमंत्री द्वारा 6 मार्च का बंद लोकसभा चुनाव में भाजपा को फायदा दिलाने की नियत से किया गया था और मुख्यमंत्री इस प्रकार की अशुद्ध राजनीति कर प्रदेश की जनता के साथ छलावा कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि यदि प्रदेश का मुख्यमंत्री स्वयं ऐसा करेगा तो प्रदेश के किसानों और जनता का क्या होगा। उन्होंने कहा है कि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान नाटक-नौटंकी से बाज आएं और प्रदेश की जनता और किसानों की बर्बाद फसलों का सही आकलन कर वास्तविक प्रभावित किसानों को उचित मुआवजा दें और विज्ञापनों में अपनी छवि निखारने के लिए सरकारी खजाने से करोड़ों की धनराशि न लुटायें। आपने कहा है कि सरकारी खजाने की राशि का उपयोग किसानों को राहत पहुंचाने में खर्च करें, जिससे किसानों को कुछ राहत मिल सके।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना
उन्होंने कहा कि एक तरफ जहां सुप्रीम कोर्ट ने नेशनल हाईवे राजमार्गों पर चक्काजाम प्रतिबंधित कर रखा है, वहीं प्रदेश के किसान पुत्र कहलाने वाले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने किसानों की फसलों की क्षति के विरोध में स्वयं 1 घंटे के चक्काजाम का आव्हान कर सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना की है।
कहां हो रहा सर्वे
ओलावृष्टि और बारिश से फसल बर्बाद होने के बाद तबाह किसानों को मुआवजा देने के लिए शासन और प्रशासन ने अपने-अपने स्तर पर घोषणा तो कर दिया है,लेकिन करीब छह दिन बाद भी किसानों के खेतों पर सर्वे करने के लिए अभी तक कोई नहीं पहुंचा है। जब अग्रिबाण की टीम ने जिले के कुछ गांवों का दौरा कर सर्वे के बारे में किसानों से पूछा तो उन्होंने ही सवाल पूछ लिया कि आखिर सर्वे हो कहां रहा है? ज्यादातर किसान कह रहे हैं कि उनके यहां सर्वे के लिए कोई नहीं आया। मु यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के निर्देश पर कलेक्टर ने जिला प्रशासन और कृषि विभाग के अधिकारियों को ओला और बारिश में हुए नुकसान का आकलन करने के निर्देश दिए थे। उसके बाद से सर्वे शुरू हुआ है। जिला प्रशासन का दावा है कि टीमों ने क्षेत्र में सर्वे कर लिया है,लेकिन अधिकांश क्षेत्रों में टीमें नहीं पहुंचने की बात कह रहे हैं। तूमड़ा गांव के निवासी नर्मदा पटेल ने बताया एक मार्च को कलेक्टर साहब ने कहा था कि जल्द ही टीम सर्वे करने जाएगी। क्षेत्र में हजारों एकड़ फसल तबाह हो गई है, लेकिन अभी तक कोई सर्वे करने नहीं पहुंचा। खेतों में पानी भरने से फसल खराब हो गई है, लेकिन सर्वे के लिए कोई नहीं आया।
गेहूं का सर्वे नहीं
कांहासैया निवासी कमल ने बताया, एक एकड़ में गेहूं बोया था। फसल बर्बाद हो गई। पटवारी कह रहा है, गेहूं के सर्वे का निर्देश नहीं है। इसी गांव के निवासी संतोष पटेल का तीन एकड़ में बोया चना बर्बाद हो गया है। रामकेश पटेल का नौ एकड़ चना खराब हुआ है। इन्होंने बताया कि पटवारी आया था, लेकिन सर्वे किए बिना ही लौट गया। परवलिया सड़क निवासी ब्रजमोहन ने कहा कि सर्वे अभी किया गया है, जबकि फसल चार दिन बाद सूखेगी। अभी नुकसान मामूली दिख रहा है। लक्ष्मण ने बताया उनका 2.5 एकड़ चना बर्बाद हो गया, लेकिन सर्वे नहीं हुआ।अ िबका शुक्ला ने बताया कि पटवारी को सर्वे के लिए फोन किया, तो उसने कह दिया कि आदेश नहीं मिला है। छांद निवासी राजा खान ने बताया कि उनकी दस एकड़ से ज्यादा फसल तबाह हो गई है, लेकिन अभी तक गांव में सर्वे करने कोई नहीं पहुंचा। इसी तरह जिले के ललोई,जमूसर खुर्द,आदमपुर छावनी आदि गांवों में दलहनी फसलें ओला, पानी से चौपट हो गई हैं। ओला पानी से क्षेत्र में दलहनी फसलों को सौ प्रतिशत नुकसान पहुंचा है, तो गेहूं की फसल खेतों में बिछ गई है।
तिल-तिल मरती फसल देख रो रहे किसान
बड़ी मेहनत से फसल बोई। देखभाल की और बारिश का पानी भरने के कारण अब फसल तिल-तिल करके सूख रही है। किसानों को पता है कि पानी सूखने तक फसल नष्ट हो जाएगी और इसके कारण उनके आंसू नहीं रूक रहे हैं। यह हाल हुजूर तहसील के कई गांवों का है। खेतों में पानी भरने से गेहूं के पौधों की जड़ें सड़ गई हैं और पत्तियां पीली पडऩे लगी हैं। किसानों का कहना है कि जड़ें सड़ गई हैं, इसलिए अब इन पौधों का सूखना भी तय है। मटर सूखी और टमाटर के पौधे काले- मटर के पौधे भी सूख गए हैं। फलियां पानी में डूबने के कारण सड़ गई हैं। उनमें कीड़े लगने लगे हैं। टमाटर और आलू के पौधे भी सूखकर काले हो गए हैं।
सिर्फ दलहन के सर्वे का आदेश- ग्रामीणों का कहना है कि पटवारी ने गेहूं में नुकसान न होने की बात कहकर सर्वे से इनकार कर दिया है, जबकि खेतों में अभी भी पानी भरा है। पौधे सूख रहे हैं। सब्जियों के नुकसान के लिए यह कहकर टाला जा रहा है कि सिर्फ दलहन के सर्वे का आदेश है।
बीमा योजना की सुविधा बनी असुविधा
सुनने में आसान लगने वाली फसल बीमा योजना की सुविधा किसानों के लिए टेड़ी खीर साबित हो रही है। पहले तो इस योजना के दायरे में किसानों का आना ही मुश्किल होता है। दायरे में आ भी जाएं, तो फसल का नुकसान साबित करने और क्लेम पाने में रात-दिन एक करना पड़ता है। तमाम दुविधाओं को देखते हुए जिले के किसानों ने इससे तौबा कर ली है। अनिवार्य बीमा के दायरे में आने वाले ऋणधारक किसानों को छोड़ दिया जाए, तो निजी तौर पर आगे आकर बीमा कराने वाले किसानों की जिले में सं या न के बराबर है।
सर्वे नहीं मान्य
फसलों के नुकसान के आकलन के लिए जिला प्रशासन द्वारा तैयार रिपोर्ट को बीमा क पनी मान्य नहीं करती है। इसके लिए उसकी टीम अलग से सर्वे करती है और नुकसान तय करती है। कंपनी क्षेत्र में हुए नुकसान को आधार बनाती है, न कि बीमित किसान की फसल को। यदि सिर्फ बीमित किसान की फसल किसी आपदा का शिकार हुई है, तो उसे मान्य नहीं किया जाएगा।
एक साल बाद क्लेम
तमाम उलझनों के बाद किसानों का नुकसान मान भी लिया जाए, तो क्लेम की राशि मिलने में एक साल इंतजार करना होता है। यानी खरीफ की फसल में नुकसान होने पर उसका क्लेम अगली खरीफ की फसल में दिया जाएगा।
ऐसे होती है अधिसूचित
कृषि विभाग के अनुसार अधिसूचित फसलों को तय करने के लिए क्षेत्र में उस फसल के पांच साल के उत्पादन को देखा जाता है। उसके हिसाब से मौजूदा सीजन में उसके उत्पादन का आंकलन करते हुए उसे अधिसूचित किया जाता है। एक जिले में आम तौर पर तीन से चार फसलों को अधिसूचित किया जाता है।
ऋण लेने में ही सुविधा
फसल बीमा का काम जिला सहकारी बैंक के माध्यम से किया जाता है। यह सुविधा खास तौर से उन किसानों को मिलती है, जिन्होंने बैंक से ऋण ले रखा है। बैंक द्वारा ऋण राशि में ही उनका प्रीमियम समायोजित कर दिया जाता है। इसके अलावा कोई किसान अलग से बीमा का लाभ लेना चाहे, तो उसे नकद प्रीमियम देने के साथ ही क्लेम पाने के लिए भटकना पड़ता है। इन मुश्किलों से बचने के लिए किसान अलग से फसल बीमा का लाभ नहीं लेते हैं।
160 गांव प्रभावित
जिले में दो दिनों में हुई ओलावृष्टि ने 160 गांवों को अपनी चपेट में लिया है, जिससे यहां के किसानों की फसल चौपट हो गई है। सबसे अधिक 109 गांव हुजूर तहसील में प्रभावित हुए हैं। जिला प्रशासन का दावा है कि तहसीलदार तथा राजस्व व कृषि विभाग की टीम गांवों में जाकर नष्ट हुई फसल का सर्वे किया है। सात दिन में सर्वे पूरा करने के लिए कहा गया था। हुजूर तहसील के ग्रामीण इलाकों में हुई ओलावृष्टि के बाद तूमड़ा, र्इंटखेड़ी राजस्व सर्किल के अंतर्गत आने वाले गांवों की फसल पर सीधा असर पड़ा है। इसके बाद इस तहसील में ओले से प्रभावित गांवों की सं या 109 हो गई है। टीटी नगर नजूल सर्किल के अंतर्गत आने वाले रातीबड़, नीलबड़ राजस्व सर्किल के गांवों की फसल भी ओले की मार से प्रभावित है। इसी तरह एमपी नगर नजूल सर्किल के आठ गांवों में किसानों की खेतों की फसल ओले के कारण खराब हुई है। बैरसिया में करीब 51 गांवों में ओले व बारिश के कारण किसानों की फसल नष्ट हुई है।
