vinod upadhyay

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शनिवार, 22 मार्च 2014

पर्चियों और मोबाइल पर करोड़ों का कारोबार

मल्टी कमोडिटी एक्सचेंज (एमसीएक्स) और नेशनल कमोडिटी एंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) के समानांतर फर्जी एक्सचेंज चलाने वाले गिरोह की जांच अब सीबीआई द्वारा की जाएगी। इसके बावजूद शहर और प्रदेश में अभी भी धड़ल्ले से सैकड़ों करोड़ रुपए का फर्जी कारोबार रोजाना हो रहा है। इस कारोबार से जुड़े लोगोंं की माने तो पुलिस की कड़ी निगरानी के बावजूद पर्चियों और मोबाइल के सहारे आज भी यह करोड़ों रुपए का कारोबार रोजाना हो रहा है। कारोबारी कहते हैं कि चूंकि इस तरीके के कारोबार में पूरी तरह से नगदी का ही प्रयोग होता है इसलिए अवैध रूप से यह कारोबार निर्बाध गति से जारी है। नगद में कारोबार इस संबंध में बात करने पर द सोयाबीन प्रोसेसर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सोपा) के एक पदाधिकारी ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि पर्चियों और मोबाइल के जरिए एमसीएक्स के इतर अभी भी करोड़ों रुपए का काम व्यापारियों की सहमति से हो रहा है। चूंकि यह सौदे नगद और दो लोगों के बीच होते हैं इसलिए किसी को सौदे विशेष की जानकारी नहीं हो पाती है। उन्होंने कहा कि कंपनी विशेष के इतर छोटे और शहर से लगे क्षेत्रों के व्यापारी इसमें ज्यादा बड़ी भूमिका निभाते हैं। सरकार को इस संबंध में प्रभावी कदम उठाना चाहिए क्योंकि वैधानिक तरीके से कारोबार होगा तो सरकार को भी आयकर, सर्विस टैक्स आदि के रूप में राजस्व मिलेगा। जानकारों के अनुसार वायदा बाजार में प्रति दिन करीब दो लाख टन सोयाबीन और 1.5 लाख टन तेल का कारोबार होता है। सौदे काटने का काम अभी भी वहीं दूसरी ओर एक अन्य व्यापारी का कहना है कि इंदौर में जो फर्जी एक्सचेंज पकड़ाया है वह पहली बार हुआ है, लेकिन स्क्रीन पर भाव देखकर पर्चियों पर सौंदा लिखकर बुकिंग और कुछ समय बाद व्यापारी के हिसाब से सौदे काटने (सौदा पूरा होना) का काम अभी भी हो रहा है। उन्होंने कहा कि चूंकि यह काम साख पर और नगद होता है इसलिए व्यापारी इसको बड़े पैमाने पर करते हैं। जो व्यक्ति बुकिंग करता है वह सौदा कटने के बाद मार्जिन मनी व्यापारी विशेष तक पहुंचा देता है। वहीं मोबाइल पर भी सौदे बुक हो रहे है, इसमें भी पर्ची वाली प्रक्रिया ही अपनायी जाती है। उन्होंने कहा कि इस व्यापार का सही अनुमान लगाना तो कठिन है क्योंकि यह देश भर में हो रहा है लेकिन व्यापारियों के कुल डब्बा कारोबार का 30 फीसदी से भी अधिक पर्ची और मोबाइल पर इस प्रकार के सौदे हो रहे हैं। इंदौर से ही देश के अन्य शहरों के व्यापारी इस प्रकार का सौदा कर रहे हैं। इस संबंध में वाणिज्यकर विभाग के वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि चूंकि इसमें फिजिकल सौदा नहीं होता है इसलिए यह हमारी जद में नहीं आता है। हम निगरानी अवश्य कर रहे हैं। सावधान रहे निवेशक निवेशकों को फर्जी वायदा कारोबारियों से सावधान रहना होगा। कमोडिटी सहित अन्य वायदा कारोबार में ट्रेडिंग करना चाहते हैं तो देश के नेशनल एक्सचेंजों में लिस्टेड सब ब्रोकरों के माध्यम से ही वायदा कारोबार करें। देश में एमसीएक्स व एनसीडीईएक्स दो बड़े वायदा एक्सचेंज है। इसके साथ ही वायदा बाजार आयोग (एफएमसी) के माध्यम से भी अधिकृत सब ब्रोकरों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। देश में वायदा कारोबार को रेग्युलेट करने का काम एफएमसी ही करती है। यदि ब्रोकर को लेकर निवेशक के मन में किसी भी प्रकार की शंका है या उसे यह लग रहा है कि कहीं ब्रोकर फर्जी तो नहीं इस स्थिति में तुरंत पुलिस में या एफएमसी को शिकायत करें। आभासी होता है कारोबार पर्चियों व मोबाइल पर वायदा कारोबार चलाने वाले व्यापारी करोड़ों रुपए का कारोबार हवा में ही करते हैं। अर्थात इसमें किसी प्रकार की वास्तविक खरीद-फरोख्त नहीं होती है। जैसे फर्जी वायदा करोबार चलाने वाले किसी ब्रोकर के पास निवेशक ने 5 क्विंटल सोयाबीन का सौदा करने को कहा उस ब्रोकर ने फोन पर ही निवेशक को बतया कि इस समय इस कमोडिटी का रेट फला-फलां चल रहा है। इस रेट पर बुकिंग के पश्चात जब सौदे के कटान का समय आता है तो उस समय यदि रेट बुकिंग रेट से अधिक है तो ब्रोकर अपना ब्रोक्रेज काटकर शेष मार्जिन मनी निवेशक को दे देता है। इसी प्रकार रेट कम होने पर निवेशक से मार्जिन मनी वसूली जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में न किसी ने माल खरीदा और ना किसी ने उसे बेचा अर्थात सारा कारोबार आभासी रूप से हुआ। 1000 करोड़ से अधिक का घोटाला डिब्बा कारोबारी अमित सांवेर द्वारा संचालित फर्जी कमोडिटी एक्सचेंज की सीबीआई द्वारा प्रारंभिक जांच में घोटाला हजार करोड़ से अधिक का निकला। इसके खिलाफ सीबीआई ने केस दर्ज कर लिया है। अब तक इस मामले की जांच सीआईडी कर रही थी। सीबीआई के अनुसार एमसीएक्सए बीएसईए एनएसई के समानांतर फर्जी कमोडिटी एक्सचेंज चलाने के मामले में इंदौर के अमित सांवेर उर्फ अमित सोनी और अनुराग सोनी के खिलाफ धारा 420 और आईटी एक्ट की धाराओं में मामला दर्ज किया है। दोनों ने अवैध सॉफ्टवेयर की मदद से फर्जी एक्सचेंज चलाया और निवेशकों व सरकार को करोड़ों का चूना लगाया था। प्रतिदिन होने वाला फर्जी कारोबार सोयाबीन - 5.20 करोड़ रुपए सोयाबीन तेल- चार करोड़ रुपए सराफा - 10 करोड़ रुपए दाल व अन्य अनाज - 15 करोड़ रुपए धनिया - एक करोड़ रुपए (व्यापारियों से बातचीत के आधार पर सौंदों का अनुमान) - See more at: http://naidunia.jagran.com/special-story-business-worth-millions-on-slips-and-mobile-55299#sthash.vSqij24n.dpuf

