vinod upadhyay

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शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

एक लाख महिलाओं के 10 हजार समूह बनेंगे

राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन
सौ-दिवसीय योजना में 108 करोड़ के बैंक लिंकेज का लक्ष्य
भोपाल : राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन में ग्रामीण गरीब परिवारों के आर्थिक उत्थान के पुरजोर प्रयास हो रहे हैं। इस मक़सद से वित्तीय वर्ष के अंत तक मिशन के सघन क्षेत्रों में एक लाख महिलाओं के 10 हजार स्व-सहायता समूह बनाने का अभियान चलाया जा रहा है। महिला स्व-सहायता समूहों को 100 दिवसीय कार्य-योजना के अंतर्गत 108 करोड़ रुपये के बैंक लिंकेज का लक्ष्य रखा गया है। गरीब परिवारों और स्व-सहायता समूहों की मदद के लिये मिशन द्वारा 100 बैंक मित्रों को भी प्रशिक्षित किया जा रहा है। इन बैंक मित्रों को ग्रामीण आसानी से पहचान सकें, इसके लिये उन्हें पहचान के लिये बेज भी दिये जा रहे हैं। मुख्य कार्यपालन अधिकारी राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन श्री एल.एम. बेलवाल ने बताया कि मिशन में सभी पात्र स्व-सहायता समूहों का बैंक लिंकेज किया जा रहा है। बैंकों के जरिये वित्तीय सहायता मुहैया करवाने के साथ ही समूहों द्वारा तैयार किये जाने वाले उत्पाद की गुणवत्ता भी सुनिश्चित की जायेगी। प्रदेश में जिला, संभाग और राज्य-स्तर पर आजीविका बाजार स्थापित किये जायेंगे, जहाँ समूहों द्वारा उत्पादित सामग्री की ब्रिकी होगी। स्व-सहायता समूहों द्वारा तैयार उत्पाद के लिये 'आजीविका ब्राण्ड'' का लोगो तैयार किया गया है। इससे सभी उत्पाद में एकरूपता बनी रहेगी। स्व-सहायता समूहों को कृषि संबंधी गतिविधियों से सुनियोजित तरीकों से जोड़ा जा रहा है। इसके साथ ही मल्टी-लेवल क्रॉपिंग के संबंध में समूह सदस्यों को प्रेरित करने की मुहिम शुरू की गई है। मण्डला, डिण्डोरी, अनूपपुर एवं शहडोल जिले में कोदो-कुटकी, रामतिल आदि कृषि उत्पाद से स्व-समूहों को जोड़ा जा रहा है। कृषि के साथ ही पशु-पालन सहित विभिन्न गैर-कृषि आजीविका गतिविधियों को भी बढ़ावा दिया जा रहा है। मिशन में प्रत्येक संकुल में कम से कम एक ग्राम को आदर्श गाँव के रूप में विकसित करने की पहल की जा रही है। प्रत्येक आदर्श गाँव में समूह सदस्यों को सभी तरह की शासकीय योजनाओं से लाभान्वित करने की दिशा में सु-नियोजित प्रयास होंगे। इन ग्रामों में स्वच्छता के लिये शौचालय निर्माण तथा पात्र सदस्यों को सामाजिक सुरक्षा पेंशन का लाभ दिलवाने के लिये सघन कार्यवाही की जायेगी। मिशन के जरिये प्रत्येक जिले में कम से कम 100 परिवार को गरीबी की रेखा से ऊपर ले जाकर ऐसे प्रत्येक परिवार की वार्षिक आय एक लाख रुपये किये जाने और उन्हें आर्थिक रूप से सक्षम बनाने की दिशा में सार्थक कोशिशें शुरू की गई हैं। प्रदेश में राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन अप्रैल, 2012 से आरंभ हुआ है। मिशन को चरणबद्ध रूप से प्रदेश के विभिन्न जिलों में लागू किया जा रहा है। शुरूआत में राज्य के 10 आदिवासी बहुल जिलों के चयनित 46 विकासखण्ड में इसे सघन रणनीति से लागू किया गया है। इसके अलावा 214 विकासखण्ड में गैर-सघन रूप से मिशन क्रियान्वित किया जा रहा है। ग्रामीण विकास मंत्रालय भारत सरकार के निर्णय के अनुसार वर्ष 1999 से कार्यान्वित की जा रही स्वर्ण जयंती ग्राम स्व-रोजगार योजना (एसजीएसवाय) में परिवर्तन करते हुए इसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन नाम दिया गया है। गरीब परिवारों को उपयोगी स्व-रोजगार एवं कौशल आधारित मजदूरी के अवसर उपलब्ध करवाकर निर्धनता कम करना ही मिशन का मुख्य उद्देश्य है। गरीबों की आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये सामुदायिक संस्थाओं के गठन और उनको सशक्त करने पर विशेष रूप से ध्यान दिया जा रहा है। इस रणनीति के अंतर्गत स्व-सहायता समूह एवं उनके परिसंघ का गठन एवं सशक्तिकरण किया जा रहा है।