किसान मजदूर अधिकार संगठन ने कलेक्ट्रेट में ज्ञापन सौंपकर फसलों का सही सर्वे और मुआवजा देने की मांग शुरू कर दी है। उनका कहना है शत प्रतिशत फसलों का नुकसान हुआ, जिसका आंकलन भी उसी हिसाब से होना चाहिए। नीलबड़ के किसानों ने कलेक्टर से मांग की है कि उचित सर्वे कराकर मुआवजा दिया जाए ताकि परिवार को लालन पालन में राहत मिल सके। किसान केशव पंवार समेत अन्य किसानों ने बताया कि तबाह फसलों का सर्वें करने आए रसूलिया बैरागढ़ के पटवारी रमेश शर्मा ने यहां के किसानों से पहले तो नुकसान का सर्वे किया और जानकारी ली, लेकिन पटवारी ने सभी किसानों से साफ लहजे में कहा कि आप लोगों को तहसील आना पड़ेगा। इस पर कई किसानों की आपत्ति भी जताई और कहा कि क्षेत्र में चौपाल लगाकर पूरी जानकारी लें और तय मुआवजा दिया जाए। इस पर बिना जवाब दिए पटवारी गाड़ी में बैठकर रवाना हो गए। किसानों का कहना था कि सभी को तहसील बुलाने का औचित्य समझ नहीं आ रहा है। बैरसिया एवं फंदा खजुरी क्षेत्र में दर्जनों गांवों में ओला वृष्टि से बची खुची फसल चौपट हो गई। अचारपुरा , तूमड़ा, पूरा छिड़वाड़ा, इमलिया, परवलिया, मुंगालिया हाट समेत दर्जनों गांवों के किसानों ने डबल मुआवजा देने की मांग की है।
खाद-बीच की राशि माफ हो
किसानों का बहुत नुकसान हुआ है, प्रशासन को खाद बीज का पैसा माफ करना चाहिए। राजधानी के आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के किसानों ने कलेक्ट्रेट में धरना प्रदर्शन कर कलेक्टर निशांत बरवड़े को ज्ञापन सौंपा। इनकी मांग थी कि ओलावृष्टि से तबाह हुई फसलों का पूरा मुआवजा उनको दिया जाए और उनका कर्ज माफ किया जाए। यह प्रदर्शन भाजपा किसान मोर्चा शहर के तत्वावधान में किया गया है। मोर्चा के अध्यक्ष एवं मंडी सदस्य अशोक मीणा ने बताया कि बालमखेड़ा, तूमड़ा,ग्राम पाटनिया, रतनपुर कला खेडी सेकपुरा तारासेवनिया परवलिया सड़क, चदूंखेड़ी, कुराना, मुबारकपुर, छेजड़ादेव आदि गांवों में अभी तक कोई पटवारी सर्वे करने के लिए नहीं आया है। पर्यटन और संस्कृति मंत्री सुरेंद्र पटवा ने पिछले दिनों ओला प्रभावित दो दर्जन गांवों का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने ओला पीडि़त किसानों को ढांढस बंधाया और कहा कि किसानों को मुआवजा दिया जाएगा और तहसील में बांटा जा रहा सोयाबीन का मुआवजा सबसे पहले इन गांवों में बांटा जाएगा। तब से किसान राहत की आस देख रहे हैं।
अब कैसे होगी बेटी की शादी और बेटे की पढ़ाई
मौसम की मार झेल रहे किसान अब कर्ज में डूबते जा रहे हैं, खासतौर से छोटे किसानों के लिए मौसम अभिशाप बनकर सामने आ रहा है। स्थिति यह है कि किसान को फसल लगाने के लिए वर्ष में दो बार कर्ज लेना पड़ा, पहले कर्ज लेकर फसल लगाई। सोचा कि फसल आने पर कर्ज भी चुक जाएगा और घर की हालत भी बदल जाएगी, लेकिन शायद कुदरत को यह मंजूर न था और किसान की पहली फसल बारिश की भेंट चढ़ गई। कर्ज का बोझ बढ़ता गया और कर्ज को चुकाने के लिए किसान अगले सीजन पर फिर कर्ज लेकर रबी की फसल बो दी, लेकिन इस बार भी मौसम की बेरूखी किसान को भारी पड़ गई और दोबारा कर्ज लेकर किसान मुसीबतों में फंस गया। जी हां, हम बात कर रहे हैं क्षेत्र के उन किसानों की जिन्होंने कर्ज लेकर पहले खरीब की फसल बोई और अब रबी की फसल को मौसम की वजह से बर्बाद होता देख रहे हैं। ऐसे ही एक मामला जिले की बैरसिया तहसिल अंतर्गत आने वाले जमुसर खुर्द गांव निवासी लीलाराम का है। जिसने बीज और खाद के लिए कर्ज लेकर जुलाई माह में अपनी 5 एकड़ जमीन में सोयाबीन बोया लेकिन अत्याधिक बारिश की वजह से सोयाबीन की फसल खेत में ही सड़ गई और लीलाराम की उस उ मीद पर पानी फिर गया। लीलाराम को उम्मीद थी वह फसल आने पर वह अपनी लाडली की शादी धूमधाम करेगा और अन्य बच्चों की परवरिश भी ठीक से हो जाएगी। रबी का सीजन आते ही पहले से कर्ज में डूबे लीलाराम ने एक बार फिर किसानी जुआ खेलने की सोचकर खाद,बीज खरीदने सेवा सहकारी बैंक से कर्ज ले लिया। उसने बैंक से 12 हजार रुपए खाद के नाम पर कर्ज लिया और 35 हजार रुपए फसल की लागत के लिए कर्ज ले लिया। कर्ज लेकर उसने गेहूं की बुवाई की, लेकिन बेमौसम हुई बारिश से उसकी फसल काली पड़ गई है और खेत से बीज निकलना भी मुश्किल है। लीलाराम के सामने अब घर चलाने के भी लाले पड़ गए हैं और अब ऐसे में उसकी बेटी के विवाह और पुत्र सोनू की पढ़ाई की चिंता सताने लगी है। गौरतलब हो कि सोयाबीन की फसल खराब होने पर सुखदेव के लाख प्रयासों के बाद भी उसकी जमीन का सर्वे नहीं किया गया और न ही मुआवजा संबंधी कार्रवाई की गई। इस संबंध में उसने जनसुनवाई समेत कई बार अधिकारियों के चक्कर काटे।
कैसे हो बेटे का इलाज
चार एकड़ की भूमि की खेती के सहारे अपने जीवन की गाड़ी चला रहे गुढारीघाट निवासी किसान भंवर लाल का कहना है कि खरीफ सीजन में बैंक से सोयाबीन की खेती के लिए 50 किलो सोयाबीन का बीज, खाद का कर्ज लेकर बोवनी की, लेकिन अधिक बारिश से फसल चौपट हो गई। पुन: हौसला करके 50 हजार का पुन: बैंक से कर्ज उठाकर इस सीजन में चनें और गेंहू की खेती की। जिसमें खराब मौसम की वजह से फसल में पाला लगने जाने से चने की फसल चौपट हो गई। उसने ने बताया कि उसका बेटा बेनी बीमारी से ग्रसित है और अब उसकी बीमारी के इलाज का भी इंतजाम नहीं है। इस तरह से देखा जा रहा है किसानों ने कर्ज लेकर फसलें बोईं लेकिन मौसम ने उनके कर्जे को चुकवाने की जगह और बढ़ा दिया।

कैसे रूके भ्रष्टाचार...15 साल से भ्रष्टों पर बड़ी कार्रवाई नहीं

दागी मंत्रियों और 160 अफसरों की ढाल बनी हैं सरकार!
भोपाल। मप्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जितना सुशासन की बात करते हैं,प्रदेश में भ्रष्टाचार उतनी ही तेजी से पसर रहा है। पिछले एक माह के अंदर लोकायुक्त पुलिस ने उज्जैन तहसील के पटवारी संजीव पांचाल,इंदौर में डिप्टी लेबर कमिश्नर लक्ष्मीप्रसाद पाठक,इंदौर-भोपाल में व्यापमं के पूर्व अधिकारी पंकज त्रिपाठी और भोपाल में राजस्व विभाग के संयुक्त आयुक्त डॉ. रविकांत द्विवेदी के ठिकानों पर छापामार कार्रवाही कर अरबों की काली कमाई उजागर की है उससे तो एक बात साफ है कि प्रदेश में भ्रष्टाचार खत्म करना सरकार के बूते की बात नहीं है। अगर ऐसा होता तो दागी मंत्रियों और करीब 160 अफसरों पर कार्रवाई जरूर होती। कांग्रेस की तरफ से आरोप तो यह लग रहे हैं कि भ्रष्टों की ढाल स्वयं सरकार बनी हुई है। पिछले 15 साल से सरकार दोषी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकी है।
15 साल से अभियोजन की स्वीकृति नहीं
प्रदेश के भ्रष्ट अफसरों को सरकार द्वारा किस हद तक संरक्षण दिया जा रहा है इसका प्रमाण इससे भी मिलता है कि उनसे संबंधित फाइलों को ठंडे बस्ते में डाल कर भ्रष्टाचार मामलों में अभियोजन की स्वीकृति नहीं दी जा रही है। जिन अधिकारियों पर अभियोजन की कार्रवाई 15 साल पहले हो जानी थी, वह मात्र अभियोजन की स्वीकृति नहीं मिलने से बच रहे हैं। ऐसे 38 अधिकारियों के खिलाफ अभियोजन की स्वीकृति मिलनी है। इसमे तीन आईएएस अधिकारी भी शामिल हैं। बार-बार सूचना देने के बाद भी इन प्रकरणों को अभियोजन की स्वीकृति नहीं दी जा रही है।
इन पर कार्रवाई का इंतजार
गोविंद सिंह सीएमओ जनपद पंचायत छतरपुर, आरपी गहलोत एसडीओ राजस्व उज्जैन, राजेश कोठारी स्वास्थ्य अधिकारी, चंद्रकांत कुमावत सब इंजीनियर नगर निगम इंदौर, जेपी शुक्ला प्रबंधक खादी ग्रामोद्योग, दिनेशकुमार जेई एमपीईबी बुरहानपुर, हबीब मेमन प्रबंधक सहकारी समिति खंडवा, रंजीत कुमार एसई एमपीईबी बुरहानपुर समेत 38 प्रकरण में अभियोजन स्वीकृति के मामले शासन स्तर पर लंबित है। भ्रष्टाचार करने वाले कुछ अधिकारी ऐसे हैं, जिनके खिलाफ अभियोजन की कार्रवाई 1998 में हो जानी थी। लेकिन शासन की मनमानी और इनको बचाने के फेर में प्रकरण दर्ज होने के बाद अभी तक अभियोजन की स्वीकृति नहीं मिल सकी है। कई मामले ऐसे है जो पिछले 15 साल से अभियोजन का इंतजार कर रहे हैं। इसमें इंदौर के नगर निगम में पदस्थ तत्कालीन एई दिलीप सिंह चौहान और एसई राकेश मिश्रा शामिल हैं। इन अधिकारियों के खिलाफ 1998 में प्रकरण दर्ज किया गया था। 2001 में भोपाल टीएंडसीपी में पदस्थ लेखाधिकारी के खिलाफ प्रकरण दर्ज किया गया तो फॉरेस्ट अधिकारी टीएन भारद्वाज के खिलाफ 2007 में दर्ज प्रकरण को अभियोजन की स्वीकृति मिलनी है।