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

मास्टर से कालेधन के कुबेर बन बैठे त्रिवेदी बंधु

लोकायुक्त के छापे में सामने आई करोड़ों की कमाई भोपाल। कुछ साल पहले तक कॉलेजों में पढ़ाने वाले पंकज और पीयूष त्रिवेदी देखते ही देखते मप्र की शिक्षण व्यवस्था के नीति निर्धारक बन बैठे। इन दोनों भाईयों के रसूख का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है की बिना उचित योग्यता के ही पंकज त्रिवेदी व्यावसायिक परीक्षा मंडल के सर्वेसर्वा बन बैठे,वहीं उनके भाई पीयूष त्रिवेदी राजीव गांधी प्रद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति बन बैठे। दोनों भाईयों ने अपने-अपने संस्थान को भ्रष्टाचारियों का चारागाह बना दिया। एसटीएफ ने व्यापमं में हुए फर्जीवाड़े का खुलाशा करके पंकज त्रिवेदी की हकीकत सामने ला दिया है। वहीं अब लोकायुक्त के छापे के बाद पीयूष त्रिवेदी की किताब भी खुलेगी,क्योंकि अब आयकर विभाग ने भी तहकीकात में जुटा हुआ है। लेक्चरर से करोड़पति तक का सफर पंकज त्रिवेदी ऐसे अफसर निकले हैं, जो दूसरों की तुलना में पैसे कमाने में सबसे आगे थे। लोकायुक्त की टीम ने जब जांच की, तो यह बात सामने आई कि त्रिवेदी का सफर आट्र्स एंड कॉमर्स कॉलेज में बतौर लेक्चरर के रूप में हुआ था। पंकज जो कभी शिक्षक थे बच्चों को नैतिक गुण सिखाया करते थे आज अनैतिकता की सारी सीमा लांघी। राजनीतिक पहुंच और तिकड़म से व्यापमं के डायरेक्टर बने। नियमों को बदलकर इनको परीक्षा नियंत्रक के साथ-साथ डायरेक्टर भी बनाया गया और करोड़ों में खेलने लगे। अपने कार्यकाल के दौरान 60 से अधिक प्रवेश एवं भर्ती परीक्षाओं में जमकर घोटाला किया। उनके खिलाफ नियुक्तियों और पीएमटी घोटाले के मामले में छह प्रकरण भी दर्ज हुए हैं। आज वे जेल में हैं और बाहर रोजाना उनकी करतूतों का एक न एक खुलासा हो रहा है। अभी तक एसटीएफ ने पंकज त्रिवेदी की कमाई का खलासा किया था उससे सब हैरान थे कि इन्होंने इतनी कमाई किस तरह कर ली। अब लोकायुक्त के छापे में कई खुलासे हुए हैं और कई सामने आने वाले हैं। भोपाल में लोकायुक्त पुलिस ने करीब चौदह घंटे कार्रवाई की और फिर पंकज के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज किया। छापे के दौरान पंकज की करोड़ों की काली कमाई का पता चला। सूत्रों के मुताबिक पंकज ने अपनी कमाई का काला धन एक्रोपॉलिस इंस्टीटयूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडी एंड रिसर्च कॉलेज में लगा रखा है। जब्त दस्तावेजों में पंकज, पिता स्व. नटवर त्रिवेदी और भाभी वंदना त्रिवेदी के नाम पार्टनर के रूप में दर्ज हैं। पीयूष की पत्नी वंदना त्रिवेदी इस कॉलेज में फेकल्टी हैं। इससे पहले एसटीएफ भी त्रिवेदी के घर छापा मार चुकी है, पर तब वहां से कॉलेज के संबंध में कोई दस्तावेज नहीं मिला था। डॉ. पंकज त्रिवेदी ने 28 साल पहले आर्ट एंड कॉमर्स कॉलेज में बतौर लेक्चरर सरकारी नौकरी की शुरूआत की थी। यहां से व्यापमं के कंट्रोलर के पद तक का सफर तय किया। अब तक की नौकरी में मिला वेतन 80 लाख रूपए के करीब है। छापे में एक्रोपॉलिस कॉलेज राऊखेड़ी इंदौर बाइपास में भागीदारी संबंधी दस्तावेज मिले हैं। इनके अलावा 157 विनय नगर इंदौर का दो मंजिला आलीशान मकान विनय नगर में ही एक अन्य मकान के कागजात मिले। ग्राम टोडी तहसील सांवेर में 5.375 हेक्टेयर कृषि भूमि। प्रकृति कॉलोनी, बिचौली हप्सी में 2800 वर्गफीट का प्लॉटे एक फॉक्सवेगन कार, एक दोपहिया वाहन, बैंक खातों में जमा 2.5 लाख रूपए, घर पर 2.5 लाख के जेवर, पंजाब नेशनल बैंक के लॉकर में भी 2.5 लाख के आभूषण, भोपाल के बैंक लॉकर में 50 हजार के जेवरे लोकायुक्त पुलिस की दूसरी टीम ने चार इमली स्थित पंकज के उपांत कॉलोनी के डी-17 स्थित घर पर दबिश दी। मकान पर ताला लगा था, जिसके बारे में बताया गया कि चाबी पंकज की पत्नी अर्चना त्रिवेदी के पास है। अर्चना इंदौर में रह रही है। एक टीम अर्चना को लेकर दोपहर बाद इंदौर से रवाना हुई। भोपाल पहुंचते ही टीम अर्चना को त्रिलंगा के पास स्थित बैंक ऑफ बड़ौदा लेकर पहुंची। यहां पुलिस ने उनका लॉकर खुलवाया। लोकायुक्त पुलिस को लॉकर से दो कटोरी-गिलास, सोने के बंूदे, पेंडल, कंगन मिला है। डीएसपी लोकायुक्त एसएल कटारिया ने बताया इसकी कीमत करीब 45 हजार रूपए है। इसके बाद टीम ने उपांत कॉलोनी स्थित घर को खंगाला। यहां से 12 पॉलिसियां, पांच बैकों पीएनबी, एसबीआई, बॉब समेत अन्य के एटीएम कार्ड और दो कार व एक मोपेड के दस्तावेज मिले। करीब पंद्रह लाख रूपए की संपत्ति यहां से पता चली है। फाइलों में फर्जीवाड़े की कहानी लोकायुक्त के छापे में पंकज और पीयूष त्रिवेदी के ठिकानों से कई फाइलें मिली हैं जिनमें व्यापमं फर्जीवाड़े की कहानियां छिपी हैं। प्रारंभिक जांच में यह तथ्य सामने आया है कि मेडिकल घोटाले के लिए गड़बडिय़ों दो स्तरों पर हुईं। एक तो व्यापमं के स्तर पर और दूसरी पीएमटी के परीक्षा नियम बनाने के लिए जिम्मेदार मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग के स्तर परे नियम यह था कि निजी मेडिकल कॉलेजों में 50 प्रतिशत सीटें राज्य सरकार के कोटे से भरी जाएंगी, लेकिन निजी कॉलेजों को सारी सीटें चाहिए थी, इसके लिए उन्होंने डॉ. जगदीश सागर, संजीव शिल्पकार, सुधफर रॉय और आईएएस अधिकारी के रिश्तेदार तरंग शर्मा जैसे दलालों का हाथ थामा और दलाल अपने मनचाहे छात्रों को पास करवाने के लिए यूपी, बिहार, राजस्थान से जिन 'स्कोररÓ को लेकर आते थे, उनका उपयोग करना शुरू किया। ये 'स्कोररÓ जिन मुन्ना भाइयों को नकल करवाते थे वे तो सरकारी कॉलेजों में प्रवेश ले लेते थे और स्कोरर अच्छे नंबर आने के बावजूद सिर्फ और सिर्फ निजी कॉलेजों में सीटें ब्लाक कर लेते थे तथा प्रवेश की अंतिम तारीख को अपना नाम वापस ले लेते थे। खाली हुई सीटों पर निजी मेडिकल कॉलेज संचालक तगड़ा डोनेशन लेकर मनचाहे छात्रों को प्रवेश दे देते थे पर यहां समस्या यह खड़ी हुई कि कई स्कोरर ऐसे थे जिनकी उम्र 25 वर्ष से ज्यादा थी। देशभर की सारी परीक्षाओं में मेडिकल के लिए अधिकतम प्रवेश सीमा 25 वर्ष है। यहां पर काम आए चिकित्सा शिक्षा विभाग के जिम्मेदार नेता, अधिकारी जिन्होंने पीएमटी के जरिए प्रवेश के लिए न्यूनतम उम्र सीमा 17 वर्ष तो रखी लेकिन अधिकतम उम्र सीमा 25 वर्ष करने का नियम नहीं बनने दिया। नतीजा यह हुआ कि निजी मेडिकल कॉलेज सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत सीटों की सीमा के बजाए वास्तविक रूप से 80 प्रतिशत सीटों तक पर कब्जा करने लगे। 54 परीक्षाएं संदेह के घेरे में व्यावसायिक परीक्षा मंडल के पूर्व परीक्षा नियंत्रक डॉ. पंकज त्रिवेदी के कार्यकाल में हुई करीब 79 चयन व भर्ती परीक्षाओं में से 54 संदेह के घेरे में आ गई हैं। इनमें ज्यादातर अलग-अलग विभागों के लिए हुई भर्ती परीक्षाएं शामिल हैं। पीएमटी के साथ ही पांच अन्य परीक्षाओं में गड़बड़ी का खुलासा करने के बाद स्पेशल टास्क फोर्स बाकी परीक्षाओं की भी जांच शुरू करने जा रही है। जानकारी के अनुसार प्री-पीजी, फूड इंस्पेक्टर, दुग्ध संघ, सूबेदार-उप निरीक्षक, प्लाटून कमांडर व पुलिस आरक्षक भर्ती परीक्षा के अभी तक मिले 143 आरोपियों के अलावा एसटीएफ ने इन्हीं परीक्षाओं में शामिल बाकी परीक्षार्थियों की भी ओएमआर शीट जब्त करने की तैयारी कर ली है। जांच में एसटीएफ को गलत तरीके से परीक्षा पास करने वाले और भी परीक्षार्थियों के सामने आने की उम्मीद है। इन पांच परीक्षाओं में शामिल कुल परीक्षार्थियों की संख्या 4 लाख 91 हजार 323 है। अभी तक दस परीक्षाएं संदेह के घेरे में आ चुकी हैं। जिनमें से सात का खुलासा एसटीएफ ने कर दिया है। बाकी तीन परीक्षाओं के रिकॉर्ड व्यापमं से मांगे गए हैं। एआईजी एसटीएफ आशीष खरे के अनुसार रिमांड पर चल रहे आरोपियों से पूछताछ में अभी और भी परीक्षाओं में गड़बड़ी की