भगत सिंह की फांसी पर आज लगी थी `अंतिम मुहर`

14 फरवरी...महज एक तारीख या कोई दिन नहीं बल्कि एक विशेष अहसास है जो हर युवा के दिलों में स्पंदन की गति को बढ़ा देता है। 14 फरवरी आज-कल वैलेंटाइन डे के रूप में न केवल भारत बल्कि दुनिया भर में मनाया जाता है। भारतीय युवाओं में भी इस दिन का विशेष क्रेज देखा-जाता है। मगर इस दिन को केवल स्त्री-पुरूष प्रेम के लिए ही नहीं जाना जाना चाहिए बल्कि इस दिन कुछ ऎसा हुआ था कि अगर इस तारीख को भारतीय इतिहास की सबसे काले दिनों में शुमार किया जाए तो गलत न होगा। आखिर क्या हुआ इस दिन जो इसे बनाता है बेहद काला दिन? देश की आजादी के सबसे बड़े सितारे शहीद ए आजम सरदार भगत सिंह की फांसी की सजा पर आज ही के दिन (14 फरवरी, 1931) को अंतिम मुहर लगाई गई थी। आपको बता दें कि, केस की सुनवाई की दौरान भारत में भगत सिंह की लोकप्रियता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही थी, और जगह-जगह विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। जिसे देखते हुए वॉयसराय लॉर्ड इरविन ने 1 मई 1930 को आपतकाल की घोषणा करते हुए इस केस को जल्द खत्म करने की खातिर उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों का एक स्पेशल ट्रिब्यूनल बनाने का अध्यादेश पारित किया था। यह अध्यादेश (और ट्रिब्यूनल) न तो सेंट्रल असेंबली में और न ही ब्रिट्रिश संसद में पारित किया गया था अत: यह 31 अक्टूबर 1930 को समाप्त हो जाता। इसी वजह से 7 अक्टूबर, 1930 को ट्रिब्यूनल ने सभी साक्ष्यों के आधार पर अपना 300 पन्नों का निर्णय दिया। ट्रिब्यूनल ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को सांडर्स की मौत का दोषी माना और उन्हें फांसी से मौत की सजा सुनाई। अन्य 12 आरोपियों को कठोर आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। इस ट्रिब्यूनल की अध्यक्षता जस्टिस जी. सी. हल्टन ने की थी। जबकि उसके अन्य सदस्य जस्टिस जे. के. टैप और जस्टिस सर अब्दुल कादिर थे। इसके बाद पंजाब में एक रक्षा समिति ने प्रिवी काउंसिल में एक अपील करने के लिए योजना बनाई। भगत सिंह शुरूआत में इस अपील के खिलाफ थे लेकिन बाद में यह सोचकर की शायद इस अपील से ब्रिटेन में भी हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन लोकप्रिय होगा मान गए थे। अपील में दावा किया गया था कि जिस अध्यादेश से यह ट्रिब्यूनल बनाया गया था वह अवैध था, जबकि सरकार ने इसका विरोध करते हुए अपना पक्ष रखा था कि वायसराय पूरी तरह से ऎसा ट्रिब्यूनल बनाने के लिए सक्षम हैं। इस अपील को न्यायाधीश विस्काउंट डुनेडिन ने बर्खास्त कर दिया था। प्रिवी काउंसिल में अपील खारिज होने के बाद, तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को इरविन के समक्ष एक दया याचिका लगाई थी, जिसे भी खारिज कर दिया गया था। और अंतत: 23 मार्च, 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरू को फांसी दे दी गई। क्यों नाम पड़ा भगत सिंह परिवार के अनुसार, शहीद ए आजम का नाम 'भागां वाला' (किस्मत वाला) होने के कारण भगत सिंह पड़ा। उन्हें यह नाम उनकी दादी जयकौर ने दिया था, क्योंकि जिस दिन उनका जन्म हुआ उसी दिन उनके पिता किशन सिंह और चाचा अजित सिंह जेल से छूट कर आए थे। 13 और 23 का था अलग महत्व 28 सितंबर, 1907 को पैदा हुए और करतार सिंह सराबा को अपना आदर्श मानने वाले भगत सिंह की जिन्दगी में 13 और 23 तारीख का बहुत बड़ा महत्व रहा। 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग नरसंहार ने उन्हें Rांतिकारी बनाने का काम किया। उनके परिवार के सदस्यों के मुताबिक भगत सिंह द्वारा लिखे गए ज्यादातर पत्रों पर 13 या 23 तारीख अंकित है। 23 मार्च 1931 को 23 साल की उम्र में वह देश के लिए फांसी के फंदे पर झूल गए। भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था। यह एक सिख परिवार था जिसने आर्य समाज के विचार को अपना लिया था। उनके परिवार पर आर्य समाज व महर्षि दयानन्द की विचारधारा का गहरा प्रभाव था। अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड ने भगत सिंह की सोच पर गहरा प्रभाव डाला था। उस समय भगत सिंह करीब 12 वर्ष के थे जब जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड हुआ था। इसकी सूचना मिलते ही भगत सिंह अपने स्कूल से 12 मील पैदल चलकर जलियांवाला बाग पहुंच गये थे। इस उम्र में भगत सिंह अपने चाचाओं की क्रान्तिकारी किताबें पढ़ कर सोचते थे कि इनका रास्ता सही है कि नहीं ?