71 दागियों की फाइलें दबा दी गईं
लोकायुक्त संगठन द्वारा चाही गई 71 दागी अफसरों की अभियोजन स्वीकृति को लेकर संबंधित विभाग के आला अफसर टाल मटोल कर रहे हैं। लोकायुक्त पीपी नावलेकर की आपत्ति के बाद सामान्य प्रशासन विभाग ने सभी विभागों को पत्र लिखकर कहा है कि जिन अफसरों की अभियोजन स्वीकृति दी जाना है। इस संबंध में जीएडी ने 27 जनवरी को पत्र लिखा था, लेकिन संबंधित विभागों ने अभी तक जानकारी मुहैया नहीं कराई है। लोकायुक्त पीपी नावलेकर ने 17 जनवरी को पत्र लिखकर मुख्यमंत्री से कहा था कि भ्रष्ट लोक सेवकों के विरूद्घ सरकार को धारा 19 की अभिस्वीकृति दिया जाना आवश्यक है। उन्होंने यह भी कहा था कि आपके निर्देशों का पालन नहीं हो रहा है। 141 दागी अफसरों के मामले सरकार और अधीनस्थ संस्थाओं को भेजे जा चुके हैं। इनमें 71 मामले में तीन माह बाद भी दागी अफसरों की अभियोजन स्वीकृति नहीं मिली। जबकि अभियोजन की स्वीकृति तीन माह में अनिवार्य रूप से देना है। समय पर स्वीकृति न मिलने से अभियोजन योग्य महत्वपूर्ण साक्ष्यों के अभियोजन के पहले ही गायब होने की संभावना होती है।
इनकी दी जाना है अभियोजन स्वीकृति
पंचायत एवं ग्रामीण विकास:अनिल यादव सचिव जपं जबलपुर, आरसी जैन सीईओ जपं शाहपुर डिंडौरी, रामसुशील गौतम सब इंजीनियर, आरएल शर्मा सब इंजीनियर जपं मऊगंज रीवा, शशिधर शर्मा सचिव ग्रापं मऊगंज रीवा, शरीफ मंसूरी सचिव ग्रापं शाजापुर,नर्मदा प्रसाद कटारे सचिव जनपद पंचायत सागर, हरिओम पाटीदार सचिव जपं खरगोन, राधेश्याम शर्मा ग्रापं आगर जिला शाजापुर, अभिषेक चतुर्वेदी सब इंजीनियर जपं बड़ामलहरा छतरपुर, मगलेश दीक्षित सग्रे-2 जपं हरदा, कैलाश कुमावत सहायक विकास अधिकारी जपं जावरा रतलाम, कृपाशंकर पाठक सीईओ जपं नरसिंहपुर, विक्रम सिंह प्रजापति बीआरसी जनपद एजुकेशन सेंटर भोपाल, अहिल्या बाई सरपंच एवं विक्रम राठौर सचिव ग्रापं कडारिया धार एवं गुलाब सिंह सरपंच जपं सागर।
खनिज विभाग: सुखदेव निर्मल खनिज निरीक्षक रतलाम, कासमास केरकिट्टा खनिज निरीक्षक मुरैना एवं प्रेमशंकर मिश्रा जूनियर मैनेजर राज्य खनिज निगम हरदा।
वाणिज्यकर विभाग:भीमसिंह ठाकुर असिस्टेंट कमर्शियल ऑफिसर इंदौर, धनराज गौड़ सेल्स टैक्स अधिकारी ग्वालियर, माखनलाल पटेल पंजीयक अधिकारी इंदौर एवं प्रदीप कुमार सिंह उपायुक्त सेल्स टैक्स भोपाल।
सहकारिता विभाग: बीएस बास्केल संयुक्त पंजीयक सहकारिता भोपाल, हबीब मेमन प्रबंधक को-ऑपरेटिव खंडवा, राजीव लोचन शर्मा एमडी राज्य सहकारिता निगम भोपाल एवं हरपाल सिंह रजावत को-ऑपरेटिव बैंक भोपाल।
उर्जा विभाग: दिनेश कुमार जेई विद्युत कंपनी रीवा, आलोक वैश्य ईई पावर डेवलपमेंट लि. उज्जैन, पीके घोघ इंजीनियर विद्युत कंपनी बालाघाट एवं अरविंद कुमार सिंह एई विद्युत कंपनी रतलाम।
नगरीय प्रशासन: दिलीप सिंह चौहान सब इंजीनियर ननि इंदौर, राकेश मिश्रा सब इंजीनियर ननि इंदौर व चन्द्रकांत कुमावत सब इंजीनियर ननि इंदौर,विनोद कुमार शाक्य असिस्टेंट मैनेजर नगर तथा ग्राम निवेश छिंदवाड़ा, राजेश कोठारी स्वास्थ्य अधिकारी ननि इंदौर।
अरविंद-टीनू जोशी का रसूख अब तक कायम
आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में आईएएस अधिकारी दम्पती अरविंद जोशी और टीनू जोशी के खिलाफ केंद्रीय कार्मिक प्रशिक्षण मंत्रालय से केस चलाने की अनुमति मिल गई है। लोकायुक्त फिर आयकर ने फरवरी 2010 में जोशी दम्पति के यहां छापा मारा था। उनके यहां से करोड़ों की नगदी बरामद हुई थी। इसके बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था। जोशी दम्पती ने अपने आय के ज्ञात स्त्रोतों से 3151 प्रतिशत अधिक सम्पत्ति जुटाई थी। इस मामले में लोकायुक्त स्थापना की विशेष पुलिस ने राज्य सरकार से इस आईएएस दम्पति के खिलाफ अभियोजन की अनुमति मांगी थी, जिसके आधार पर राज्य सरकार ने जुलाई 2013 में केन्द्र सरकार के कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय से अभियोजन एवं दम्पति को हटाने के बारे में लिखा था। जोशी दम्पती के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 13 (1) एवं 13 (2) के प्रावधानों के तहत आरोप पत्र पेश किया जाएगा। वहीं अरविंद के पिता एचएम जोशी, मां नम्रता जोशी, सहयोगी एसपी कोहली, उसकी पत्नी एवं पुत्र, पवन अग्रवाल, श्रीदेव शर्मा, दिल्ली स्थित स्टॉम्प विक्रेता राजरानी, बीमा एजेंट सीमा जायसवाल सहित 15 आरोपियों के खिलाफ इस मामले में धारा 109 एवं धारा 120 के तहत आरोपपत्र प्रस्तुत होगा। उधर, इससे पहले विशेष न्यायाधीश अलका दुबे ने जोशी दम्पती की सम्पति जब्त करने संबंधी लोकायुक्त पुलिस के आवेदन को खारिज करने को लेकर अरविंद एवं टीनू जोशी के आवेदन को नामंजूर कर दिया था।
बर्खास्तगी से बचने की जुगत
जोशी दम्पती इसी साल जून में रिटायर्ड हो रहे हैं। इसलिए वे पूरी जुगत भिड़ाने में लगे हुए हैं कि किसी तरह यह मामला ऐसे ही लटका रहे। वे रिटायर्ड हो जाएं और बर्खास्तगी के कलंक से बच सके। इस दम्पती को आयकर विभाग के अलावा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की जांच से भी गुजरना पड़ा। पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच ने भी इस मामले की जांच-पड़ताल की। इन सभी ने दोनों को दोषी पाया। वेक्ट्रा रक्षा खरीद सौदे की जांच के दौरान सीबीआई को मालूम हुआ कि वेक्ट्रा के चेयरमैन रवींद्र ऋषि से इस दंपती के करीबी रिश्ते थे। इस सौदे में दलाली का एक हिस्सा अरविंद जोशी के भी पास जाने का अंदेशा जाहिर किया गया है। जांच में ऐसे संकेत मिले कि 1999-2004 के बीच रक्षा मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते हुए अरविंद जोशी ने ऋषि की पहुंच मंत्रालय तक कराई। यह वही वह समय था जब वेक्ट्रा समूह को हल्के हेलिकॉप्टर सप्लाई करने का सौदा मिला था।
अरबों की काली कमाई...
जोशी दम्पती काली कमाई के मामले में बदनाम होने के बावजूद खुद को बचाने कोई कसर नहीं छोड़ रहे। केंद्रीय कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) ने तो 30 अगस्त को 1979 बैच के इन अफसरों की बर्खास्तगी के लिए स्वीकृति दे दी थी। हालांकि दोनों की बर्खास्तगी पर आखिरी फैसला अब संघ लोक सेवा आयोग को लेना है। फरवरी, 2010 में डाले गए आयकर छापे में इस दंपती की अवैध तरीके से अर्जित 360 करोड़ रुपए की संपत्ति का खुलासा हुआ था। इसके बाद जनवरी 2011 में ईडी ने फेमा और मनी लांडरिंग एक के तहत मामला दर्ज किया गया था।
काली कमाई का खेल...
जोशी दम्पती ने रियल एस्टेट और शेयर बाजार में इतना अधिक पैसा लगा रखा था कि वे इस मामले में बड़े-बड़े धुरंधरों को भी धूल चटा सकते हैं। मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्य सचिव अवनी वैश और लोकायुक्त पीपी नावलेकर को सौंपी 7,000 पन्नों की रिपोर्ट में आयकर विभाग ने इस बात का पूरा ब्यौरा दिया है कि जोशी दंपती का पैसा कहां-कहां लगा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, जोशी दंपती ने कान्हा और बांधवगढ़ नेशनल पार्क समेत रायसेन, बालाघाट, सीहोर और भोपाल में खेती और बिना खेती वाली जमीन बड़े पैमाने पर खरीद रखी है। उन्होंने 25 फ्लैट भी खरीद रखे थे, जिनमें से 18 तो गुवाहाटी की कामरूप हाउसिंग सोसाइटी में ही थे। इनके छह फ्लैट भोपाल और एक फ्लैट दिल्ली में था। रिपोर्ट की मानें तो 2007 से 2010 के बीच अरविंद ने शेयर बाजार में सटोरिया गतिविधियों और वायदा कारोबार वगैरह में 270 करोड़ रु. लगा रखे थे।
सब जगह गड़बड़झाला...