बात सामने आ सकती है। त्रिवेदी के कार्यकाल में हुईं महत्वपूर्ण भर्ती परीक्षाएं वनरक्षक भर्ती परीक्षा, एमपी स्टेट टूरिज्म डायरेक्ट बैकलाग, पुलिस कांस्टेबल, जेल डिपार्टमेंट भर्ती परीक्षा, सब इंजीनियर (सिविल) भर्ती परीक्षा, स्टॉफ नर्स भर्ती परीक्षा, पैरामेडिकल स्टॉफ के लिए आयुष डिपार्टमेंट भर्ती परीक्षा, कंबाइंड असिस्टेंट ग्रेड तीन, एग्रीकल्चर डेवलपमेंट ऑफिसर, खेल विभाग असिस्टेंट ग्रेड तीन भर्ती परीक्षा, फॉरेस्ट गार्ड भर्ती परीक्षा, कंबाइंड सब इंजीनियर भर्ती परीक्षा, आबकारी आरक्षक भर्ती परीक्षा। ट्रांसपोर्ट भर्ती परीक्षा, मत्स्य विभाग के लिए भर्ती परीक्षा, पब्लिक वर्क डिपार्टमेंट के लिए भर्ती परीक्षा तथा पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के लिए भर्ती परीक्षा। व्यापमं द्वारा आयोजित पीएमटी परीक्षा में सनसनीखेज फर्जीवाड़े के खुलासे के बाद आयकर विभाग ने उन अभिभावकों पर शिकंजा कसना शुरु कर दिया है, जिन्होंने अपने बेटे-बेटियों के दाखिले के लिए 75 से 80 लाख रुपए बतौर घूस खर्च किए थे। साथ ही व्यापमं के अधिकारियों की संपत्ति की भी पड़ताल की जा रही है। पीयूष त्रिवेदी की शैक्षणिक योग्यता से लेकर कार्यप्रणाली तक पर सवाल राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर लंबे समय से पंकज त्रिवेदी के भाई पीयूष त्रिवेदी विराजमान हैं। इनकी शैक्षणिक योग्यता से लेकर कार्यप्रणाली तक पर सवाल उठे पर जब सत्ता और सत्ता के दलालों का वरदहस्त हो तो फिर क्या। बात 1978 की है जब लेफ्टिनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) केटी सतारावला को जबलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्ति किया गया था तब उन्होंने कहा था कि मध्यप्रदेश के किसी विश्वविद्यालय में कुलपति बनने से बेहतर है किसी होटल का मैनेजर बनना। सतारावला ने यह बात किस नजरिए से कही थी यह तो वही जाने लेकिन मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्थित राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति पीयूष त्रिवेदी एवं वहां के अन्य प्रशासनिक पदों पर आसिन लोगों की योग्यता कुछ यही दर्शा रही है। विश्वविद्यालय के कुलपति, कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्रा कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक और उपकुलसचिव प्रशासन एवं अन्य पदाधिकारी अपात्र होते हुए भी इन पदों पर आसीन है। ऐसे में यहां सरकारी कायदे- कानून को ताक पर रखकर शैक्षणिक गतिविधियों की जगह मनमानी की पाठशाला चलाई जा रही है। कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी राजभवन और राज्य सरकार से बिना अनुमति लिए ही पदों का सृजन कर उन पर अपने चहेतों को बिठा रहे हैं। ऐसा भी नहीं की विश्वविद्यालय में व्याप्त इस भर्राशाही की खबर राजभवन और तकनीकी शिक्षा विभाग को नहीं है लेकिन शासन मौन तो देखे कौन की तर्ज पर यहां सब कुछ चल रहा है। उल्लेखनीय है कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल में सूचना एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में सशक्त भारत का सपना देखा था। पूर्व प्रधानमंत्री ने जो सपना देखा था उसे साकार करते हुए प्रदेश में तकनीकी शिक्षा युक्त मानव संसाधन की बदलती आवश्यकताओं को देखते हुए राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की स्थापना मध्यप्रदेश विधानसभा एक्ट 13 के तहत 1998 में भोपाल में की गई। विश्वविद्यालय की स्थापना के पीछे मुख्य उद्देश्य था कि शिक्षा एवं शिक्षा संसाधन की गुणवत्ता में वृद्धि हो, कंसलटेंसी, सतत शिक्षा, शोध एवं विकास गतिविधियों के अनुकूल वातावरण तैयार किया जाए,इंडस्ट्री के साथ परस्पर लाभ हेतु मजबूत संबंध बने, छात्रों में स्वरोजगार की भावना का विकास किया जाए और भूतपूर्व छात्रों में सतत् संपर्क एवं उनके प्रायोजित विकास प्रोग्राम बनाया जाए लेकिन विश्वविद्यालय में छात्रों का भविष्य तय करने वाले ही जब अपात्र हैं तो राजीव गांधी का सपना कैसे सकार होगा यह शोध का विषय है। बात करते हैं विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी की। विश्वविद्यालय अधिनियम के अनुसार कुलपति की नियुक्ति कुलाधिपति (गवर्नर) द्वारा राज्य सरकार के बिना हस्तक्षेप के की जाती है। धारा 12 (1) विश्वविद्यालय की उपधारा (2) या (6) के अंतर्गत गठित समिति द्वारा तैयार तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में विख्यात कम से कम तीन व्यक्तियों के पैनल में से किसी एक व्यक्ति की नियुक्ति कुलपति के रूप में कुुलाधिपति द्वारा की जाती है लेकिन तात्कालिक गवर्नर बलराम जाखड़ से अपने नजदीकी संबंधों और गवर्नर हाउस के कुछ अधिकारियों की मेहरबानी से प्रोफेसर त्रिवेदी कुलपति बनने में सफल रहे। अधिनियम के अनुसार विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए प्रौद्योगिकी या तकनीकी क्षेत्र का प्रोफेसर होना चाहिए जबकि प्रो. त्रिवेदी फार्मेसी के प्राध्यापक है। अत: नियमों के तहत देखा जाए तो इनकी नियुक्ति पूर्णत: गलत है। नियुक्तियों में फर्जीवाड़ा राजीव गांधी प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ढांचे को देखा जाए तो हम पात हैं कि यह विश्वविद्यालय प्रभारी अधिकारियों के हवाले है। आरजीपीव्ही में कुल सचिव- रजिस्ट्रार, अधिष्ठाता छात्र कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक, उप कुलसचिव प्रशासनिक सभी अधिकारी प्रभारी हैं। कोई लगभग चार वर्ष से तो कोई दस वर्षों से इन पदों पर प्रभारी के रूप में नियुक्त है। आरजीपीव्ही एक तकनीकी विश्वविद्यालय है किंतु कुलपति सहित इसके शीर्ष पदों कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्र कल्याण आदि पदों पर गैर तकनीकी अधिकारी पदस्थ हैं। जबकि विश्वविद्यालय अधिनियम में भी तकनीकी योग्यता प्राप्त अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान है। कुलपति पीयूष त्रिवेदी की पत्नी श्रीमती वंदना त्रिवेदी टीच फार इंडिया सोसाइटी की सदस्य सचिव हैं। जिसके 5 विभिन्न कॉलेज आरजीपीव्ही के अंतर्गत हैं। लोकायुक्त के छापे के बाद अब पीयूष त्रिवेदी को हटाने की मांग होने लगी है। इधर, पीयूष त्रिवेदी के निवास पर छापा पडऩे की सूचना से राजभवन भी सक्रिय रहा। राजभवन के अधिकरी विभिन्न माध्यम से आ रही सूचनाओं को एकत्रित करते रहे। राज्यपाल राम नरेश यादव को भी समय-समय पर अपडेट देते रहे। लोकायुक्त बिल में बदलाव करें शिवराज: नावलेकर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भ्रष्टाचार पर जफरो टालेरेंस की बात करते आए हैं। लेकिन राज्य के लोकायुक्त पी पी नावलेकर का कहना है कि लोकायुक्तों के पास भ्रष्टाचार पर लगाम कसने के भरपूर अधिकार नहीं हैं। जिससे मध्य प्रदेश में भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से लगाम नहीं लग सकती है। उन्होंने कहा कि शिवराज को केंद्र सरकार के लोकपाल बिल की तरह राज्य के लोकायुक्त कानून में बदलाव लाने चाहिए। लोकायुक्त पी पी नावलेकर ने कहा कि मध्य प्रदेश का एक्ट स्टेट के हिसाब से काफी पावरफूल है क्योंकि हमने उस एक्ट से चार साल काम करके दिखाया है। लेकिन जो कांग्रेस सरकार का लोकपाल बिल आया है, उसका अध्ययन करने के बाद हमने पाया कि लोकायुक्त को कुछ पावर दी जा सकती हैं। अगर लोकायुक्त को वो पावर दी जाती हैं तो भ्रष्टाचार निवारण में लोकायुक्त ज्यादा कारगर होगा। पीपी नावलेकर ने कहा कि एमपी के लोकायुक्त एक्ट में अभी एमएलए, राज्यसभा सदस्य शामिल नहीं है। जबकि लोकपाल में एमएलए, राज्यसभा सदस्य को शामिल किया गया हैं। जिससे लोकपाल भ्रष्टाचार संबंधी कोई शिकायत मिलने पर उनकी जांच कर सकेगा। वैसे ही एमपी के लोकायुकत एक्ट में एमएलए को शामिल होना चाहिए क्योंकि सरकार विधायकों को लोगों के हित में कार्य करने के लिए फंड देती है।