किले की दीवार पर मुखर होगा 'सन्‍नाटा'

राष्‍ट्रकवि भवानी प्रसाद मिश्र की प्रसिद्घ कविता 'सन्नाटा' अब जल्द ही उस किले की दीवारों पर मुखर होगी, जिस दीवार पर बैठकर उन्होंने कविता का सृजन किया था। ज्ञात रहे कि हाल ही में बैतूल जिले की एक संस्था ने उनकी प्रसिद्घ कविता 'सतपुड़ा के घने जंगल' को उसी शिला पर अंकित किया गया है, जिस पर बैठकर उन्होंने कविता लिखी थी। ठीक उसी प्रकार उनकी 'सन्नाटा' कविता को भी किले की दीवारों पर अंकित किया जाएगा। यह कार्य नगर पालिका और जिला प्रशासन द्वारा किराए जा रहे संवर्धन और सौंदर्यीकरण कार्य के तहत कराया जाएगा। ऐसा माना जाता है कि पं. मिश्र ने उक्त कविता नर्मदा तट पर स्थित प्राचीन किले की दीवारों पर बैठकर ही लिखी थी। देश के महान साहित्यकार भवानी प्रसाद मिश्र की जन्मस्थली होने का गौरव होशंगाबाद जिले को प्राप्त है। वर्ष 1913 में उनका जन्म नर्मदा तट के टिगरिया गांव में हुआ था। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्घि के धनी थी। पुराने लोग बताते हैं कि स्कूली शिक्षा के दौरान पं. मिश्र अक्सर घूमते हुए नर्मदा तट पर स्थित खंडहर में चले जाते थे और वहां घंटों बैठकर नर्मदा को निहारा करते थे। खंडहर होने के कारण यहां ज्यादा लोग नहीं आते थे। इस कारण यहां हमेशा सन्नाटा पसरा रहता था। बाद में उन्होंने यहीं बैठकर सन्नाटा जैसी प्रसिद्घ रचना का सृजन किया। इसलिए आया ध्यान हाल ही में जब बैतूल जिले की संस्था भारत-भारती ने पं. मिश्र की एक अन्य कविता सतपुड़ा के घने जंगल को शिला पर अंकित कराया तो होशंगाबाद की नगर पालिका अध्यक्ष माया नारोलिया और एसडीएम राजेश शाही के ध्यान में यह बात आई। नारोलिया ने बताया कि यह हमारे लिए गर्व की बात है कि भवानी प्रसाद मिश्र जैसे साहित्यकार की जन्मस्थली होशंगाबाद है। उनकी कविता को अमर करने के लिए किले के सौंदर्यीकरण के साथ ही उनकी कविता को दीवार पर अंकित कराया जाएगा। इससे यहां आने वाले सैलानी और अन्य लोग कम से कम उनकी कविता को पढ़ सकेंगे। एसडीएम श्री शाही ने बताया कि यह पं. मिश्र के लिए सबसे बड़ी श्रद्घांजलि होगी। ये है सन्‍नाटा मैं सन्‍नाटज्ञ हूं फिर भी बोल रहा हूं, मैं शांत बहुत शांत हूं फिर भी डोल रहा हूं। ये सर-सर ये खड़-खड़ सब मेरी हैं, है ये रहस्‍य में इसको खोल रहा हूं।

अकबर ने जुदा किया था रूपमती और सुल्तान को!