इतने बड़े करप्शन मामले के बावजूद लोकायुक्त और प्रवर्तन निदेशालय जोशी दम्पती को कोर्ट में नहीं ले जा पाया था। अब कहीं जाकर केस चलाने की अनुमति मिली है। लोकायुक्त पुलिस ने जोशी दंपती के सरकारी निवास पर फरवरी, 2010 को मारा था लेकिन उसे अपनी जांच पूरी करने में कई महीने लग गए। 8 अक्तूबर, 2012 को लोकायुक्त पुलिस ने इस प्रभावशाली दंपती के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (पीसीए) के तहत मामला चलाने के लिए डीओपीटी से अनुमति मांगी थी।
संपत्ति राजसात करने वाली संपत्ति का पुनर्गठन नहीं
भ्रष्टाचार के आरोपों में पकड़े जाने वाले अफसरों की संपत्ति राजसात करने के लिए राज्य सरकार ने रिटायर आईएएस एसडी अग्रवाल की अध्यक्षता में एक साल के लिए मई 2012 में एक कमेटी गठित की थी, लेकिन अग्रवाल का कार्यकाल मई 2013 में पूरा होने के बाद से सरकार ने न तो कोई नई कमेटी गठित की है और न ही उसका कार्यकाल बढ़ाया। जिसके कारण भ्रष्टाचार से जुड़ेे अफसरों के मामलों में एक भी प्रकरण संपत्ति राजसात करने का न्यायालय में नहीं भेजा गया है। अपने कार्यकाल के दौरान कमेटी ने लगभग एक दजर्न से ज्यादा भ्रष्ट अफसरों की संपत्ति राजसात करने न्यायालय को प्रकरण पेश कर उनकी संपत्तियां राजसात की थी, लेकिन मई 2013 के बाद से अग्रवाल कमेटी अस्तित्वहीन हो गई है। क्योंकि इस कमेटी का गठन मई 2013 तक किया गया था, मगर इसके बाद आठ महीने पश्चात भी सरकार को नई कमेटी गठित करने या उक्त कमेटी का पुनर्गठन करने की नहीं सुझी। इसके चलते पिछले आठ महीने से एक भी भ्रष्टाचार से जुड़ेे अधिकारी की संपत्ति राजसात करने का प्रकरण न्यायालय में पेश नहीं किया जा सका है, जबकि लोकायुक्त तथा ईओडब्ल्यू ने इस दौरान कई अफसरों के यहां छापे मार लाखों की नकद संपत्ति एवं करोड़ों की अचल संपत्ति का पता लगाया हैं। सरकार की इस तरह की कार्यप्रणाली के कारण प्रदेश में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगना दूर की कौड़ी नजर आ रहा है।

2 साल में 18,000 युवतियां धकेली गई जिस्मफरोशी के दलदल में

मानव तस्करी का गढ़ बना मध्य प्रदेश
भोपाल। मप्र मानव तस्करी का गढ़ बन गया है। यहां से बड़ी संख्या में युवतियों को बहला-फुसलाकर और अपहरण करके दूसरे राज्यों में बेचा जा रहा है या उन्हें जिस्मफरोशी के दलदल में धकेला जा रहा है। प्रदेश से सवा दो साल में 18 हजार से ज्यादा युवतियां लापता हो चुकी हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद पुलिस इनका पता लगाने में अभी तक कामयाब नहीं हुई है। इस अवधि में मानव तस्करी, अपहरण और गुमशुदगी के 46 हजार 159 प्रकरण दर्ज किए गए थे। इनमें से 27 हजार 748 युवतियां बरामद हुई हैं। 4 हजार 313 आरोपियों को गिरफ्तार भी किया गया है। विधानसभा के ग्रीष्मकालीन सत्र के दौरान गृहमंत्री बाबूलाल गौर ने विधानसभा में यह आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। देश में अफीम की खेती के लिए कुख्यात मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में वर्ष 2011 में उजागर हुए मानव तस्करी के मामले से साफ हो गया था कि पूरे प्रदेश में यह धंधा तेजी के साथ पैर पसार चुका है। राज्य के लगभग आधे जिलों में मानव तस्करी में लिप्त लोगों ने अपना जाल फैला लिया है। इसी का परिणाम है कि प्रदेश में लगातार नाबालिग और बालिग लड़कियां गायब हो रही हैं। विधानसभा में कांग्रेस विधायक रामनिवास रावत के सवाल के जबाव में लिखित जानकारी देते हुए गृहमंत्री ने बताया कि एक जनवरी 2012 से 10 फरवरी 2014 तक 17 हजार 273 विवाहित, 19 हजार 147 अविवाहित और 16 हजार 172 अव्यस्क युवतियों की मानव तस्करी, अपहरण और गुमशुदगी के प्रकरण दर्ज किए थे। इन मामलों में तेजी से कार्रवाई करने के लिए एक जनवरी से 31 दिसंबर 2012 तक विशेष अभियान चलाया गया था। 2012 में 30 हजार 698 इंसान गुम हुए थे। इसमें से 19 हजार 142 को खोज लिया गया और 11 हजार 556 प्रकरण लंबित रहे। 2013 में एक अप्रैल से 30 जून तक विशेष अभियान चलाकर 5 हजार 532 गुम व्यक्तियों को खोजा गया। गुम होने वालों में 19 हजार 773 युवती और 10 हजार 925 युवक हैं। विधानसभा में बताए गए आंकड़ों के मुताबिक भोपाल में मानव तस्करी के पांच मामले पुलिस में दर्ज हुए जिनमें से दो अव्यस्क और दो अविवाहित शामिल हैं तो इंदौर में मानव तस्करी के दो अविवाहित के मामले पुलिस में रिकॉर्ड किए गए। जबलपुर में दो तो ग्वालियर में छह मानव तस्करी के मामले सामने आए हैं। इसके अलावा भोपाल में अपहरण के 208 मामले हुए तो इंदौर 361 मामले दर्ज हुए हैं। इसी तरह जबलपुर में 162 तो ग्वालियर में अपहरण के 305 प्रकरण दर्ज हुए। सरकार द्वारा प्रस्तुत आंकड़े निश्चित रूप से चिंताजनक है।
हारमोन के इंजेक्शन देकर किया जा रहा जवान
मानव तस्करी पर पुलिस की उदासीनता के चलते गोरखधंधे में लिप्त लोगों ने 51 में से 24 जिलों में नेटवर्क जमा लिया। जिलों से गायब कई युवक-युवतियों का अर्से से पता नहीं चल पाया। पुलिस भी मानने लगी है कि ये मानव तस्करी का शिकार हो गए। पुलिस ने 2010-2011 में मानव तस्करी पर होमवर्क किया तो चौंकाने वाली जानकारियां पाकर आंखें खुल गईं। पुलिस मुख्यालय ने मानव तस्करी को लेकर सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को एक परिपत्र भेजा था। इसमें महिलाओं व बालक-बालिकाओं के खरीद-फरोख्त के पिछले पांच साल में दर्ज प्रकरणों, अपराध के पीछे किसी संगठित गिरोह के सक्रिय होने और खरीद-फरोख्त की रोकथाम के प्रयास का ब्यौरा मांगा था। मंदसौर जिले में वर्ष 2011 में उजागर हुए मानव तस्करी के मामले में यह चौकाने वाला वाक्या सामने आया था कि जिस्मफरोशी के अड्डों पर खरीदकर लाई गई मासूम बच्चियों को समय से पूर्व जवान बनाने के लिए हारमोन के इंजेक्शन दिए जाते थे ताकि इन मासूम बच्चियों को जल्द से जल्द देहव्यापार के धंधे में उतारा जा सके। आठ साल की उम्र की लड़कियों को जल्द जवान बनाने के लिए मोर का मास और स्टेरॉईड्स दिया जाता था। जिससे लड़किया जल्द जवान होकर जिस्मफरोशी के बाजार में ढकेली जा सकें। इनके सेवन से कम उम्र की लड़कियों का शरीर बड़ा दिखने लगता है । पुलिस जाच में ऐसी कई दवाईयों के नाम आए हैं जिनके इंजेक्शन इस इलाके में धड़ल्ले से लगाए जा रहे हैं। इन लड़कियों को खाने पीने की चीजों में नशे की गोलियां मिलाकर दी गई थीं और बेहोश होने के बाद उन्हे अगवाकर जिस्मफरोशी के डेरों पर बेच दिया गया था। मल्हारगढ़ के सुठोद डेरों में जिस्मफरोशी का अड्डा चलाने वाली सीमा ने बताया कि उनके समाज में लड़कियों को जल्द जवान करने के लिए मोर का मास कई सालों से खिलाया जाता रहा है। अब बाजारों में इस तरह की कई दवाओं के आ जाने से मोर के मास के साथ दवा भी खिलाई जाती है। जिससे लड़किया वक्त से पहले जवान होकर अपने पुश्तैनी धंधे में हाथ बटाती हैं।
बांछड़ा समुदाय खुलेआम करता है वेश्यावृत्ति
मंदसौर और नीमच जिलों में मौजूद बांछड़ा समुदाय खुले आम वेश्यावृत्ति करता है, जहां से मानव तस्करी के मामले उजागर होते हैं। पुलिस की जानकारी में सब कुछ होने के बावजूद इस ओर ध्यान नहीं दिया जाना आश्चर्य का विषय है। पुलिस ने मानव तस्करी पर होमवर्क किया तो चौंकाने वाली जानकारियां पाकर आखें खुल गईं। मंदसौर के पूर्व पुलिस अधीक्षक जी के पाठक बताते हैं 2011 में कि मानव तस्करी रोकने के लिए बने प्रकोष्ठ के बाद जब बाछड़ा जाति के डेरों का गुप्त सर्वेक्षण कराया तो उनके सामने चौंकाने वाले तथ्य आए। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि महिला गर्भवती हुई ही नहीं और उसके घर में कुछ माह की बेटी है। इसी आधार पर दबिश दी गई तो लडकियां मिलीं जिनकी खरीद फरोख्त हुई थी। पुलिस पड़ताल में सामने आया कि गरीबी और अशिक्षा का फायदा मानव तस्कर उठा रहे हैं। वे आदिवासियों के परिवारों को रोजगार दिलाने के बहाने बहला-फुसलाकर ले जाते हैं और अनैतिक कार्य में ढकेल देते हैं। पिछले 3 साल में इन जिस्मफरोशी के अड्डों पर 100 से ज्यादा लड़कियों को बेचा गया है। इन लड़कियों का अपहरण कर इन्हें इन डेरों पर बेचा गया था। इनमें से ज्यादातर लड़किया गरीब परिवारों से हैं, जबकि कुछ लड़कियों को घरवालों ने ही बेच दिया है। इंदौर, खरगौन, खंडवा, बडवानी, झाबुआ के अलावा राजस्थान के चित्तौड़, निम्बाहेड़ा इलाके से भी कई लड़कियों को लाकर यहां बेचा गया है। अधिकतर लड़कियों को यहा चित्तौड, निम्बाहेड़ा के आसपास से लाया गया है।
निगरानी में रहती हैं लड़कियां
बाछड़ा डेरों में कम उम्र की लड़कियों को खरीदने के बाद बड़े ही एहतियात से रखा जाता है। लड़की को खरीदने के बाद 5 साल तक उसे कमरे से बाहर नहीं जाने दिया जाता। ताकि कोई उसे पहचान न सके। बताया जाता है कि इस काम में एक पूरा गिरोह काम करता है, जिसमें कुछ लोगों पर अपहरण तो कुछ पर ग्राहक तलाशने की जिम्मेदारी होती है। इन लड़कियों का सौदा कुछ हजार रुपए में ही होता है। पुलिस जांच में सामने आया था कि जिस्मफरोशी करने वाली ज्यादातर महिलाओं के बच्चे हैं ही नहीं। पुलिस द्वारा गिनती करने पर यहां के डेरों में 842 लड़किया पाई गई थीं।
गौरतलब है कि इन डेरों पर जिन लड़कियों को चुराकर बेचा गया उसमें तीन कडिय़ों वाला एक रैकेट काम करता है। पहला गिरोह लड़कियों पर नजर रखकर उन्हें नशा देकर चुराता है। दूसरी कड़ी के बिचौलिए इन्हें बाछड़ा जाति के उन लोगों से मिलाकर सौदा कराते हैं जो इन्हे खरीदते हैं। और तीसरी कड़ी में खुद बाछड़ा जाति के वो लोग होते है जो इन्हें खरीदकर परवरिश करते हैं, और बड़ा होने पर उन्हे जिस्मफरोशी के धंधे में उतार देते हैं। बाछड़ा जाति की औरतें पहले अपने ग्राहकों से पैदा हुई लड़कियों को पालपोस कर उनसे धंधा कराती थी। मगर बच्चे होने के बाद जिस्मफरोशी के बाजार में इनकी कीमत कम होने की वजह से पिछले 10 सालों में तस्करी कर लाई गई बच्चियों को खरीदने का गोरखधंधा शुरु हो गया।
50 रूपए में सजती है जिस्म की दूकान