9 साल में बेरोजगारों से 1000 करोड़ की ठगी

व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच की मांग हुई तेज
भोपाल। परीक्षा और नौकरी के नाम पर व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं )और उसमें सक्रिय दलालों ने पिछले 9 साल में सवा करोड़ बेरोजगारों को करीब 1000 करोड़ का चूना लगाया है। हालांकि अब धफरे-धफरे इस फर्जीवाड़े की परते खुलने लगी हैं,लेकिन जो ठगे गए हैं उन्हें न्याय मिलना दूर की कड़ी है। यही नहीं व्यापमं ने पिछले सालों में डेढ़ सौ से अधिक परीक्षाएं ली अरबों रूपए परीक्षा शुल्क के नाम पर बेरोजगारों से वसूले और उनके साथ धोखा भी किया। इस घोटाले को बिहार के चारा घोटाले से बड़ा बताते हुए पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती और दिग्विजय सिंह ने सीबीआई जांच की मांग की है। वहीं 14वीं विधानसभा सत्र के दौरान युवक कांग्रेस ने रैली निकाल मामले की सीबीआई जांच की मांग की है। उधर,विधानसभा में भी मामला गर्माया रहा। उल्लेखनीय है कि पीएमटी फर्जीवाड़े की तहकीकात में लगी एसटीएफ को व्यापमं में हुए अन्य घोटालों की जानकारी हाथ लग रही है। जिसमें एक ऐसे नेटवर्क का पता चला है जिसने व्यापमं के माध्यम से होने वाली प्रवेश,प्रतियोगी और भर्ती परीक्षाओं को अपने कब्जे में ले लिया था। दलालों में मनमाफिक रकम लेकर नौकरियां बांटी,प्रवेश दिलवाया और शासन-प्रशासन को लॉलीपप चटाया। अब जब परते खुलने लगी हैं तो कांग्रेस ने व्यापमं द्वारा कराई गई सभी परीक्षाओं की सीबीआई जांच कराने की मांग की है।
घोटालों की लंबी लिस्ट
प्रारंभिक पड़ताल में व्यापमं में हुए 17 घोटालों का पता चला है। इस बात का जिक्र कांग्रेस ने करते हुए महाघोटाले पर ब्लैक पेपर भी जारी किया था। पिछले 9 साल में व्यापमं द्वारा जो भी प्रवेश या भर्ती परीक्षाएं आयोजित की गई हैं उनमें पीएमटी घोटाले में दलालों और भाजपा नेताओं पर तीन अरब कमाने का आरोप लगाया गया है। डीमेट घोटाला, बीडीएस घोटाला, डीएड घोटाला, मेडिकल कालेज में पीजी में प्रवेश दिलाने का घोटाला, पांच लाख लेकर इंजीनियर बनाने का घोटाला, माध्यमिक शिक्षा मण्डल में घोटाला, राज्य ओपन परीक्षा घोटाला, डिग्री घोटाला, संविदा शिक्षकों की भर्ती में युवाओं से 175 करोड़ रूपए का धोखा, व्यापमं में कम्प्यूटर खरीदी में डेढ़ करोड़ का घोटाला, पुलिस भर्ती में घोटाला, टाइपिंग परीक्षा घोटाला, युवाओं के साथ धोखा, शिक्षा में घोटाले ही घोटाले, वन रक्षक पदों पर भर्ती घोटाला, पटवारी परीक्षा घोटाला शामिल हैं। शिक्षा में फर्जीवाड़े का आभास विंध्य से व्यावसायिक परीक्षा मंडल में हुए तमाम फर्जीवाड़े को उजागर करने वाली स्पेशल टॉस्क फोर्स (एसटीएफ) के मुखिया को शिक्षा में फर्जीवाड़े का आभास विंध्य से हुआ। एसटीएफ एडीजी सुधफर कुमार शाही 1988 बैच के आईपीएस हैं। वह दिल्ली विवि से बीए एलएलबी हैं। आईपीएस ट्रेनिंग के बाद वर्ष 1990 में उनकी पहली प्रोविजनल पदस्थापना सतना जिले के अमरपाटन थाना में हुई। यहीं उन्होंने शिक्षा में फर्जीवाड़ा का खुला खेल देखा। मन में शिक्षा शुद्धीकरण का संकल्प लिया। 22 वर्षो के लंबे कैरियर में उन्हें शिक्षा शुद्धीकरण का पूरा मौका नहीं मिल सका। वर्ष 2011 में पुलिस मुख्यालय ने उन्हें एसटीएफ के एडीजी का प्रभार सौंपा। कुछ दिनों बाद उनको व्यापमं में हो रहे फर्जीवाड़े की भनक लगी और उन्होंने व्यापमं में हो रहे फर्जीवाड़े पर नजर रखना शुरू किया। इसके कुछ ही दिनों बाद एसटीएफ चीफ ने व्यापमं में सिलेसिलेवार एक से बड़े एक घोटालों का पर्दाफाश कर सैकड़ों को हवालात पहुंचा दिया। सत्ता और शिक्षा जगत की तमाम हस्तियों की रातों की नींद और दिन का चैन छीन लेने वाले शाही ही हैं जिन्होंने व्यापमं में पीएमटी, प्रीपीजी, खाद्य निरीक्षक एवं नापतौल परीक्षा, दुग्ध संघ भर्ती परीक्षा, उप निरीक्षक भर्ती, पुलिस आरक्षक भर्ती, बीडीएस, टायपिंग बोर्ड, ओपन स्कूल फर्जीवाड़ा पर पर्दा उठा सैकड़ों रसूखदारों को हवालात पहुंचाया।
अब नौकरी पर संकट
व्यापमं के माध्यम से फर्जीवाड़ा करके डॉक्टर बनने वालों का जेल जाने का सिलसिला तो शुरू हो ही गया है,अब अन्य विभागों में नौकरी करने वाले सैकड़ों लोगों की नौकरी पर भी खतरा मंडराने लगा है। व्यापमं फर्जीवाड़े में पुलिस की सब इंस्पेक्टर और कांस्टेबल भर्ती परीक्षा देने वाले अभ्यर्थियों में से भी कई लोगों की नौकरी पर खतरा मंडरा रहा है। हालांकि अभी तक पुलिस को ऐसे लोगों की सूची व्यापमं से मिलने का इंतजार है। वहीं शिक्षा विभाग की संविदा शिक्षकों और वन विभाग की वनरक्षकों की भर्ती परीक्षा को लेकर अभी एसटीएफ को साक्ष्य नहीं मिले हैं जिससे इन भर्तियों पर फिलहाल कोई संकट नहीं दिखाई दे रहा है।
2012 की भर्ती में हुआ खेल
एसटीएफ को सब इंस्पेक्टर और कांस्टेबल की वर्ष 2012 में हुई भर्ती में फर्जीवाड़ा मिला है। उपनिरीक्षक भर्ती घोटाले में एसटीएफ ने आईपीएस अधिकारी आरके शिवहरे सहित 25 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है। आरोप है कि व्यापमं के अफसरों ने शिवहरे सहित अन्य आरोपियों से सांठगांठ कर अधिकतर परीक्षार्थियों का चयन गलत तरीके से कर दिया। एसटीएफ ने इसके लिए हुए लाखों रुपए के लेन-देन का हिसाब भी जब्त किया है। एसटीएफ ने आरोपियों पर धारा 420, 467, 468, 471 और आईटी एक्ट की धाराओं में मामला दर्ज किया है। शिवहरे पर आरोप है कि उन्होंने गौरव श्रीवास्तव, सेम श्रीवास्तव, प्रलेख तिवारी के चयन में 15 लाख प्रति परीक्षार्थी के हिसाब से 45 लाख रुपए व्यापमं के सीनियर सिस्टम एनालिस्ट नितिन महिंद्रा को दिए। जिसके चलते अब पुलिस भी सख्त तेवर अपनाने लगी है। डीजीपी नंदन दुबे ने बताया है कि सब इंस्पेक्टर की भर्ती तो बहुत पहले से ही व्यापमं के माध्यम से हो रही थी, लेकिन कांस्टेबल की भर्ती पहली बार व्यापमं से कराई गई है। एसटीएफ द्वारा इन परीक्षाओं में पाई गई गड़बडिय़ों से जिन लोगों की भर्ती रुपए देकर हुई है, उन्हें तत्काल बर्खास्त किया जाएगा। साथ ही उनकी गिरफ्तारी भी की जाएगी। इसी के मद्देनजर सब इंस्पेक्टर और कांस्टेबल परीक्षा-2012 की जांच एसटीएफ ने तेज कर दी है। वहीं व्यापम ने भी ऐसी लोगों को चिह्न्ति करने में जुटा है जो पैसे देकर पुलिस विभाग में भर्ती हो गए। सूत्रों की मानें तो प्रारंभिक जांच में करीब 15 से अधिक पुलिसकर्मी ट्रेस हुए हैं, इसमें आठ सब इंस्पेक्टर शामिल हैं। सभी फर्जी पुलिसकर्मी नौकरी में तैनात है। अब व्यापमं इनको चिह्न्ति करने के बाद पुलिस को इनकी सूची सौंपगी। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सबसे पहले तो इनको बर्खास्त किया जाएगा। वहीं एसटीएफ आरोपियों की गिरफ्तारी सुनिश्चित करेगी। वहीं इस फर्जीवाडे में शामिल अधिकारियों पर एसटीएफ ने पहले ही शिकंजा कस दिया है। मामले में लिप्त अधिकारियों की गिरफ्तारी के प्रयास भी तेज हो गए हैं।
125 करोड़ वसूला फीस
तमाम फजीवाड़ों के साथ 9 सालों में व्यापम ने बेरोजगारों से 125 करोड़ रूपए फीस के रूप में वसूला है। जबकि गिनती के बेरोजगारों को ही नौकरी मिली है। व्यापमं ने अकेले एक साल (वर्ष 2011 से फरवरी 2012 तक) में ही परीक्षा शुल्क के माध्यम से 83 करोड़ रुपए की राशि अर्जित की है। व्यापमं को इससे पहले 2009 में 24 करोड़ 86 लाख रुपए और 2010 में 24 करोड़ 68 लाख रुपए शुल्क के रूप में प्राप्त हुए थे। शासन द्वारा शासकीय नौकरियों के लिए बेरोजगारों से विभागों और व्यापम के माध्यम से भारी शुल्क वसूला जा रहा है। अनेक विज्ञापनों में भृत्य जैसे चतुर्थ श्रेणी पद के लिए सामान्य श्रेणी के बेरोजगार आवेदकों से 600 रुपए और अनुसूचित जाति जनजाति के बेरोगारों से 300 रुपए वसूल किए जाते हैं।
बाजार में नौकरी की रेट लिस्ट
कांग्रेस नेता अजय सिंह का आरोप है कि व्यापमं के माध्यम से मिलने वाली नौकरियों के लिए दलालों ने बकायदा रेट लिस्ट भी तैयार कर रखी थी। जिसकी बाजारों में भी चर्चा थी। जिसमें चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के लिए 50 हजार रुपए, तृतीय श्रेणी के लिए सवा लाख रुपए, द्वितीय श्रेणी के लिए 4 से 10 लाख रुपए, वेटनरी के लिए 3 लाख रुपए तथा पीएमटी के लिए 10 से 15 लाख रुपए तक लिए जाने की चर्चा है।
ईडी ने मांगी जानकार
व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) में हुए व्यापक फर्जीवाड़े मामले में जहां एक ओर एसटीएफ जांच में जुटी है, वहीं दूसरी ओर आयकर विभाग ने संबंधित लोगों के खातों की जांच शुरू की है। इसी बीच आपराधिक प्रकरण दर्ज होने के बाद अब प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) भी जांच शुरू करने जा रहा है। सूत्रों के अनुसार, इसके लिए ईडी ने फर्जीवाड़े की जांच कर रही स्पेशल टास्क फोर्स को पत्र लिख आरोपियों की जानकारी मांगी है। सूत्रों ने बताया कि ईडी न आरोपियों के घर में मिली करोड़ों की रकम की जानकारी मांगी है। वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि यदि ईडी न फर्जीवाड़े की जांच की तो आरोपियों की और अधिक मुश्कलें बढ़ जाएंगी।