पत्नी मुमताज की याद व उनके प्रेम की खातिर मुगल सम्राट शाहजहां ने खूबसूरत ताज महल बनवाया था। ऐसे ही एक वीर योद्धा अकबर की अधूरी प्रेम कहानी के बारे में आज हम आपको बताने जा रहे हैं, जिन्हें मांडू की रानी रूपमती से प्रेम हो गया था। रानी को पाने के लिए अकबर ने एक साजिश के तहत उन्हें अपने पति से अलग करना चाहा था। मालवा के सारंगपुर जिले में बना एक मकबरा रानी रूपमती के प्रेम और बलिदान की मिसाल है। यह मकबरा मांडू की रानी रूपमती और बाज बहादुर को अलग करने की साजिश रचने वाले शहंशाह अकबर ने खुद बनवाया था। रानी रूपमती की आवाज और खूबसूरती के कायल अकबर ने रानी को पाने के लिए सुल्तान बाज बहादुर पर ने सिर्फ हमला करवाया था, बल्कि उन्हें बंदी भी बना लिया था। इस बात से दुखी रानी रूपमती ने हीरा लीलकर अपनी जान दे दी थी। रानी की मौते से दुखी अकबर ने फौरन बंधक बनाए प्रेमी बाज बहादुर को मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं अकबर ने प्रेमिका की समाधि पर जान देने वाले बाज बहादुर का मकबरा भी बनवाया।
आशिक ए सादिक का मकबरा:
सारंगपुर के नजदीक बना यह मकबरा शहंशाह अकबर ने 1568 ईस्वी में बनवाया था। यह बात सच है कि इस स्मारक को वह ख्याति नहीं मिल पाई, जिसका यह हकदार था। कभी अपनी भव्यता के लिए पहचाने जाने वाला यह मकबरा देखरेख के अभाव में अपने अस्तित्व को खोता जा रहा है। बताया जाता है कि दो प्रेमियों को अलग करने का पछतावा दिनरात अकबर को परेशान कर रहा था। ऐसे में अकबर ने बाज बहादुर के मकबरा पर 'आशिक ए सादिक' और रानी रूपमति की समाधि पर 'शहीदे ए वफा' लिखवाया था। हालांकि वह शिलालेख अब वहां मौजूद नहीं है, लेकिन जानने वाले इसे इसी नाम से पुकारते हैं।
रूपमति से मिलने सारंगपुर आने लगे थे सुल्तान:
अमर हो गई शहीद ए वफा और आशिक ए सादिक की प्रेम कहानी: उस समय सारंगपुर शेरशाह सूरी के सूबेदार सुजात खान के अधिकार में था। सुजात खान का संगीत व कला प्रेमी बेटा बाज बहादुर (1556 से 1561) तक मालवा का सुल्तान रहा। रूपमति सारंगपुर के पास फूलपुर (तिल्लजपुर) के एक किसान की बेटी थी। सुंदर