जयपुर-मुंबई हाई वे पर रतलाम, मंदसौर, नीमच से लेकर चित्तौड़ तक सडक किनारे बाछड़ा समाज के डेरे हैं। जहा हर रोज जिस्मफरोशी की मंडी सजती है और जहां इन लड़कियों की कीमत होती है महज 50 से लेकर 200 रुपए तक। यहा परंपरा के नाम पर यह गोरखधंधा सदियों से चला आ रहा है। जांच में खास बात यह सामने आई है कि जिस जमीन पर बाछड़ों के जिस्मफरोशी के अड्डे बने हुए हैं, ये सरकारी जमीन थी जो पुनर्वास के लिए बाछड़ा समाज को पिछले 21 सालों में दी गई थी। 1993 से लेकर अब तक कई बार यहां की वेश्याओं को मुख्यधारा से जोडऩेे के लिए आधा बीघा से लेकर 5 बीघा तक के पट्टे दिए गए। मगर जब-जब बाछड़ा समाज के लिए पुनर्वास योजना चलाई गई, उसके बाद से इनके धंधे में इजाफा हुआ है। पुनर्वास के लिए दिए गए पट्टों पर पक्के मकान बनाकर उसे एक नया अड्डा बना दिया गया। पिछले 21 सालों में रतलाम, नीमच, मंदसौर में सरकार द्वारा पुनर्वास के लिए दी गई लगभग 200 एकड़ जमीन पर नए डेरे बना दिए गए। अकेले मल्हारगढ के मुरली डेरे में 40 नए अड्डे पिछले 21 साल में बने हैं।

दुविधा में कांग्रेस और राहुल गांधी

नई दिल्ली। चुनावी चिंताओं के बीच कांग्रेस की रणनीति रंग नहीं पकड़ पा रही है। कई पावर सेंटरों से चल रहे रणनीतिक अभियान की वजह से पार्टी का चुनाव प्रचार दिग्भ्रमित होता जा रहा है। बदलते मुद्दों और रणनीति में होते बदलाव के बीच चुनावी समर में खड़ी पार्टी के लिए तालमेल बनाना मुश्किल हो चला है। समन्वय में कमी से चुनावी समर जीतने के लिए तैयार पार्टी के कई अचूक बाण तरकश में ही रह गए। दस साल से सत्ता में रही पार्टी ने चुनावों से पहले आम जनता तक पहुंचने के लिए पदयात्राओं का कार्यक्रम बनाया था। चुनाव अभियान समिति ने चुनाव कार्यक्रम घोषित करने से पहले प्रत्येकलोकसभा में इन यात्राओं को पूरा करने का लक्ष्य रखा था। पर एक दो राज्यों को छोड़कर योजना परवान ही नहीं चढ़ सकी। नाकामी की बड़ी वजह टिकटों का सही समय पर बंटवारा न होना रहा। उम्मीदवार दिल्ली दरबार में टिकट के लिए टकटकी लगाए रहे और पदयात्रा का कार्यक्रम शुरू ही नहीं हो सका। जबकि टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी उपाध्यक्ष चाहते थे कि यह साल भर पहले ही हो जाए। इसके लिए बाकायदा एक कमेटी गठित की गई थी। लेकिन अलम यह है कि पहले चरण के मतदान को आठ दिन रहते हुए भी पार्टी अभी तक सारे प्रत्याशियों की घोषणा नहीं कर सकी है। इसी तरह कांग्रेस ने भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार को संप्रग की उपलब्धियों के बल पर घेरने की रणनीति बनाई थी। संप्रग के मंत्रियों को प्रत्येक राज्य की राजधानी में जाकर सरकार की उपलब्धियों को जनता के सामने रखना था, पर मंत्रियों के ठंडे रुख के चलते यह योजना भी परवान नहीं चढ़ सकी। इसी तरह पार्टी पदाधिकारियों को चुनावों में न उतारने के फैसले को पलटना भी कांग्रेस को भारी पड़ता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में पार्टी अध्यक्षों और प्रभारी महासचिवों के चुनावी मैदान में उतरने से राज्य में संगठन को दिशा देने वाला कोई नहीं है। आंध्रप्रदेश में बंटवारा, तमिलनाडु में तमिलों की नाराजगी और गठबंधन की कमी व केरल में सत्ता विरोधी रूझान के बाद हिंदी पट्टी में पार्टी की यह चूक बड़ा नुकसान कर सकती है। कांग्रेस का भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को लेकर ऊहापोह भी चुनावों में भारी पड़ता दिख रहा है। पार्टी पहले तो उन पर बात करने से बचती रही फिर आक्रामक हुई तो जहर की खेती करने वाला बताकर भाजपा को ध्रुवीकरण की राजनीति का मौका दे चुकी है।
राज्यों में हाल खस्ता संप्रग दो में कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी बनाने वाले राज्यों में पार्टी की हालत खस्ता है। आंध्र प्रदेश में 31 सीटें जीतने वाली कांग्रेस बंटवारे के बाद सीमांध्र में हाशिये पर खड़ी है। पार्टी को तेलंगाना में भी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं है। राज्य के गठन पर विलय का वादा करने वाली टीआरएस ने गठबंधन तक से इन्कार कर दिया है। लोकसभा में 21 सीटें देने वाले राजस्थान में भी पार्टी की हालत अच्छी नहीं है। हाल में ही हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय हुई थी और लोकसभा चुनावों में पार्टी भितरघात से मुकाबिल है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी दो दर्जन के करीब सीटें जीतने वाली कांग्रेस के लिए इस बार दहाई का आंकड़ा पार करना चुनौती बना हुआ है। खुद पार्टी उपाध्यक्ष की सीट को सुरक्षित करने के लिए भाजपा से पींगे बढ़ा रहे संजय सिंह को असम से राज्यसभा व उनकी पत्नी को सुल्तानपुर का उम्मीदवार बनाना पड़ा।
कांग्रेस के संकट में साथ नहीं 'संकटमोचक'
चार दशक तक अपनी राजनीतिक समझ व दूरदर्शिता से कांग्रेस के संकटमोचक बने रहे प्रणब दा की इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी को बड़ी याद आ रही है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार संप्रग तीन बनाने की जुगत भिड़ा रही कांग्रेस की राह इस बार सबसे ज्यादा दुरूह है। इसके अलावा 40 सालों में पहली बार प्रणब मुखर्जी की सक्रिय भूमिका के अभाव में ये रास्ता और लंबा नजर आता है। अपनी कूटनीतिक बुद्धि और रणनीति से बड़े-बड़े को पछाड़ने वाले प्रणब दा को बंगाल के कांग्रेसी नेता बहुत याद करते हैं। प्रणब के करीबी माने जाने वाले अधीर रंजन चौधरी बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। 40 वर्षो से अधिक समय तक कांग्रेस का लोकसभा चुनाव का घोषणापत्र तैयार करने से लेकर उसे जारी करने तक में प्रणब दा की अहम भूमिका होती थी। लेकिन इस बार प्रणब दा को इन सबसे कुछ लेना-देना नहीं है। वर्ष 1969 में पहली बार कांग्रेस के टिकट से राज्यसभा पहुंचने वाले प्रणब ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। वो एकमात्र ऐसे कांग्रेसी नेता थे जो इंदिरा गांधी से लेकर 2012 तक सभी कांग्रेसी प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में शामिल रहे। अपने सियासी सफर में करीब 35 साल तक लोकसभा का रुख नहीं करने वाले प्रणब की रणनीति पर पार्टी नेता अमल करते थे। राजनीति के गलियारों में अपने फन का लोहा मनवाने के बाद प्रणब अब देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन हैं। सरकार और राजनीति में उनके 45 वर्षों के अनुभव का कोई सानी नहीं है। इस दौरान जब भी उनकी पार्टी और सरकार पर मुसीबत आई तो वे सबसे आगे नजर आते और समस्या को सुलझा देते। लेकिन इस बार चुनावी रण में कांग्रेस को अपने 'राजनीतिक पितामह' के बिना ही जीत हासिल करने की चुनौती स्वीकारनी होगी। हालांकि संकट इस कदर है कि जंगीपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे पुत्र अभिजीत मुखर्जी की सहायता के लिए भी वे मैदान में नहीं आ सकते।

चुनाव में खर्च होगा 10,000 करोड़ कालाधन

लोकसभा चुनाव में कालेधन के इस्तेमाल पर रोक लगाने के चुनाव आयोग के तमाम प्रयासों के बावजूद विभिन्न दलों के प्रत्याशियों द्वारा इस बार तकरीबन 10 हजार करोड़ रुपये कालाधन खर्च करने की आशंका जताई गई है। रिसर्च थिंक टैंक सीएमएस के आकलन के मुताबिक इस बार चुनाव में कुल 30 हजार करोड़ रुपये खर्च होंगे, जो अभी तक के चुनावों में खर्च होने वाली सबसे बड़ी राशि होगी।
सीएमएस के आकलन के मुताबिक, चुनाव में राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां जहां आठ से दस हजार करोड़ खर्च करेंगे, वहीं प्रत्याशी अपने स्तर पर तकरीबन 10 से 13 हजार रुपये खर्च करेंगे। इस खर्च में घोषित और अघोषित धन शामिल हैं। चुनाव आयोग समेत अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा सात से आठ हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने की संभावना है। नौ चरणों में होने वाले चुनाव में (7 अप्रैल से 12 मई तक) मीडिया अभियान के तहत छह से सात हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। चुनाव आयोग की सख्ती के बावजूद उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में कालेधन का इस्तेमाल करने से परहेज नहीं कर रहे हैं। हाल यह है कि चुनाव की घोषणा होने के बाद पहले बीस दिन में ही चुनाव आयोग ने रोजाना चार करोड़ रुपये से अधिक की धनराशि जब्त की है। इसके अलावा आयोग के तलाशी दस्तों ने भारी मात्रा में देशी-विदेशी शराब भी जब्त की है। चुनाव आयोग के सूत्रों के मुताबिक 25 मार्च तक देशभर में 80 करोड़ रुपये से अधिक धनराशि जब्त की गयी है। यह धनराशि जिन लोगों से जब्त हुई है, उनके पास इसका कोई हिसाब-किताब नहीं मिला है। सूत्रों के मुताबिक सबसे ज्यादा धनराशि आंध्र प्रदेश में 49 करोड़ रुपये, तमिलनाडु में 11.32 करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश में 9.39 करोड़ रुपये, मध्य प्रदेश में 3.29 करोड़ रुपये, केरल में 1.65 करोड़ रुपये और राजस्थान में 1.26 करोड़ रुपये की धनराशि जब्त हुई है। सूत्रों ने कहा कि कई बड़े राज्यों जैसे महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल से अभी रिपोर्ट नहीं मिली है। इन राज्यों से रिपोर्ट आने के बाद जब्त की गई धनराशि का ग्राफ काफी ऊपर जा सकता है। उल्लेखनीय है कि दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में हुए विधान सभा चुनावों में 200 करोड़ रुपये से अधिक धनराशि जब्त की गई थी। सूत्रों ने कहा कि आयोग ने भारी मात्रा में शराब भी जब्त की है। बिहार में 25 लाख लीटर से अधिक शराब जब्त की जा चुकी है, जबकि पश्चिम बंगाल में डेढ़ लाख लीटर से अधिक शराब जब्त की गई है जो कि पिछले चुनाव की तुलना में लगभग दोगुनी है। उत्तर प्रदेश में भी एक लाख लीटर से अधिक शराब अब तक जब्त की जा चुकी है। आयोग ने चुनाव में शराब के इस्तेमाल पर नजर रखने के लिए शराब कंपनियों के गोदामों के बाहर सीसीटीवी कैमरे भी लगाए हैं। इसके अलावा कंपनियों को रोजाना शराब के स्टॉक की जानकारी भी देने को कहा गया है।

9 सीटों पर भाजपा-कांग्रेस का गणित बिगाड़ेंगे वो

बसपा,सपा और आप के प्रत्याशियों ने रोचक बनाया मुकाबला
भोपाल। मध्यप्रदेश की राजनीति में तीसरे मोर्चे की कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। पिछले 20 सालों में कोई भी ग़ैर कांग्रेस-ग़ैर भाजपा समूह मिलकर भी कभी भी प्रभावी जीत दर्ज नहीं कर सका है। हालांकि प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों पर नजऱ डालने पर यही लगता है कि बुंदेलखंड, ग्वालियर संभाग और विंध्य प्रदेश की कुछ सीटों पर सपा-बसपा के उम्मीदवार मुकाबले को रोचक बनाते रहे हैं। 16वीं लोकसभा के इस समर में मप्र की 29 लोकसभा सीटों में से 9 सीटें ऐसी हैं, जहां कांग्रेस और भाजपा उम्मीदवारों के सामने खड़ा तीसरा चेहरा खासा दमदार है। इन सीटों में से कुछ पर तीसरा उम्मीदवार तो इतना दमदार है कि वह भाजपा-कांग्रेस की लड़ाई का गणित बिगाड़ सकता है। b>मुरैना संसदीय क्षेत्र.......