परीक्षा शुल्क में 107 करोड़ का घोटाला
व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) में परीक्षा घोटाला के बाद परीक्षा शुल्क घोटाला भी सामने आया है। मामले की जांच कर रही एसटीएफ को परीक्षा शुल्क में भी फर्जीवाड़े के साक्ष्य हाथ लगे हैं, जिसमें व्यापमं के अफसरों ने करीब 107 करोड़ रुपए की राशि में हेराफेरी की है। यह राशि व्यापमं ने वर्ष 2010-11-12 में विभिन्न परीक्षाओं में अभ्यर्थियों से प्रवेश शुल्क के रूप में वसूली थी। इस मामले में एसटीएफ परीक्षा नियंत्रक पंकज त्रिवेदी से पूछताछ कर रही है। साथ ही इसके तह तक जाने का प्रयास कर रही है कि आखिरकार उक्त राशि खर्च करने का अधिकार किसके पास था। इधर, का अधिकार डायरेक्टर के कार्यक्षेत्र में आता है। ऐसे में यदि मामला आगे बढ़ा तो तत्कालीन डायरेक्टर भी घेरे में आएंगे। जानकारी के अनुसार, व्यापमं ने वर्ष 2010 में 8 करोड़ 59 लाख 56 हजार 900 रुपए परीक्षा शुल्क के रूप में वसूल किया था, जबकि वर्ष 2011 में 9 करोड़ 72 लाख 28 हजार 500 रुपए शुल्क मिली। यही नहीं वर्ष 2012 में व्यापमं ने करीब 89 करोड़ 18 लाख 68 हजार 500 रुपए शुल्क वसूला। इस तरह तीन साल में व्यापमं ने 107 करोड़ 50 लाख 53 हजार 900 रुपए वसूले।
किनसे-कितना वसूला
संविदा शिक्षा की नौकरी के लिए आवेदन करने वालों से वर्ग-3 से 33 करोड़ 58 लाख 56 हजार 150 रुपए। वर्ग-2 से 13 करोड़ 64 लाख 39 हजार 400 रुपए, सहायक ग्रेड-3 के बेरोजगारों से 1 करोड़ 4 लाख 13 हजार 500 रुपए, वनरक्षक भर्ती परीक्षा में 11 करोड़ 58 लाख 27 हजार 750 रुपए, आईटीआई भर्ती परीक्षा के आवेदकों से 90 लाख 70 हजार 250 रुपए, सब इंजीनियर भर्ती परीक्षा से 39 लाख 88 हजार 750 रुपए, आबकारी आरक्षक भर्ती लाख 90 हजार 750 रुपए, महिला एवं बाल विकास की भर्ती परीक्षा से 8 लाख 5 हजार 500, संयुक्त स्टेनो भर्ती परीक्षा से 10 लाख 85 हजार, जेल प्रहरी भर्ती परीक्षा से 2 करोड़ 22 लाख 69 हजार 500 रुपए, सहायक मतस्य अधिकारी भर्ती परीक्षा से 3 करोड़ 6 लाख 4 हजार 250 रुपए, आरटीओ कांस्टेबल भर्ती से 2 करोड़ 69 लाख 59 परीक्षा से 4 करोड़ 49 लाख 74 हजार 650 रुपए, दुग्ध संघ भर्ती परीक्षा से 2 करोड़ 95 लाख 2 हजार 250 करोड़ रुपए, पुलिस कांस्टेबल भर्ती परीक्षा से 13 करोड़ 65 लाख 74 हजार 800 रुपए और नापतौल विभाग की भर्ती परीक्षा में शामिल होने वालों से 5 करोड़ 75 लाख 5 हजार 250 रुपए परीक्षा शुल्क वसूल किया है।
रोल नंबरों के आवंटन में बड़ी हेराफेरी
प्रदेश में मेडिकल कॉलेजों में छात्रों का दाखिला सुनिश्चित करने के लिए पीएमटी के रोल नंबरों के आवंटन में बड़ी हेराफेरी की गई। खास छात्र-छात्राओं को पीएमटी पास कराने के लिए चिह्नित परीक्षा केंद्रों में क्रम विरूद्ध तरीके से रोल नंबर जारी किए गए। ये गड़बड़ी कम्प्यूटर विशेषज्ञों के एक दल द्वारा व्यावसायिक परीक्षा मंडल की वर्ष 2013 की पीएमटी के दस्तावेजों की छानबीन में पकड़ी गई है। खास बात ये है कि पीएमटी के फर्जीवाड़े की शिकायत इंदौर थाने में होने के बाद पुलिस ने शासकीय विभागों के छह कम्प्यूटर विशेषज्ञों का दल गठित कर जांच की जिम्मेदारी दी थी। पुलिस द्वारा कंप्यूटर विशेषज्ञों से कराई गई जांच में रोल नंबर आवंटन का फॉर्मूले को पकडऩे का प्रयास किया गया, लेकिन जांच में 75 फीसदी परीक्षार्थियों के रोल नंबरों के आवंटन में किसी निर्घारित फॉर्मूले का मिलान नहीं मिला। इससे परीक्षा केंद्र निर्घारित किए गए प्रदेश के प्रमुख शहरों में बड़ी संख्या में शामिल हुए परीक्षार्थियों का रिजल्ट संदिग्ध है। पीएमटी में ग्वालियर और इंदौर फर्जीवाड़े का गढ़ बनकर उभरे हैं।
बड़े शहरों में फर्जीवाड़ा की जड़
कम्प्यूटर विशेषज्ञों की जांच में पीएमटी परीक्षा के केंद्र बनाए गए बड़े शहरों में रोल नंबरों में अपेक्षाकृत अधिक गड़बड़ मिली है। इस वर्ष की पीएमटी के लिए प्रदेश में 14 शहरों में परीक्षा केंद्र थे। इसमें लगभग 40086 उम्मीदवार शामिल हुए थे। जिसमें तकरीबन 30195 छात्रों के रोल नंबर का मिलान किसी निर्घारित फॉर्मूले के तहत नहीं है। जांच में छोटे 5 शहरों में रोल नंबर आवंटन में कोई गड़बड़ी सामने नहीं आई। वहीं, 6 बड़े शहरों में पीएमटी में शामिल 80 फीसदी से अधिक विद्यार्थियों के रोल नंबर के आवंटन का मिलान नहीं हो पाया।
अपनों को उपकृत करने की गई गड़बड़
कम्प्यूटर विशेषज्ञों ने पीएमटी के रोल नंबरों के आवंटन का आधार पकडऩे के लिए माथापच्ची की। कुछ केंद्रों के रोल नंबरों का मिलान और परीक्षण किया। इसमें रोल नंबर के क्रम अक्षरों पर आधारित नहीं मिले। नजफर के तौर पर वी अक्षर की सफरीज के छात्रों के रोल नंबर के बीच में जी अक्षर का उम्मीदवार मिला। इससे प्रथम दृष्टतया रेंडम रोल नंबर जारी करने की बात सामने आई। लेकिन उपलब्ध दस्तोवजों की जांच और समस्त परीक्षा केंद्रों के उम्मीदवारों के रोल नंबर का मिलान करने पर इंडेक्सिंग के जरिए रोल नंबर आवंटित मिले। इससे रोल नंबर आवंटन में हेराफेरी करके चहेते उम्मीदवार को पीएमटी पास कराने का संदेह है। पुलिस को आशंका है कि रोल नंबरों के जरिए ही गड़बड़ी की गई।
फर्जीवाड़ा में कई रसुखदार भी शामिल
व्यापमं द्वारा आयोजित परीक्षाओं के फर्जीवाड़े में खनिज माफिया सुधफर शर्मा भी शामिल है। पीएमटी में हुए फर्जीवाड़े के खुलासे ने शिक्षा माफिया और सरकारी तंत्र की जुगलबंदी को सामने ला दिया है। इंदौर के मास्टरमाइंड जगदीश सागर के पकड़े जाने के बाद कडिय़ां एक-दूसरे से जुड़ती गई परिणामस्वरूप कई नाम सामने आए और गिरफ्तारियां हुईं। अब तक पीएमटी परीक्षा आयेाजित करने वाले व्यावसायिक परीक्षा मंडल के तत्कालीन परीक्षा नियंत्रक पंकज त्रिवेदी के अलावा प्रिंसिपल सिस्टम एनालिस्ट नितिन महेंद्रा व सीनियर सिस्टम एनालिस्ट अजय सेन और एक अन्य अधिकारी पहले ही गिरफ्तार हो चुके हैं। इसके अलावा भी कई अन्य मध्यस्थ इस समय जेल में हैं। वहीं एसटीएफ के हाथ इस बात के पुख्ता प्रमाण लगे हैं कि मुन्ना भाईयों की भर्ती आपसी मिली भगत से ही संभव हुई है। एसटीएफ ने अपनी जांच में व्यापमं के अधिकारियों के अलावा कई मुन्ना भाइयों को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। एसटीएफ ने 345 छात्रों के चयन को भी निरस्त करने की सिफारिश की थी। जांच आगे बढ़ी तो भाजपा शिक्षा प्रकोष्ठ के प्रदेश संयोजक सुधफर शर्मा भी इसमें फंस गए हैं। फर्जीवाड़ा में नाम सामने आने के बाद व्यवसायी एवं भाजपा नेता सुधीर शर्मा भूमिगत हो गए हैं। नोटिस जारी होने के बाद एसटीएफ अफसरों को बयान देने नहीं आने के बाद अब उनकी तलाश शुरू हो गई है। इसके अलावा एसटीएफ ने व्यापमं द्वारा आयोजित कराई गई वर्ष-2012 की प्री-पीजी परीक्षा में 17 व्यक्तियों के विरुद्ध, फूड इस्ंपेक्टर परीक्षा-2012 में 29 व्यक्तियों के विरुद्ध, दुग्ध संघ भर्ती परीक्षा-2012 में 19 व्यक्तियों के विरुद्ध, सूबेदार-उप निरीक्षक-प्लाटून कमांडर भर्ती परीक्षा-2012 में 25 व्यक्तियों के विरुद्ध तथा पुलिस आरक्षक भर्ती परीक्षा-2012 में हुये फजीवाड़ा के संबंध में 53 व्यक्तियों के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की है। प्रीपीजी परीक्षा 2012 में व्यापमं के तत्कालीन नियंत्रक डॉ. पंकज त्रिवेदी एवं सीनियर सिस्टम एनालिस्ट नितिन मोहिन्द्रा ने योजना तैयार करके परीक्षा में आने वाले प्रश्नों की माडल आंसर की परीक्षा की पूर्व रात्रि को निकालकर उसकी फोटोकॉपी कर छात्रों को उपलब्ध कराई। ये छात्र परीक्षा की पूर्व रात्रि को भोपाल आकर पूर्व निर्धारित स्थानों पर रुके जहां इन्होंने परीक्षा की तैयारी नितिन मोहिन्द्रा द्वारा उपलब्ध कराई गई माडल आन्सर-की के आधार पर की। इन छात्रों ने दूसरे दिन प्रीपीजी परीक्षा का प्रश्नपत्र हल कर प्रीपीजी परीक्षा में सफलता प्राप्त की। उक्त छात्र वर्तमान में प्रदेश के विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में पीजी कर रहे हैं। एसटीएफ के अनुसार फूड इंस्पेक्टर परीक्षा-2012, दुग्ध संघ भर्ती परीक्षा-2012, सूबेदार-उप निरीक्षक-प्लाटून कमांडर भर्ती परीक्षा-2012 तथा पुलिस आरक्षक भर्ती परीक्षा-2012 में नितिन मोहिन्द्रा एवं चन्द्रकांत मिश्रा द्वारा डॉ. पंकज त्रिवेदी के कहे अनुसार अभ्यर्थियों की ओएमआर शीट के स्कैंड डाटा में कम्प्यूटर पर सही उत्तर दर्ज करने के बाद सूचना के अधिकार अधिनियम की आड़ में ओएमआर शीट स्ट्रांग रूम से निकलवाकर गोले भरकर पास कराया है। जिसमें से कई अभ्यर्थी सम्बन्धित विभागों में नौकरी कर रहे हैं।