होने के साथ ही रूपमति कवियित्री, गायिका व संगीतज्ञ थी। रूपमति की ख्याति सुनकर सुल्तान बाज उनसे मिलने सारंगपुर आए और उन्हें रूपमति से प्रेम हो गया। इसके बाद वह अक्सर रूपमती से मिलने सारंगपुर आया करते थे। कुछ महिनों बाद बाज बहादुर ने रूपमती से विवाह कर उसे अपनी रानी बना लिया।
दोनों के प्रेम को लगी शहंशाह की नजर:
अब तक रानी रूपमती के सौंदर्य व गायन की चर्चा शहंशाह अकबर तक पहुंच चुकी थी। उन्होंने बाज बहादुर को पत्र लिखकर रानी रूपमती को दिल्ली दरबार में भेजने की बात कही। इस पर तमतमाए बाज बहादुर ने अकबर को उन्हीं के लहजे में पत्र लिखा और अपनी रानी को सारंगपुर भेजने की बात कही। एक राजा की इस गुस्ताखी ने शहंशाह अकबर को विचलित कर दिया।
रानी ने हीरा लीलकर दे दी थी जान:
गुस्से में तमतमाए शहंशाह अकबर ने अपने सिपहसालार आदम खां को भेजकर मालवा पर आक्रमण करा दिया। लड़ाई में बाज बहादुर हार गया और मुगलों ने उसे बंदी बना लिया। जीत के बाद आदम खां रानी रूपमती को लेने के लिए मांडव रवाना हो गए। इससे पहले की अकबर रानी रूपमती को अपना बंदी बना पाता, रानी रूपमती ने हीरा लीलकर अपनी जान दे दी।
ताजमहल से पुरानी है सारंगपुर मकबरे की कहानी:
इस प्रेम की अनोखी दास्तां के बारे में जानकर अकबर को बहुत पछतावा हुआ। दो प्रेमियों को अलग करने का जिम्मेदार खुद को मानने वाले अकबर के आदेश पर रानी रूपमती के शव को ससम्मान सारंगपुर भेजकर दफनाया गया। इतना ही नहीं अकबर ने रानी की मजार भी बनवाई।
रानी की मजार पर सिर पटक-पटक कर दे दी जान:
पछतावे की आग में जल रहे अकबर ने तत्काल बंदी बाज बहादुर को मुक्त कराने के आदेश दे दिए। मुक्त होते ही बाज बहादुर को अकबर ने मिलने के लिए अपने दरबार में बुलाया। वर्ष 1568 में बाज बहादुर गंभीर बीमार हो गए थे। उन्होंने अकबर से अपनी अंतिम इच्छा जाहिर करते हुए सारंगपुर जाने की बात कही। इस पर अकबर ने बाज को दिल्ली से पालकी में बैठाकर सारंगपुर भिजवाया। यहां बाज बहादुर ने रूपमती की मजार पर सिर पटक-पटक कर जान दे दी। बाद में रूपमती के पास में ही बाज बहादुर की मजार भी बनाई गई।