मुरैना में भाजपा ने पूर्व मंत्री अनूप मिश्रा तो कांग्रेस ने अपने दबंग विधायक गोविंद सिंह को मैदान में उतारा है, लेकिन इन दोनों का गणित बसपा के वृंदावन सिंह सिकरवार बिगाड़ेंगे। यहां पर लहर काम नहीं आती है। इस सीट पर चुनाव जातिगत आधार पर होता है। ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, पिछड़ी व अनुसूचित जाति बहुल्य वाले इस क्षेत्र में मतदाता प्रत्याशी के समाज के आधार पर वोट डालते हैं, न कि पार्टी के आधार पर। कांग्रेस के लिए बड़ी आफत वृंदावन सिकरवार ने खड़ी कर दी है। वे पहले कांग्रेस में थे और कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. गोविंद सिंह के समकक्ष थे। भाजपा के तेज-तर्रार नेता अनूप मिश्रा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे हैं। वे पिछला विधानसभा चुनाव भितरवार से हार गए हैं। पार्टी ने अनूप मिश्रा को मुरैना से प्रत्याशी बनाकर एक तीर से दो निशाने साधे हैं। एक ओर मिश्रा की उम्मीदवारी से मुरैना में भाजपा की गुटबाजी का असर चुनाव पर नहीं पड़ेगा। दूसरी ओर अनूप के पास समर्थकों की बड़ी फौज के साथ-साथ चुनाव में खर्च करने की क्षमता भी अधिक है। मुरैना में ठाकुर मतदाताओं की संख्या अधिक है, इसलिए डॉ. गोविंद सिंह अपना पलड़ा भारी मान रहे हैं, लेकिन नरेन्द्र मोदी और भाजपा की लहर के सामने जातिगत समीकरण कितने चलेंगे, कहना मुश्किल है। डॉ.गोविंद सिंह मुरैना सीट पर वृंदावन सिकरवार को ही अपनी ताकत मानते थे। वृंदावन सिंह सिकरवार के बसपा के जाने से उनके समीकरण गड़बड़ा गए हैं। वहीं भाजपा उम्मीदवार अनूप मिश्रा भी ब्राह्मण वोट व नरेन्द्र सिंह के वोट बैंक के सहारे मुरैना में आए हैं। लेकिन चुनाव के जातिगत आधार पर होने से मुरैना में मुकाबला त्रिकोणीय और रोमांचक हो गया है। कांग्रेस ने डॉ. गोविंद सिंह को ठाकुर वोट बैंक के सहारे मुरैना संसदीय क्षेत्र में उतारा है। लेकिन बसपा ने मुरैना लोकसभा में ठाकुर प्रत्याशी वृंदावन सिंह सिकरवार को ही उतार दिया। वृंदावन सिंह ठाकुर वोट बैंक को बांटेंगे। वृंदावन सिंह न केवल ठाकुर वोट बैंक को बांटेगे, बल्कि बसपा के परंपरागत दलित वोट भी उन्हें मिलेगा। साथ ही पिछड़े वर्ग का मतदाता बंटा हुआ है। इस वजह से भी कांग्रेस प्रत्याशी के लिए मुश्किलें बढ़ गई हैं। भाजपा के लिए परेशानियां कम नहीं
भाजपा प्रत्याशी ब्राह्मण वोटों, भाजपा के परंपरागत वोट व भाजपा प्रदेशाध्यक्ष नरेन्द्र सिंह के व्यक्तिगत वोट बैंक के सहारे मुरैना आए हैं। लेकिन भाजपा प्रत्याशी भी बाहरी हैं। भाजपा विधानसभा चुनाव से पहले तक अंबाह व दिमनी (तवंरघार) सुमावली व जौरा क्षेत्र में सबसे अधिक मजबूत थी। यहां पर ठाकुर (तोमर व सिकरवार) मतदाता भाजपा को वोट देते आए थे। लेकिन बदले हुए समीकरणों में ये वोट भाजपा में न जाकर बसपा प्रत्याशी के खाते में जा सकते हैं। इन्हीं क्षेत्रों में नरेन्द्र सिंह का भी प्रभाव था। यदि इन चारों विधानसभाओं के ठाकुर मतदाता मूव करते हैं तो भाजपा के लिए मुश्किल बढ़ जाएंगी। भिंड संसदीय क्षेत्र.......
भिंड में भाजपा के भागीरथ प्रसाद कांग्रेस की इमरती देवी और बसपा के मनीष कतरोलिया के बीच मुकाबला है। भिंड में कांग्रेस के घोषित प्रत्याशी भागीरथ प्रसाद के अचानक भाजपा में जाने के बाद समीकरण एकदम बदल गए हैं। अशोक अर्गल का टिकट काटकर भागीरथ को टिकट दिए जाने से भाजपा खेमें में नाराजगी है। अर्गल से वैसे भी सब नाराज चल रहे हैं। शुरू में तो यह कहा जा रहा था कि 'कार्यकर्ता न करेंगे काम तो क्या कर लेंगे अर्गलÓ। इस संसदीय क्षेत्र से भाजपा नेताओं, मंत्रियों, व्यापारियों तथा मतदाताओं को अर्गल ने निराश ही किया हैें। कांग्रेस के लिए यह स्थिति बेहद लाभकारी हो सकती थी लेकिन कांग्रेस की अंदरूनी उठापटक के चलते उसकी स्थिति काफी कमजोर बनी हुई हैं जिसके चलते कांग्रेस लोकसभा चुनाव के लिये इस संसदीय सीट से अपने उम्मीदवार का नाम इमरती देवी तय कर पाने में काफ ी समय तक असमंजस की स्थिति बनी रही। मजे की बात हंै कि इस संसदीय क्षेत्र से पार्टी के उम्मीदवार तय करने में कांग्रेसी नेताओं के मतभेद सतह पर आ गए हैं जो अभी तक ढके-छिपे हुए थे। इस सीट पर अब नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। पार्टी नेतृत्व ने कटारे को भिंड में जिताऊ उम्मीदवार का नाम देने की जिम्मेदारी सौंपी है। बताया जाता है कि कटारे ने पूर्व गृह मंत्री महेन्द्र बौद्ध का नाम आगे बढ़ाया है। भिंड में कांग्रेस की जीत-हार से कटारे का भविष्य जुड़ा माना जा रहा है।उधर सपा ने बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे स्व पीपी चौधरी की पुत्र वधु अनीता चौधरी को अपना प्रत्याशी बनाया हैं। अनीता के पति हितेन्द्र की कुछ साल पहले जौरा में गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। पति और सुसर की हत्या के पश्चात अनीता डेढ़ साल तक राजनीति से दूर रही मगर अब सक्रिय राजनीति में कूद पड़ी हैं। महिला मतदाता को अपनी और आकर्षित करने के मकसद से कांग्रेस ने ड़बरा विधायक इमरती देवी को इस संसदीय क्षेत्र से अपना प्रत्याशी बनाया हैं। गिर इस बार कांग्रेस, सपा, आप ने अपना उम्मीदवार महिला को बनाया हैं। ग्वालियर में तोमर की प्रतिष्ठा दांव पर...
वहीं ग्वालियर में भाजपा के नरेंद्र सिंह तोमर और कांग्रेस के अशोक सिंह के लिए खतरे की घंटी हैं बसपा के आलोक शर्मा। नरेंद्र सिंह तोमर के ऊपर पूरे प्रदेश में प्रचार करने की जिम्मेदारी है। यही कारण है कि तोमर ने मुरैना के बजाए अपने गृह नगर ग्वालियर लोकसभा से लडऩे का निर्णय लिया है। ग्वालियर को तोमर के लिए सबसे सेफ सीट माना जा रहा है। कांग्रेस ने लगातार तीसरी बार अशोक सिंह को उम्मीदवार बनाया है। अशोक सिंह दो बार यशोधरा राजे सिंधिया से चुनाव हार चुक हैं। ग्वालियर के धनाढ्य व व्यवसायी परिवार से जुड़े अशोक सिंह के लिए यह चुनाव अभी नहीं तो कभी नहीं वाला है। क्योंकि यदि वे लगातार तीसरी बार चुनाव हारे तो उनका राजनीतिक कैरियर समाप्त होने का खतरा है। यही कारण है कि अशोक सिंह इस चुनाव में पूरी ताकत झोंक रहे हैं। दूसरी ओर भाजपा के लिए यह चुनाव नरेन्द्र सिंह तोमर का नहीं, प्रदेश अध्यक्ष की प्रतिष्ठा का चुनाव है। यही कारण है कि भाजपा भी पूरी ताकत से चुनाव में उतर रही है। उधर बसपा उम्मीदवार आलोक शर्मा की ताकत को सिर्फ एक बिरादरी विशेष का वोट काटने तक ही सीमित समझा जा रहा है, पर वे स्वयं इस बात को माननेे के लिए तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि- 'मैं जीतने के लिये ही ग्वालियर संसदीय क्षेत्र से खड़ा हुआ हूं।Ó लेकिन उनकी पार्टी का चुनावी रिकार्ड उन्हें वोट काटने वाली ताकत से अधिक नहीं बताता। जहां तक कार्यकर्ताओं का सवाल है तो उनकी पहुंच हरिजन एवं ब्राम्हण वर्ग तक ही सीमित है। इन दो वर्गों की ताकत के बूते चुनाव तो लड़ा जा सकता है लेकिन दो वर्गों की ताकत ही चुनाव में विजय दिलाने के लिए काफी नहीं हैं। लेकिन यह निश्चित है कि बसपा प्रत्याशी का चुनाव लडऩा कांग्रेस के लिए परेशानी का कारण है क्योंकि बसपा हरिजनों के जिन मतों को खीचेंगे, वह कांग्रेस के परम्परागत मत समझे जाते हैं। राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए फिलहाल यह बता पाना मुश्किल है कि ग्वालियर में किसकी झोली भरेगी और कौन हाथ मलेगा? बालाघाट संसदीय सीट...