vinod upadhyay

गुरुवार, 6 मार्च 2014

अवैध खदानों से हर साल 20,000 करोड़ का धंधा

एनजीटी के अनुसार प्रदेश की एक भी रेत खदान लीगल नहीं !
भोपाल। मध्य प्रदेश में नर्मदा, चंबल, बेतवा, केन और बेनगंगा आदि बड़ी नदियों के साथ ही अन्य नदियों में जितनी रेत खदानें हैं,वह सभी अवैध हैं। इन खदानों के संचालन में न तो एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल)के नियमों का पालन हो रहा है और न ही प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के मापदंडों का पालन हो रहा है। नियमों को दरकिनार नदियों का कलेजा चीर कर माफिया सालाना 20,000 करोड़ का अवैध धंधा कर रहा है जबकि सरकार को मासिक केवल 70 करोड़ की आय हो रही है। मध्यप्रदेश में रेत खदानें सोना उगलती हैं। इसलिए इस कारोबार में माफिया सबसे अधिक सक्रिय है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि रेत खनन का वैध तरीके से कम अवैध रूप से अधिक चल रहा है। किसी के पास वैधानिक मंजूरी नहीं है। जो खदान चल रहीं हैं उनके पास पर्यावरण मंजूरी नहीं है। प्रशासन अनजान बन रहा है और अवैध उत्खनन खुलेआम जारी है। जबकि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय दिसंबर माह में ही माइनिंग के लिए नई गाइडलाइन जारी कर चुका है। मप्र प्रदूषण बोर्ड का दावा है कि प्रदेश में जितनी भी रेत खदान चल रही है उनमें से अधिकांश के पास पर्यावरण मंजूरी नहीं है। बिना मंजूरी के सभी खदान अवैध हैं। प्रशासन को भी खदान आवंटन से पहले पर्यावरण मंजूरी की जानकारी लेना चाहिए था। रेत के अवैध उत्खनन, अबैध भण्डारण व ओव्हरलोड परिवहन के कारण नदियों की सभी स्वीकृत रेत खदानों का 90 प्रतिशत रेत पूरी तरह समाप्त हो चुका है। खनन माफिया ऐसे स्थानों से रेत का उत्खनन कर रहे है, जहां खदान स्वीकृत नहीं है। इससे नर्मदा, चंबल, बेतवा, केन,बेनगंगा आदि नदियों के हालात खनन के कारण गंभीर हैं।
10 सालों में तेजी से बढ़ा कारोबार
मध्यप्रदेश में खनन कारोबार का पिछले दस सालों में इस कदर विस्तार हुआ है कि राज्य के हर हिस्से में खदानों का खनन हो रहा था जिसके चलते अवैध उत्खनन का ग्राफ बढ़ गया है। माफिया ने अपने पैर फैला लिए है। अवैध उत्खनन की बार-बार बढऩे की शिकायतें के बाद अब केंद्र सरकार ने खदानों की अनुमति लेने की शर्त केंद्र से अनिवार्य कर दी है। इसके चलते खनन कारोबारी घबरा गए हैं। मप्र का खनिज विभाग भी विचलित है।
नई गाइडलाइन में क्या
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पिछले साल 24 दिसंबर को गाइडलाइन जारी की है। जिसकी प्रति प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के पास भी भेजी गई। उसमें बिना पर्यावरण मंजूरी के कोई भी रेत खदान नहीं चलने की बात कही गई है। इसके अलावा 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल की कोई भी रेत खदान का अब संचालन नहीं होगा। यह नियम 2006 से पूर्व आवंटित खदानों पर लागू नहीं होगा। लेकिन करीब दो माह का समय बीतने के बाद भी नियमों का पालन नहीं हो रहा है।
खदान व्यवसायियों पर मेहरबान सरकार
राज्य सरकार खदान व्यवसायियों पर मेहरबान नजर आ रही है। इसी कारण 2011 में भू-राजस्व संहिता 1959 में हुए संशोधन के बाद कृषि भूमि के अन्य उपयोग के लिए डायवर्सन का जो प्रस्ताव तैयार हुआ था, उसे अंतिम रूप देने की बजाय उसकी दरों में भारी कटौती कर दी गई। हाल ही में मुख्य सचिव अंटोनी जेसी डिसा की अध्यक्षता में हुई उच्च स्तरीय सचिव समिति की बैठक में नए कानून में खदान व्यवसायियों के लिए प्रस्तावित की गई दरों में कटौती की गई है। खनन कारोबारी इस कदर राज्य में ताकतवर हो गये हैं कि उनसे खनन विभाग अरबों की वसूली नहीं कर पा रहा है। इसके चलते खनिज विभाग को हर साल करोड़ों की चपत पर चपत लग रही है। दूसरी ओर अवैध उत्खनन का कारोबार थमा नहीं है। इस पर नकेल कसने के लिए केंद्र सरकार ने अब खनन की अनुमति की अनिवार्य शर्त तय कर दी है जिसके तहत केंद्र सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी, तभी खनन से उत्खनन शुरू होगा। इसके चलते खनन कारोबारी विचलित हो गये हैं और उनके दबाव में राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दिया है।
नई शर्त से खनन कारोबार प्रभावित
प्रदेश में फैला खनन का कारोबार केंद्रीय अनुमति की अनिवार्यता की नई शर्त की वजह से ठप होने की कगार पर है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में राज्य सरकार की अपील खारिज हो जाने से प्रदेश में जहां खनन के नए लीज प्रकरणों में केंद्रीय अनुमति अनिवार्य कर दी गई है, वहीं पहले से चल रही खदानों पर भी नियम प्रभावशील माना जाएगा। एनजीटी की इस शर्त से प्रदेश में चल रही खदानों को अब केंद्रीय अनुमति मिलने तक बंद रखना होगा। राज्य सरकार की अपील खारिज करने के साथ ही एनजीटी ने साफ किया है कि जब तक केंद्र की तरफ से गठित स्टेट इनवॉयरमेंट इंपेक्ट असेसमेंट अथॉरिटी नवीन एवं पूर्व स्वीकृत प्रोजेक्ट पर मुहर नहीं लगा देती तब तक किसी भी प्रकार का खनन उत्पादन कानून के विरूद्व माना जाएगा।
नौ हजार खदाने प्रभावित
प्रदेश ने वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए प्रदेश में लगभग 9 हजार खनन प्रोजेक्ट पर लीज स्वीकृत कर रख है। इनमें विभिन्न किस्म के खनिजों की 8 हजार 500 खदानों का संचालन खनिज संसाधन एवं भौमिक विभाग द्वारा किया जा रहा है, जबकि रेत की 425 छोटी-बड़ी रेत खदानों का संचालन एमपी स्टेट मायनिंग कार्पोरेशन की ओर से किया जा रहा है। इन सभी मायनिंग प्रोजेक्ट में राज्य सरकार ने अपने प्रावधानों के अनुरूप लीज अनुमति स्वीकृत कर रखी है। एनजीटी में दायर याचिका में भी सरकार ने यही पक्ष रखा था, ट्रिब्यूनल ने इसे नाकाफी माना। एनजीटी के मुताबिक खनन लीज जारी करने से पूर्व अब हर प्रकरण में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय सहित स्टेट इनवॉयरमेंट इंपेक्ट असेसमेंट अथॉरिटी से अनुमति लेना अनिवार्य रहेगी।
सुप्रीम गई मप्र सरकार
एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) द्वारा सभी प्रकार के खनिज उत्खनन के लिये पर्यावरणीय एनओसी अनिवार्य किए जाने के बाद अब राज्य सरकार एनजीटी के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई है। राज्य सरकार का तर्क है कि एनजीटी के इस आदेश से राज्य सरकार को जहां करोड़ों रुपए के राजस्व की हानि होगी, वहीं अवैध खनन को बढ़ावा भी मिलेगा। सूत्रों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपील में सरकार ने 5 एकड़ तक की गौण खनिज की खदानों को पर्यावरणीय एनओसी से मुक्त रखने का आग्रह किया है। राज्य सरकार का कहना है कि मध्यप्रदेश में गौण खनिज की छोटी-छोटी खदानों की संख्या अधिक है तथा राज्य सरकार को खनिज मद में सबसे ज्यादा राजस्व इंहीं खदानों से प्राप्त होता है। सरकार के अनुसार यदि छोटी खदानों के लिये भी एनओसी अनिवार्य कर दी जाती है तो खदान संचालक खदानें ही बंद कर देंगे तथा फिर यह अवैध रूप से खनन करेंगे, जिससे इनसे प्राप्त होने वाले करोड़ों रुपए के राजस्व से सरकार को वंचित होना पड़ेगा।
28 जिलों में है एकछत्र राज
प्रदेश में करीब 28 जिलों में तो खनन माफियाओं का एकछत्र राज है। इन पर न तो सरकार हाथ डाल पा रही है और न ही जिम्मेदार अधिकारी। खनिज विभाग के अफसर तो इनकी जानकारी देना तो दूर किसी प्रकार मुंह खोलने को भी तैयार नहीं होते। यही वजह है कि कई जिलों में अवैध उत्खनन के मामले में खनन माफियाओं पर लगाए गए अर्थदंड के अरबों रूपए वसूल नहीं हो पा रहे हैं। अकेले मंडला एवं सीहोर जिले में ही 1300 करोड़ रूपए का अर्थदंड खनन माफिया से वसूलने में प्रशासन नाकाम साबित हुआ है। हालत यह है कि प्रदेश के तकरीबन सभी जिलों में 50 से 100 प्रकरण लंबित हैं, जिसमें खनन माफिया पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी है। छतरपुर, रीवा, ग्वालियर में 100 से अधिक प्रकरण लंबित हैं, जबकि जबलपुर, बालाघाट, डिंडोरी, पन्ना, टीकमगढ़, सतना, सीहोर, रायसेन और देवास जिले में करीब 50 से 100 के बीच अवैध उत्खनन के प्रकरण लंबित हैं। वहीं अन्य जिलों में पचास से कम हैं। मजबूरी में वर्ष 2012 में राज्य सरकार को प्रदेश के सभी कलेक्टरों को सख्त पत्र लिखकर जुर्माने की वसूली एवं प्रकरण दर्ज करने के आदेश जारी करने पड़े, लेकिन खनिज संसाधन विभाग के मंत्रालय द्वारा जारी प्रमुख सचिव के पत्र का भी इन अफसरों पर खास असर नहीं हुआ है।
बंद होंगी 1600 रेत खदान
केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) के नए आदेश ने मध्य प्रदेश सरकार को रेत खनन के मोर्चे पर बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है। इसमें पांच हैक्टेयर से छोटी रेत खदानों को पर्यावरण स्वीकृति के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इसके चलते प्रदेश की पांच हैक्टेयर से छोटी करीब 1600 रेत खदानों को बंद करने की तैयारी की जा रही है। केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के इस आदेश में प्रदेश रेत खनन कारोबारियेां में हड़कंप का माहौल है। मध्य प्रदेश में बड़ी-छोटी सभी मिलाकर कुल 17,72 रेत खदानें है। इसमें 1,600 रेत खदानें पांच हैक्टेयर से छोटी है। इसमें से करीब 6,00 खदानें तो मध्य प्रदेश स्टेट माइनिंग कॉरपोरेशन की हैं। कॉरपोरेशन को सबसे बड़ी आमदनी रेत खदानों के माध्यम से होती है। छोटी खदानें बंद होने से उसकी आमदनी पर विपरीत असर भी पड़ेगा।
खदानों पर एक स्थिति :
1700 अवैध उत्खनन के प्रकरण लंबित
1890 करोड़ का अर्थदंड राजस्व न्यायालयों में
200 से अधिक प्रकरण लंबित बैतूल जिले में।
कहां कितना बकाया:
जिले रूपये (करोड़ में)
जबलपुर - 163
कटनी - 06
पन्ना - 06
छतरपुर - 45
सतना - 10
हरदा - 26
बैतूल - 21
उमरिया - 16
खरगौन - 13
देवास - 39
नदियों में डायइनामाइट लगाकर धमाका
प्रदेश में रेत माफिया इतने ताकतवर हो गए है कि वह नर्मदा, चंबल, बेतवा,केल, बेनगंगा आदि नदियों में डायइनामाइट लगाकर धमाका करने लगे हैं। इन धमाकों से नदियों के आस-पास की चट्टाने दरक रही हैं, लेकिन प्रशासन के कानों तक यह आवाज नहीं पहुंच पाती। यही कारण है प्रतिदिन दर्जनों ट्रैक्टर ट्रॉली पत्थर नदियों से निकाला जा रहा है।
पत्थर तोडऩे के लिए पेड़ चढ़ रहे बलि
नदियों में पत्थर निकालने के कारण नदियों के आस-पास ही हरियाली भी गायब हो रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि पत्थर तुड़ाई करने से पहले पत्थर की चट्टानों के आस-पास या नीचे आग चलाकर उन्हे गर्म किया जाता है। ऐसा करने से पत्थर की नमी कम हो जाती है और गर्म होने के कारण आसानी से टूट जाता है। पत्थर को गर्म करने के लिए मजदूर नदी किनारे के पेड़ों को काट रहे हैं। जिन नदियों के किनारे हरियाली व बड़े पेड़ थे वह भी गायब हो गए। सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, लेकिन प्रशासन ने इस ओर कभी सोचा ही नहीं।
घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा
प्रदेश में खनिज और रेत माफियाओं के कारण वनों और नदियों के साथ ही जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। प्रदेश में अब बाघों के बाद घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रदेश का एक और अभ्यारण्य समाप्त होने की कगार पर है। वैसे तो प्रदेश का हर जिला ही अवैध उत्खनन का शिकार है, मगर दो दर्जन जिले तो बेहद संवेदनशील हैं।
मध्य प्रदेश का पन्ना तथा छतरपुर प्रशासन ने जिले में रेत की खुदाई पर रोक लगा दी है लेकिन इससे अवैध उत्खनन रूकने वाला नहीं है क्योंकि यहां की कानून व्यवस्था ही माफिया के हाथों में गिरवी पड़ी है। अब प्रदेश में माफिया का दुस्शाहस इतना बढ़ गया है कि अगर कोई भी इनकी राह में बाधा बनेगा उसे मौत के घाट उतारने में इन्हें देर नहीं लगेगी। माफिया के काएण विंध्य क्षेत्र की सोन नदी के तट पर बने घडिय़ाल अभ्यारण्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी। इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है। प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है।
सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में सोन नदी की विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए मध्य प्रदेश शासन के आदेश से 23 सितम्बर 1981 को स्थापित किया गया था। इस अभ्यारण्य का उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 10 नवम्बर 1981 को किया गया था। अभ्यारण्य का कुल क्षेत्रफल 209.21 किमी का है। इसमें सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल जिले में प्रवाहित होने वाली सोन नदी के साथ गोपद एवं बनास नदी का कुछ क्षेत्र भी शामिल है। सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य नदियों के दोनों ओर 200 मीटर की परिधि समेत 418.42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित घोषित है। उस समय के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में मगरमच्छ और घडिय़ालों की कुल संख्या 13 बताई गई थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी। क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों के अनुसार इस क्षेत्र में घडिय़ालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और उसका प्रमुख कारण सोन नदी के तट पर अनधिकृत रूप से कार्यरत रेत माफिया हैं।
रेत माफिया के अवैध संग्रहण के कारण मगरमच्छ और घडिय़ाल सोन नदी से करीब बसाहट वाले गांव में घुसकर जानवरों और ग्रामीणों को शिकार बना रहे हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार प्रतिवर्ष 40 से 50 लोग घडिय़ालों के हमले का शिकार होकर यहां आते है, जिनमें से कुछ को तो बचा लिया जाता है पर कई लोग अकाल मौत का भी शिकार हो जाते हैं। रेत माफिया सोन नदी से अवैध रूप से उत्खनन करने के लिए नदी को लगातार खोदने का काम करता है, परिणामत: पानी में होने वाली लगातार हलचल के परिणाम स्वरूप घडिय़ालों के लिए निर्मित किए गये इस प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आता है। मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी। इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है। प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है। रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है। सूत्रों की मानें तो भारत शासन द्वारा घडिय़ाल अभ्यारण्य में खर्च की जाने वाली राशि फर्जी बिल बाउचर्स के जरिए वन अधिकारियों एवं स्थानीय अधिकारियों के निजी खजाने में जा रही है। सोन नदी के जोगदाह पुल से कुछ आगे रेत का अवैध उत्खनन व्हील बना हुआ है, जहां से रेत माफिया इस क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं।
सोन घडिय़ाल के प्रभारी संचालक ने बताया कि 200 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र के लिए केवल 13 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध है। मगरमच्छ एवं घडिय़ालों की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख रूपये का बजट आवंटित किया जाता है। अब तक तकरीबन 250 मगरमच्छ एवं घडिय़ालों के बच्चे संरक्षित क्षेत्र में छोड़े गए हैं, जिनकी संख्या अब लगभग 150 के करीब है। उल्लेखनीय है कि चंबल सेंचुरी क्षेत्र में दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में डायनाशोर प्रजाति के इन घडिय़ालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडिय़ाल किसी किताब का हिस्सा न बनकर रह जाएं।

अजिता पर इतनी मेहरबानी क्यों...?