बालाघाट सीट पर भाजपा के बोधसिंह भगत और कांग्रेस की हीना कांवरे के लिए सपा के अनुभा मुंजारे विलेन बनी हुए हैं। महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे इस लोकसभा क्षेत्र में आदिवासी वोटों के अलावा लोधी और पवार जाति के वोट ही निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। भाजपा ने यहां से बोधासिंह भगत को प्रत्याशी बनाया है जो पवार जाति से हैं। पवार जाति से ही कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन भी हैं जो इस फैसले से पूरी तरह खुश नहीं हैं। उनके समर्थक भी नाराज हैं। जिसका खामियाजा भगत को उठाना पड़ेगा। दूसरी तरफ भाजपा से लोधी वर्ग के लोग नाराज हैं। इस वर्ग के प्रहलाद पटेल पहले यहां से सांसद भी रह चुके हैं। कांग्रेस ने यहां युवा और राहुल गांधी की टीम की सदस्य स्वर्गीय लिखीराम कांवरे की की बेटी हीना कांवरे को मैदान में उतारा है। इनका सिवनी व बरघाट नया कार्यक्षेत्र होने के कारण ज्यादा प्रभाव नहीं। जातिगत समीकरण के चलते वोटों का ध्रुवीकरण होना इनके लिए हानिकारक होगा। इन युवा व प्रौढ़ प्रतिद्वंद्वियों को सपा की अनुभा मुंजारे भी चिर-परिचित अंदाज में चुनौती दे रही हैं। जिससे ओबीसी वोटों के ध्रुवीकरण होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है। ये वही अनुभा हैं जिन्होंने हालिया विधानसभा चुनाव में मंत्री गौरीशंकर बिसेन की जीत कठिन बना दी थी। इनके अलावा इस सीट के मिजाज के मुताबिक राष्ट्रीय व प्रादेशिक व क्षेत्रीय दलों सहित निर्दलीय रूप में दर्जन भर से अधिक प्रत्याशी चुनाव में खड़े हैं। और लगभग सभी की उम्मीदवारी के पीछे उनका अपना जातिगत समीकरण है। विधानसभा चुनाव में बालाघाट संसदीय सीट में आने वाले आठ विधानसभा क्षेत्रों में से भाजपा को बालाघाट, वारासिवनी, कटंगी व बरघाट में जीत मिली, जबकि कांग्रेस ने बैहर, परसवाड़ा व लांजी सीट पर कब्जा किया था। सिवनी में निर्दलीय को जीत मिली। आजादी के बाद से हुए 10 लोकसभा चुनावों में लगातार भाजपा को पराजय का सामना करना पड़ा। 1998 में गौरीशंकर बिसेन ने कांग्रेस सांसद विश्वेश्वर भगत को हराकर पहली बार भाजपा की जीत का खाता खोला। इसके बाद से यहां भाजपा ही जीतती आ रही है। यहां आप प्रत्याशी को भी अपनों से ही डर है। दरअसल, शुरुआत से जो लोग आम आदमी पार्टी का झंडा लिए और टोपी पहने घूमते थे, टिकट वितरण के बाद पार्टी प्रत्याशी उत्तमकांत चौधरी का सड़क पर विरोध जताकर उन्होंने खुद को अलग कर लिया है। मंदसौर में भाजपा संकट में...
मंदसौर सीट पर कांग्रेस की मीनाक्षी नटराजन और भाजपा के सुधीर गुप्ता का चुनावी गणित आप के पारस सकलेचा बिगाड़ेंगे। लंबे समय ये भाजपा का गढ़ रही इस सीट से पार्टी ने सुधीर गुप्ता को अपना प्रत्याशी बनाया है। ब्राह्मण मतदाताओं के बाहुल्य वाली इस सीट से लक्ष्मीनारायण पाण्डे कई बार सांसद रहे हैं। पर इस बार रघुनंदन शर्मा को प्रत्याशी बनाए जाने की अटकलें लगाई जा रहीं थीं। अचानक गुप्ता को टिकट दिए जाने के पीछे भी पार्टी के नेता जातिगत समीकरण बता रहे हैं। सूत्रों की मानें तो वैश्य समाज को एडजस्ट करने के लिए मंदसौर का टिकट अनजान नेता गुप्ता को दिया गया। गुप्ता का नाम राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से लाया गया था। पार्टी नेताओं की मानें तो वे इस सीट से जीत के प्रति भी पूरी तरह आश्वस्त हैं। उनका मानना है कि इस समय मोदी की आंधी और प्रदेश में शिवराज फैक्टर के कारण मंदसौर सीट जीतने में कोई परेशानी नहीं आएगी। इधर मंदसौर सीट के दूसरे दावेदार बंशीलाल गुर्जर को टिकट नहीं दिए ताने से वे भी नाराज हैं। प्रदेश की कई सीटों में गुर्जर मतदाताओं की संख्या बहुत ज्यादा है पर भाजपा के नेता नहीं है। यहां से जब रघुनंदन शर्मा के भाजपा के टिकट पर मैदान में आने की खबर थी तब तक तो कांग्रेस को कुछ सूझ नहीं रहा था। अब सुधीर गुप्ता की उम्मीदवारी से कांग्रेस में राहत है। यहां का चुनाव अब मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान, पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्रसिंह तोमर और प्रदेश कोषाध्यक्ष चैतन्य काश्यप के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है। उधर,कांग्रेस की उम्मीदवार मीनाक्षी नटराजन के खिलाफ एंटीइंकंवेंसी है। लेकिन भाजपा का कमजोर प्रत्याशी उनके लिए फायदेमंद हो सकता है। लेकिन उनका सारा खेल आम आदमी पार्टी के पारस सकलेचा बिगाड़ सकते हैं। सकलेचा जमीनी नेता हैं और क्षेत्र में उनकी अच्छी पकड़ है। ये भाजपा और कांग्रेस दोनों के वोट पर चोट कर सकते हैं। अरुण यादव की अध्यक्षी दांव पर
खंडवा में भाजपा के नंदकुमार सिंह चौहान और कांग्रेस के अरुण यादव के लिए आप के आलोक अग्रवाल खतरा बने हुए हैं। यहां से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव का रास्ता रोकने के लिए भाजपा ने अभी से आक्रामक रुख अख्तियार कर लिया है। कांग्रेस यहां संगठन पर कम और यादव की निजी टीम के भरोसे ज्यादा है। यहां भाजपा के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने जैसा तेवर दिखाया है उससे स्पष्ट है कि पार्टी अब किसी तरह की ढील देने के पक्ष में नहीं है। भाजपा यहां बूथ स्तर तक की जिम्मेदारी तय कर चुकी है। कहां, कब और क्या संसाधन लगेंगे, इसका आकलन हो गया है। जातिगत समीकरणों का भी पार्टी पूरा फायदा लेना चाहती है और इन जातियों पर प्रभाव रखने वाले पार्टी नेताओं को अभी से मोर्चे पर लगाया गया है। चूंकि यहां भाजपा के बड़े नेताओं में आपसी विवाद बहुत है, इसलिए पार्टी ने वजनदार नेताओं को साधने का काम विजयवर्गीय को सौंपा है। पिछला चुनाव भाजपा भारी गुटबाजी के चलते हारी थी। इन सब के बीच आम आदमी पार्टी के आलोक अग्रवाल दोनों दलों के लिए परेशानी का सबब बने हुए हैं। क्षेत्र में नर्मदा बचाओ आंदोलन और जागृत दलित आदिवासी संगठन की अपनी-अपनी जमीन और विचारधारा है। इनसे जुड़े लोगों की संख्या भी खासी है। ऐसे में लोकसभा चुनाव में आंदोलन और संगठन का गठबंधन निमाड़ में नया राजनीतिक समीकरण माना जा रहा है। क्षेत्र में नर्मदा बचाओ आंदोलन जहां डूब, पुनर्वास, विस्थापन आदि को लेकर लंबे समय से अपनी पैठ बनाए हुए है। वहीं जागृत आदिवासी दलित संगठन मनरेगा, मातृ एवं शिशु सुरक्षा व स्वास्थ्य, सार्वजनिक वितरण प्रणाली आदि जैसे मुद्दों को लेकर काम कर रहा है। इन जनहितैषी मुद्दों के चलते इनका सीधा संपर्क अंतिम व्यक्ति तक है। दोनों ही जनआंदोलनों का नेतृत्व महिला शक्ति के हाथों में है। आंदोलन का जिम्मा मेधा पाटकर के पास है, तो संगठन की बागडोर माधुरी बहन ने संभाल रखी है।
सतना सीट पर दो सिंहों को ब्राह्मïण की चुनौती...
सतना सीट पर भाजपा प्रत्याशी गणेश सिंह और कांग्रेस प्रत्याशी अजय सिंह राहुल के बीच मुख्य मुकाबला माना जा रहा है, लेकिन बसपा ने ब्राह्मïण जाति के धर्मेंद्र तिवारी को मैदान में उतारकर मुकाबला त्रिकोणीय बना दिया है। भाजपा और कांग्रेस दोनों में ही असंतोष नजर आ रहा है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अजय सिंह राहुल का विरोध करते हुए पार्टी से मुंह फेर लिया। प्रत्याशी की घोषणा के बाद युवक कांग्रेस लोकसभा अध्यक्ष सुभाष शर्मा डोली व युवक कांग्रेस शहर अध्यक्ष विजय तिवारी ने पार्टी छोड़ दी। वहीं पूर्व में सईद अहमद की दावेदारी प्रबल मानी जा रही थी, लेकिन अजय सिंह को टिकट मिलते ही इनकी भूमिका क्षेत्र में नजर नहीं आई, अभी तक इन्हें अजय सिंह के समर्थन में क्षेत्र में प्रचार करते नहीं देखा गया। वहीं भाजपा के गणेश सिंह के प्रति रामपुर बाघेलान से भाजपा विधायक हर्षप्रताप सिंह का विरोध जगजाहिर है। महापौर पुष्कर सिंह की भी भूमिका कुछ हद तक संदेहास्पद नजर आ रही है। पिछले दिनों क्षेत्र में आए सीएम शिवराज सिंह ने हर्षप्रताप सिंह व पुष्कर सिंह को बुलाकर पार्टी के पक्ष में काम करने की हिदायत दी थी। यहां बसपा ने ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या को ध्यान में रखकर धर्मेन्द्र तिवारी को मैदान में उतारा है। माना जाता है कि ब्राह्मण वोट यहां निर्णायक की भूमिका अदा करते हैं और वे दोनों की राष्ट्रीय दलों से नाराज चल रहे हैं। सपा ने यहां से नया चेहरा रामपाल यादव को मैदान में उतारा है इसलिए उसका दखल ज्यादा नहीं माना जा रहा है। नागौद निवासी पूर्व मंत्री नागेंद्र सिंह के खजुराहो से लडऩे का असर भी यहां के चुनाव पर दिख सकता है। उनके साथ यहां के भाजपा कार्यकर्ता भी खजुराहो इलाके में काम करेंगे। रीवा में क्या बसपा बचा पाएगी सीट...?
रीवा में बसपा प्रत्याशी निवर्तमान सांसद देवराज पटेल, कांग्रेस प्रत्याशी सुंदरलाल तिवारी और भाजपा प्रत्याशी जनार्दन मिश्रा के बीच त्रिकोणीय मुकाबले के हालात बन रहे हैं। इस सीट पर भी ब्राह्मण मतदाताओं को निर्णायक बताया जाता है, लेकिन ये वोट कांग्रेस और भाजपा में विभाजित हो सकते हैं। हालांकि पिछले चुनाव में कांग्रेस के सुंदरलाल तिवारी ने देवराज पटेल को टक्कर दी थी। भाजपा के पक्ष में यह है कि विधानसभा चुनाव में उसका वोट प्रतिशत बढ़ा है। इस सीट पर सपा ने भैयालाल कोल को प्रत्याशी बनाया है, लेकिन उनका दखल ज्यादा नहीं दिखता। हालांकि वे भाजपा के जमीनी कार्यकर्ता रह चुके हैं। यहां भी कांग्रेस प्रत्याशी सुंदरलाल तिवारी और भाजपा प्रत्याशी जनार्दन मिश्रा के सामने पहली चुनौती अपनों से ही निपटने की है। कांग्रेस खेमे में अंतर्कलह सतह पर तो नहीं आया, लेकिन विंध्य के प्रमुख दो घरानों में से एक अमहिया घराने से प्रत्याशी होने को लेकर अंदर ही अंदर कार्यकर्ताओं में भी असंतोष की भावना है। लगातार दो लोकसभा चुनाव हारने के बाद भी तीसरी बार उन्हें टिकट मिला है, इसका भी गुस्सा कार्यकर्ताओं में है। कांग्रेस में सुन्दरलाल को प्रत्याशी बनाए जाने के बाद पूर्व कांग्रेसी नेता एवं रीवा महाराज पुष्पराज सिंह ने तो पार्टी ही छोड़ दी। भाजपा में अंतर्कलह इससे भी ज्यादा है। सेमरिया के पूर्व विधायक अभय मिश्रा नाराज चल ही रहे हैं। वहीं गुढ़ विधानसभा क्षेत्र के पूर्व विधायक नागेन्द्र सिंह हर हाल में उप चुनाव चाह रहे हैं। वहीं मौजूदा विधायक पर जातीय समीकरण को लेकर कांग्रेस के साथ जाने की अटकलें लगाई जा रही हैं। जातीय समीकरण भी दोनों दलों के नेताओं और पदाधिकारियों को विद्रोह करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। शहडोल में गोंगपा बनी बीच का कांटा...