अफसर भ्रष्ट हैं तो क्यों बचा रही है शिवराज सरकार? भोपाल। इनदिनों देश में मजबूत लोकपाल और लोकायुक्त को लोकपाल के दायरे में लाने के लिए अभियान चल रहा है ताकि लोकायुक्त बड़े भ्रष्टाचारी अफसरों को सलाखों के पीछे पहुंचा सके। वहीं मध्य प्रदेश में पारदर्शिता का दावा करने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लोकायुक्त को कई आईएएस अफसरों के खिलाफ अदालत में चालान पेश करने की इजाजत नहीं दे रहे हैं। इससे करोड़ों रूपए घोटाले के दागी अधिकारी अपने रसूख के कारण जमकर मलाई खा रहे हैं और छोटी-छोटी गलतियां करने वाले अधिकारी-कर्मचारी व्यवस्था की शूली चढ़ रहे हैं। ऐसे रसूखदार अधिकारियों की तो लंबी सूची है,लेकिन इनदिनों चर्चा में हैं अजिता वाजपेयी पांडे। हालांकि केंद्र सरकार से अनुमति मिलने के बाद लोकायुक्त ने अजिता के खिलाफ 8 जनवरी को लोकायुक्त कोर्ट में पूरक चालान पेश कर दिया गया है। विशेष न्यायाधीश लोकायुक्त वीपी शुक्ल की अदालत ने सुनवाई आगे बढ़ा दी है।
18 साल बाद मामला फिर सुर्खियों में
अजिता पांडे वाजपेयी को अपर मुख्य सचिव (तकनीकी शिक्षा एवं कौशल)विभाग से हटा कर उन्हें अब योजना आयोग का सदस्य बनाया गया है। लेकिन उनका रसूख हमेशा ही कायम रहा है। उनके रसूख का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उन पर तथा पांच और अधिकारियों पर कांग्रेस के शासनकाल में 1998 और 2003 में बिजली के मीटर को ऊंची दर पर खरीदी कर विद्युत मंडल को लगभग साढ़े छह करोड़ रुपए का नुकसान पहुंचाने का आरोप था। अधिकारियों पर आरोप था कि उन्होंने बिना निविदा के मीटर की खरीदी का प्रस्ताव तैयार किया, इससे मंडल को नुकसान हुआ। शिकायत लोकायुक्त के पास पहुंची। 2004 में प्रारंभिक जांच में लोकायुक्त ने अनियमितता पाई और प्रकरण दर्ज करने के बाद न्यायालय में चालान पेश किया। 16 जून, 2007 को इस मामले में एक और आरोप पत्र पूर्व राज्य बिजली बोर्ड के अध्यक्ष एसके दासगुप्ता, वरिष्ठ आईएएस अधिकारी अजिता वाजपेयी पांडे और चार अन्य लोगों के खिलाफ लोकायुक्त पुलिस द्वारा प्रस्तुत किया गया है। उसके बाद दिसंबर 2011 में मामले की सुनवाई के बाद न्यायाधीश प्रद्युम्न सिंह ने फैसले में पांच पूर्व अधिकारियों को दोषी बताया गया है। फैसले में कहा गया कि मंडल के नियमानुसार एक करोड़ से ज्यादा की खरीदी निविदा से होनी चाहिए, इसके बाद अधिकारियों को खरीदी के विशेष अधिकार दिए गए थे, लेकिन अधिकारियों ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया है। न्यायाधीश ने पूर्व अध्यक्ष दासगुप्ता और अन्य एनपी श्रीवास्तव, प्रकाशचंद्र मंडलोई, बसंत कुमार मेहता व मोहन चंद को तीन-तीन वर्ष की सजा सुनाई है। साथ ही पांचों पर एक लाख एक हजार रुपये का जुर्माना भी लगाया। लेकिन केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ होने के कारण केंद्र सरकार से अनुमति नहीं मिलने के कारण अजिता वाजपेयी पांडे का कहीं नाम नहीं आया। अजिता वाजपेयी पांडे पर भ्रष्टाचार का आरोप भले की कांग्रेस सरकार में लगे लेकिन उन्हें बचाने के लिए भाजपा सरकार ने भी उनकी खुब मदद की है। राज्य सरकार ने श्रीमती पांडे को बचाने के लिए दो बार केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे, लेकिन केंद्र ने इसे कंसीडर नहीं किया। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लोकायुक्त में प्रकरण दर्ज करने की अनुमति प्रदान कर दी है। लेकिन विडंबना यह देखिए की केंद्र से मंजूरी मिलने के बावजूद राज्य सरकार ने निर्णय पर पुनर्विचार की मांग करने के लिए लिखा है।
6 करोड़ का चूना लगाया था विद्युत मंडल को
आईएएस अफसर श्रीमती पांडे पर ऊर्जा विभाग में रहते हुए मीटर खरीदी घोटाले का आरोप लगा था। उस समय वे विभाग में बतौर सदस्य वित्त के रूप में कार्यरत थीं। मामला वर्ष 1998 और 2003 का है, इस दौरान 70 हजार मीटर बिना टेंडर किए खरीदे गए थे। उस दौरान एक मीटर की कीमत 714 रुपए बताई गई थी, जबकि मीटर की वास्तविक कीमत 302 रुपए थी। इस मामले की शिकायत 2003 में लोकायुक्त में की गई थी, जिस पर कार्रवाई करते हुए तत्कालीन चेयरमैन एसके दास गुप्ता पर मामला दर्ज किया गया था, लेकिन केंद्र सरकार की स्वीकृति नहीं मिलने के कारण मामला लंबित था। राज्य सरकार ने श्रीमती पांडे को बचाने के लिए दो बार केंद्र सरकार को पत्र लिखे थे, लेकिन केंद्र ने इसे कंसीडर नहीं किया। अब केंद्र ने राज्य सरकार को लोकायुक्त में प्रकरण दर्ज करने की अनुमति प्रदान कर दी है। लोकायुक्त पुलिस श्रीमती पांडे सहित छह लोगों पर प्रकरण दर्ज करेगी।
चार आरोपियों को हो चुकी है सजा-
मामला मध्यप्रदेश राज्य विद्युत मंडल में वित्त सदस्य रहने के दौरान बहुचर्चित इलेक्ट्रॉनिक मीटर खरीदी घोटाले में गड़बड़ी के आरोप से संबंधित है। अभियोजन के मुताबिक इलेक्ट्रॉनिक मीटर खरीदी घोटाले के जरिए सरकार को लगभग 6 करोड़ रुपये का चूना लगाया गया था। इस मामले में 2011 में चार आरोपियों को लोकायुक्त कोर्ट से सजा हो चुकी है।
आपत्ति के कारण नहीं लिया संज्ञान सीनियर आईएएस अजिता बाजपेयी पाण्डेय के खिलाफ अभियोजन स्वीकृति देर से मिलने के कारण 8 जनवरी को पूरक चालान पेश किया गया। हालांकि कोर्ट ने आपत्ति के मद्देनजर पूरक चालान पर संज्ञान नहीं लिया था। आपत्ति में कहा गया था कि लोकायुक्त ने नोटिस दिए बगैर एकपक्षीय तरीके से कार्रवाई को अंजाम दिया है।
विधिवत अभियोजन मंजूरी ली इधर दूसरी ओर लोकायुक्त का कहना है कि इस मामले में कार्मिक विभाग नई दिल्ली से विधिवत अभियोजन स्वीकृति हासिल करने के बाद ही पूरक चालान पेश करने की प्रक्रिया पूरी की गई है। आरोपी अजिता वाजपेयी पांडे इन दिनों अपर मुख्य सचिव के पद पर कार्यरत हैं।
दागी-दागी भाई-भाई प्रशासन तंत्र में बैठे आला दागीअफसर कैसे एक-दूसरे को नवाजते हैं। इसका खुलासा राज्य विधानसभा में दी गई एक जानकारी से हुआ। कांग्रेस विधायक आरिफ अकील के लिखित प्रश्न के उत्तर में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने बताया कि जांच एजेंसी ईओडब्ल्यु व लोकायुक्त ने जिन अफसरों के खिलाफ चालान की अनुमति मांगी थी उन्हें चालान पेश होने से पहले ही पदोन्नत कर दिया गया। इनमें अपर मुख्य सचिव अजीता वाजपेयी पांडे भी शामिल हैं। श्रीमती पांडे पर मप्र राज्य विद्युत मंडल पर पदस्थापना के दौरान इलेक्ट्रानिक मीटर खरीदी में गोलमाल किए जाने का आरोप है। श्रीमती पांडे को पिछले साल सरकार ने पदोन्नत कर अपर मुख्यसचिव बना दिया। मुख्यमंत्री ने बताया कि लोकायुक्त की ओर से चालान पेश करने संबंधी अनुमति मांगे जाने का प्रस्ताव 28 जुलाई 2011 को राज्य शासन को मिला था। इसे 15 दिसंबर 2011 को केंद्र सरकार को भेजा गया। राज्य सरकार अजिता वाजपेयी पांडे को बचाने के लिए किसी भी कसर नहीं छोड़ नहीं है। आम तौर पर, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों को जैसे ही लोकायुक्त उन के खिलाफ आरोपपत्र प्रस्तुत करता है उन्हें निलंबित कर दिया जाता है, लेकिन पांडे अपवाद बन कर सामने आई हैं।
56 के खिलाफ चल रही जांच लोकायुक्त दफ्तर से मिली जानकारी के मुताबिक प्रदेश के 34 आईएएस, 15 आईएफएस और 6 आईपीएस अफसरों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में जांच चल रही है। यहीं नहीं भ्रष्टाचार में मामलों में घिरे करीब 35 अफसर अब तक सेवानिवृत्त हो चुके हैं जिनके खिलाफ प्रकरण दर्ज हुए थे । सरकार कह रही है कि अब इन अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती। बताया जाता है कि आरोपों की जांच पड़ताल के बाद लोकायुक्त ने इनके खिलाफ कार्रवाई के लिए सरकार को पत्र भी लिखा है लेकिन कार्रवाई तो दूर राज्य सरकार इनके खिलाफ लिखे गए पत्रों को पढऩे का वक्त तक नहीं निकाल पाई है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार की चुप्पी देख विपक्ष ने उसकी नीयत पर सवाल उठाए हैं।
10 फीसदी में ही प्रकरण दर्ज हो पाते लोकायुक्त संगठन में पहुंचने वाली शिकायतों में से जांच के बाद 10 फीसदी मामलों में ही आपराधिक प्रकरण दर्ज हो पाते हैं। फिर यह मामला नौकरशाहों का हो तब तो प्रकरण दर्ज होना बड़ा ही मुश्किल हो जाता है। लोकायुक्त संगठन के शिकायतों में तीन तरह की कार्यवाही होती है। जांच के लिए प्रकरण दर्ज किए जाते हैं, शिकायत विशेष स्थापना पुलिस को प्राथमिक जांच के लिए सौंपी जाती है या छापा मारने के बाद एफआईआर दर्ज की जाती है। जांच प्रकरणों में से जिन मामलों को केस दर्ज करने योग्य समझते हैं,उनमें एफआईआर दर्ज की जाती है।
आईएएस के सुरेश भी घेरे में भ्रष्टाचार के मामले में वर्ष 1982 बैच के आईएएस के सुरेश के खिलाफ भी केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय द्वारा सीबीआई को अभियोजन की अनुमतिदिए जाने के संकेत हैं। इससे सुरेश की मुश्किलें बढ गई हैं। मध्यप्रदेश कॉडर के अधिकारी श्री सुरेश वर्तमान में यहां सामान्य प्रशासन विभाग के प्रमुख सचिव हैं। उन पर भ्रष्टाचार का मामला उनके चैन्नई पोर्ट टस्ट के अध्यक्ष व सेतु समुद्रम परियोजना का मुख्य कार्यपालन अधिकारी रहते हुए दर्ज किया गया था। मामला वर्ष 2004 से 2009 के बीच का है। उक्त परियोजना में भ्रष्टाचार की शिकायतें मिलने पर केन्द्रीय जांच ब्यूरो ने सुरेश के आवास व कार्यालय में छापा डाला था। सीबीआई ने छापे के दौरान जो दस्तावेज बरामद किए उनमें बडे पैमाने पर आर्थिक गड़बड़ी सामने आई थी। इस पर सुरेश को प्रथम दृष्टया दोषी मानते हुए उनके विरुद्ध अपराधिक प्रकरण क्रमांक 18 ए /2011 दर्ज किया गया था। जांच के बाद सीबीआई ने केंद्र सरकार से इस मामले में करीब छह माह पूर्व अभियोजन की अनुमति चाही थी। बताया जाता है,कि हाल ही में केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने सीबीआई को अभियोजन की स्वीकृति दे दी है। इस मामले में राज्य शासन पहले ही अपनी ओर से अनुमति दे चुकी है। उनके खिलाफ चालान पेश होने पर उनका निलंबन तय माना जा रहा है।
सुरेश को छग सरकार ने भी बचाया उक्त मामला उजागर होने के बाद मध्यप्रदेश वापस लौटे सुरेश को मप्र सरकार ने ही नहीं नवाजा बल्कि छत्तीसगढ सरकार भी उन्हें भ्रष्टाचार के एक मामले में अभयदान दे चुकी है। यह मामला वर्ष 1997 का है तब सुरेश अविभाजित मप्र के बिलासपुर जिले में पदस्थ थे और अपनी पदस्थापना के दौरान उन पर साक्षरता अभियान की पुस्तकें छपवाने में गोयनका प्रिंटर्स इंदौर को नियमों के विरुद्ध करीब ढाई लाख रुपए का भुगतान कर उपकृत किए जाने का आरोप लगा था। यह मामला आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो में दर्ज किया गया। ब्यूरो ने वर्ष 2010 में इस प्रकरण में खात्मा लगा दिया। बाद में राज्य सरकार ने साक्ष्य नहीं मिलने का तर्क देकर सुरेश के साथ ही आईएएस अधिकारी आईएन एस दाणी, एमके राउत समेत चार अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण वापस ले लिया था। इस पर वहां विपक्ष के नेता रवीन्द्र चौबे ने सवाल उठाया था,कि जब आरोपी अधिकारी ही अपने मामलों की जांच करेंगे तो साक्ष्य कैसे मिलेंगे।
ब्यूरोक्रेट की करतूतें परेशानी का सबब प्रदेश में ब्यूरोक्रेट की करतूतें न सिर्फ सरकार के लिए परेशानी का सबब बनीं, बल्कि इस सर्वोच्च सेवा की मान-सम्मान मर्यादा और गौरव की धज्जियां भी उड़ा दीं। यहां तक कि मप्र कैडर के कारण भारतीय प्रशासनिक सेवा की पूरे देश में हो थू-थू को देखते हुए पूर्व कैबिनेट सचिव केएम चंद्रशेखर तक को हस्तक्षेप करना पड़ा। उन्होंने तीन मार्च 2010 को प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव अवनि वैश्य को पत्र लिखकर मप्र कैडर की करतूतों पर दु:ख जताया। वे इतने आहत थे कि उन्होंने प्रदेश के नौकरशाहों को फिर से न सिर्फ उनकी ड्यूटी याद दिलाई, बल्कि सेवा में आने के समय ली जाने वाली कसमें-वादे भी याद दिलाए।