वहीं शहडोल में कांग्रेस प्रत्याशी राजेश नंदिनी सिंह और भाजपा प्रत्याशी दलपत सिंह परस्ते की जीत के बीच गोंगपा के रामरतन सिंह पावले कांटा बने हुए हैं। यहां कांग्रेस प्रत्याशी निवर्तमान सांसद राजेश नंदिनी सिंह और भाजपा प्रत्याशी पूर्व सांसद दलपत सिंह परस्ते के बीच ही मुख्य मुकाबला है। इस सीट पर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का भी दखल है। गोंगपा से रामरतन सिंह पावले फिर मैदान में हैं। यहां आम आदमी पार्टी ने विजय कोल को उम्मीदवार बनाया है, लेकिन उनका कोई खास असर नहीं बताया जा रहा है। यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला है। हालांकि दोनों दल अपने ही घर के अंतर्कलह से जूझ रहे हैं। भाजपा की स्थिति तो यहां तक पहुंच गई कि झंडा-बैनर लगाने का ठेका देना पड़ा। भाजपा में तीन खेमे बन गए हैं। लोकसभा प्रभारी, उप प्रभारी एवं प्रत्याशी का अलग-अलग खेमा बन गया है और व्यवस्थाओं को लेकर खींच-तान मची हुई है। कांग्रेस का एक बड़ा खेमा खामोश है। दोनों दलों में चुनाव प्रचार की व्यवस्था को लेकर अंतर्कलह पनप रहा है। दलपत सिंह का चुनाव प्रचार अपने गृह क्षेत्र अनूपपुर जिले तक ही सिमटा हुआ है। यदि शिवराज सिंह चौहान और नरेन्द्र मोदी का फैक्टर भाजपा का साथ नहीं दे पाया तो दलपत सिंह के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। भाजपा जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं का उत्साह भी कमजोर पड़ गया है। हालांकि प्रत्याशी घोषणा के बाद से ही युवा मोर्चा में विरोध के स्वर उभर आए थे जिसका असर प्रचार-प्रसार में दिख रहा है। चुनाव कार्य की जिम्मेदारी संभाल रहे पदाधिकारी इस बात को लेकर निश्चिंत है और वह यह मान बैठे है कि जब तक शिवराज सिंह व नरेन्द्र मोदी का नाम उनके साथ है तब तक उन्हें चिंता करने की बात नहीं है। कार्यकर्ता भले ही असंतुष्ट रहे, लेकिन मतदाता उनका साथ देगा ही। कांग्रेस प्रत्याशी राजेश नंदिनी सिंह ने अपनी बेटी हिमाद्री सिंह को चुनाव प्रचार में उतार दिया है। विधानसभा चुनाव में भी बेटी के प्रचार का फायदा कांग्रेस को मिला है और लोकसभा में भी मिलेगा ऐसा माना जा रहा है। कांग्रेस का एक बड़ा खेमा प्रचार-प्रसार से दूरी बनाए हुए है और अब तक व्यवस्था के इंतजार में है। यहां भितरघात में उलझे समीकरण
इसके अलावा कई सीटों पर भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों को भितरघात का डर भी सता रहा है। कहीं पार्टी के पदाधिकारी खुलकर विरोध कर रहे हैं, तो कहीं छिपकर विरोधी का प्रचार करने लगे हैं। ऐसे नेता अपने ही प्रत्याशी की रणनीति पर पानी फेरने का काम भी कर रहे हैं। होशंगाबाद संसदीय सीट...
राव उदयप्रताप सिंह को भाजपा प्रत्याशी बनाए जाने से नरसिंहपुर जिले के कई वरिष्ठ नेता नाखुश हैं। कांग्रेस का आलम भी यही है। पार्टी के कई नेता पड़ोसी संसदीय क्षेत्रों में चले गए हैं। कांग्रेस के होशंगाबाद जिला उपाध्यक्ष पीयूष शर्मा को भाजपा प्रत्याशी राव उदयप्रताप सिंह ने अपनी एक सभा में माला पहनाकर भाजपा में शामिल कर लिया, लेकिन भाजपा जिला इकाई होशंगाबाद के अध्यक्ष और कार्यकारिणी को यह बात रास नहीं आई। उनके इस्तीफे की पेशकश और बढ़ते विरोध को देखकर अंतत: भाजपा के प्रदेश नेतृत्व ने कांग्रेस के जिला उपाध्यक्ष का भाजपा में प्रवेश रोक दिया।ं के। जबलपुर
इस सीट पर भी दलों को भितरघात का डर सता रहा है। पाटन से विधानसभा चुनाव हारने के बाद पूर्व मंत्री अजय विश्नोई यहां से टिकट मांग रहे थे। टिकट नहीं मिलने से नाराज विश्नोई को चुनाव प्रबंधन का काम सौंपकर सतना भेज दिया गया है। माना जा रहा है कि भाजपा ने भितरघात के डर से ऐसा किया है। वहीं कांग्रेस ने भी सभी दावेदारों को दरकिनार कर विवेक तन्खा को टिकट दी है। इससे पार्टी के कई पुराने दिग्गज नेता नाराज बताए जा रहे हैं। हालांकि तन्खा का विरोध खुलकर किसी ने नहीं किया है, लेकिन कई नेता प्रचार में दिखाई नहीं दे रहे हैं। छिंदवाड़ा
महाकोशल क्षेत्र की इस सीट पर दोनों हीं दलों में अब तक अंतर्कलह जैसी कोई बात सामने नहीं आई है। बताया जाता है कि दोनों ही दलों के नेता पहले से ही मानकर चल रहे थे कि टिकट किसको मिलेगी। भाजपा में जरूर एक-दो नेता चुनाव प्रचार में सक्रिय नहीं दिख रहे हैं, लेकिन पार्टी इससे इनकार करती है। मंडला
पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनाव में टिकट मांग रहे पूर्व भाजपा विधायक शिवराज शाह चुनाव को लेकर उत्साहित नजर नहीं आ रहे। वे भाजपा प्रत्याशी फग्गन सिंह कुलस्ते के प्रचार अभियान में भी दिखाई नहीं दे रहे। ऐसी ही स्थिति कांग्रेस प्रत्याशी ओंकार मरकाम के साथ है। डिंडौरी जिले के पार्टी पदाधिकारी खुलकर उनका विरोध कर चुके हैं। उन्होंने प्रत्याशी पर कई आरोप लगाते हुए सोनिया गांधी तक को पत्र लिखा है। सीधी
यहां भाजपा और कांग्रेस दोनों ही भितरघात से जूझ रही हैं। सीधी और सिंगरौली जिले के भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रचार करने से कन्नी काट रहे हैं। टिकट नहीं मिलने से निवर्तमान सांसद गोविन्द मिश्रा नाराज चल रहे हैं। उनके साथ टिकट के अन्य दावेदार भी रीति पाठक का प्रचार नहीं कर रहे हैं। बताया जाता है कि कुछ पार्टी नेता तो अपने ही उम्मीदवार को हराने के लिए जाल बिछा रहे हैं। कांग्रेस प्रत्याशी इन्द्रजीत कुमार को भी पार्टी में विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इन्द्रजीत को टिकट मिलने के बाद कांग्रेस के पूर्व मंत्री वंशमणि वर्मा के साथ कई नेता भाजपा में शामिल हो रहे हैं। अजय सिंह को यहां से टिकट नहीं मिलने के कारण उनके समर्थक भी नाराज हैं। उज्जैन,देवास में नमो और संघ के सहारे
भगवा ब्रिगेड के पुरातन गढ़ मालवा की लोकसभा सीटों उज्जैन और देवास को बरसों बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने खोया था। लेकिन इस बार नरेंद्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान के सहारे भाजपा इस बार यहां चुनावी नैया पार करने की तैयारी कर रही है। उज्जैन संसदीय क्षेत्र में भाजपा ने इस बार विक्रम विश्वविद्यालय की दर्शनशास्त्र अध्ययनशाला के विभागाध्यक्ष डॉ.चिंतामणि मालवीय को नए चेहरे के रूप में मैदान में उतार दिया। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक यह प्रयोग जनता छोड़ पार्टी के ही कुछ नेताओं और कई कार्यकर्ताओं के गले अब तक नहीं उतर पाया है। देवास संसदीय सीट से भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव थावरचंद गेहलोत यहां से चुनाव लड़ते और जीतते आए। पिछले चुनाव में कांग्रेस के सज्जनसिंह वर्मा से हारे और इस बार उन्हें पार्टी ने टिकट नहीं दिया। उनकी जगह आगर के विधायक और पूर्व मंत्री मनोहर ऊंटवाल को मैदान में उतारा गया है। रतलाम जिले की आलोट विधानसभा क्षेत्र से विधायक रह चुके ऊंटवाल की उम्मीदवारी को पार्टी का ही एक धड़ा अब तक नहीं पचा पाया है। भाजपा के कईउम्मीदवार 55 पार भी
इस लोकसभा चुनाव में भाजपा ने प्रदेश में सबसे ज्यादा बुजुर्गों को मैदान में उतारा है। दिलीप सिंह भूरिया, सुमित्रा महाजन, लक्ष्मीनारायण यादव, दलपत सिंह परस्ते, नागेंद्र सिंह, भागीरथ प्रसाद ये ऐस चेहरे हैं, जो 70 की उम्र पार कर चुके हैं। इसके बाद 55 पार करने वाले एक दर्जन उम्मीदवार हैं। झाबुआ में 80 साल के दिलीप सिंह भूरिया का विकल्प दिया गया है। इंदौर में 70 साल की सुमित्रा महाजन हैं। सागर में 70 साल के ही लक्ष्मीनारायण यादव हैं। भिंड में इतनी ही उम्र के भागीरथ प्रसाद हैं। शहडोल में दलपत सिंह परस्ते, खजुराहो में नागेंद्र सिंह हैं। इसके बाद 55 और 60 की उम्र के नेताओं की बयार है। विदिशा से सुषमा स्वराज, ग्वालियर से भाजपा प्रदेशाध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर, मुरैना में अनूप मिश्रा, खंडवा में नंदकुमार सिंह चौहान, छिंदवाड़ा में चौधरी चंद्रभान सिंह, शिवपुरी में जयभान सिंह पवैया, होशंगाबाद में राव उदयप्रताप सिंह, जबलपुर में राकेश सिंह, दमोह में प्रहलाद पटेल, राजगढ़ में रोडमल नागर, रीवा में जनार्दन मिश्रा, मंदसौर में सुधीर गुप्ता हैं। भाजपा में 50 साल से कम उम्र के तीन ही प्रत्याशी हैं। भोपाल में आलोक संजर, सीधी में रीति पाठक और खरगौन में सुभाष पटेल।