राजनीति में पूर्व नौकरशाहों की बढ़ती भागीदारी

मध्यप्रदेश में नौकरशाहों की ऐसी बड़ी फौज हमेशा रही है जिनकी दिलचस्पी अपने प्रशासनिक कामकाज से ज्यादा राजनेताओं को राजनीतिक सलाह देने में रहती है। प्रदेश में बीते दो दशकों के दौरान नौकरशाहों के बढ़ते दबदबे के बीच अफसर शाहों का राजनीति प्रेम उन्हें राजनीतिक दलों की तरफ खींचने लगा है। पिछले तीन दशकों में देखा जाए तो मध्यप्रदेश के जिलों में कलेक्टर सबसे बड़े नेता समझे जाते हैं। देश में सबसे अहम पीएम (प्रधानमंत्री) और सीएम (मुख्यमंत्री) की कहावत का विस्तार डीएम (डिस्ट्रक्ट मजिस्ट्रेट) तक हो गया है। प्रधानमंत्री सचिवालय में कार्यरत पुलिस महानिदेशक स्तर के अफसर यशोवर्धन आजाद जब सागर के पुलिस अधीक्षक थे तो कांग्रेसी विधायक से उनकी बहस हो गई थी। तब बिहार के मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद के इस बेटे ने उन्हें यह कहकर चुप करा दिया था कि वे विधायक बन सकते हैं लेकिन वे (विधायक) आईपीएस नहीं बन सकते। बहरहाल, हकीकत तो यह है कि दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में नौकरशाहों की महत्ता सबसे ज्यादा बढ़ी। इस कदर कि बड़े और अहम जिलों के कलेक्टरों से वे सुबह रोज सीधे बात करके जिलों का राजनीतिक फीडबैक लिया करते थे। वे कलेक्टरों को उनके नाम और सरनेम के साथ क्वहायÓ करके बात करते थे। दिग्गी राजा के राज में तो दलित अफसरों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उफान पर थी। उनकी कोर मंडली के कई अफसर कांग्रेस के साथ बसपा के साथ पींगे बढ़ाते रहे। दिग्गी को 2003 में दलित एजेंडा के फेर मे उलझा दिया। जाहिर है कि ऐसे अनुकूल हालात ने अफसरों की राजनीतिक हसरतों को बढ़ाने का काम खूब किया। हालांकि इसके पहले अजीत जोगी के मन में राजनीति के बीज तभी अंकुरित होने लगे थे जब वे सीधी में कलेक्टर थे। जोगी खुद बताते हैं कि उस वक्त सीधी जिले में अर्जुन सिंह के गृह जिले में सबसे कड़ी चुनौती उस दौर के दिग्गज नेता चंद्रप्रताप तिवारी से मिलती थी। जोगी इन दोनों राजनीतिक प्रतिद्बंदियों के बीच सेतु का काम करते-करते राजनीति की एबीसीडी तभी सीख गए थे। बाद में उन्होंने कलेक्टरी छोड़कर राज्यसभा के जरिए राजनीति के मैदान में प्रवेश लिया था। यदि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजनीति में सबसे कामयाब अफसरों की बात की जाए तो जोगी ही सबसे ऊपर माने जाएंगे जो लोकसभा चुनावों में हारने और जीतने के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। वैसे जोगी के पहले नौकरी छोड़कर राजनीति के अखाड़े में कूदने वालों में पद्म भूषण एमएन बुच रहे हैं। उनकी अर्जुन सिंह से नजदीकियां किसी से छुपी नहीं रहीं। बहुत कम लोगों को पता है कि भोपाल के नए इलाके के एक बाजार का नाम बिटृन मार्केट किसी और के नाम पर नहीं, बल्कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की पत्नी सरोज सिंह के क्वनिकनेमÓ पर रखा था। लेकिन उन्होंने किसी राजनीतिक दल का दामन थामने के बजाए 1984 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर चुनाव लड़ा। हालांकि कि इंदिरा गांधी की शहादत से उपजी लहर के बावजूद उन्होंने एक लाख वोट हासिल किए। 1976 बैच के एक और समाजसेवी स्वभाव के चिंतक अफसर थे अजय सिंह यादव। उन्हें आईएएस की नौकरी रास नहीं आई तो 1997 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। समाजसेवा करते हुए 1999 में उन्होंने भोपाल से निर्दलीय चुनाव भी लड़ा। पिछले साल ही उनका असमायिक निधन हो चुका है। दिग्गी राजा ने तो अपने दलित नौकरशाहों का इस्तेमाल 1998 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी से चुनावों में रणनीतिक साझेदारी करने में किया। हालांकि इसका खामियाजा बसपा ने 2003 के चुनाव में भुगता और वह दो सीटों पर सिमट गई। दिग्गी राजा के राज में मान दाहिमा ने उज्जैन से कांग्रेस का लोकसभा टिकट पाने के लिए खूब जोर लगाया। लेकिन दिग्गी राजा के ज्यादातर दलित अफसरों का अनुराग बसपा के प्रति ही बना रहा। केवल भागीरथ प्रसाद ही ऐसे आईएएस अफसर थे जो पिछले चुनाव में भिंड लोकसभा से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े लेकिन हार गए। डॉ. भागीरथ प्रसाद इस बार भिंड जिले की गोहद सीट से विधानसभा का चुनाव लडऩे की दावेदारी जता रहे हैं। जहां ज्यादातर दलित अफसरों का झुकाव कांग्रेस और बसपा की तरफ रहा है, वहीं बेहद ईमानदार और कड़क छवि वाले मध्यप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुभाष चंद्र त्रिपाठी ने पिछले चुनाव के वक्त बसपा का दामन थामकर सबको चौंकाया था। हालांकि त्रिपाठी ने सत्ता की राजनीति के बजाए खुद को संगठन और समाजसेवा तक सीमित कर रखा है। त्रिपाठी ने बसपा सुप्रीमो मायावती के सबसे करीबी सतीश चंद्र मिश्रा के कारण बसपा में कदम रखा था। मध्यप्रदेश में अजीत जोगी के बाद जो अफसर राजनीति के मैदान में उतरे वे थे रिटायर्ड आईएएस अफसर सुशील चंद्र वर्मा। 1977 में जनता पार्टी के शासन के दौरान प्रदेश के मुख्य सचिव रहे सुशील चंद्र वर्मा को भाजपा ने 1989 में शामिल कराया। वर्मा लगातार तीन बार भोपाल से सांसद भी चुने गए लेकिन वर्मा भाजपा में लंबी संसदीय पारी खेलने के बावजूद राजनेताओं से ज्यादा क्वमिक्स अपÓ नहीं हो सके। छह अक्तूबर 2011 को छत से गिरकर उनकी मौत हो गई। भाजपा में वर्मा के बाद सबसे ज्यादा कामयाब रहने वाले अफसर थे। रुस्तम सिंह। राज्य पुलिस सेवा से पदोन्नत होकर आईजी के ओहदे तक पहुंचे रुस्तम सिंह को उमा भारती ने भाजपा में प्रवेश कराया और उन्हें मुरैना से विधानसभा चुनाव में उतारा। दरअसल भाजपा के पास तब तक कोई प्रभावी गुर्जर नेता नहीं था। इसके चलते ग्वालियर और चंबल संभाग के गूजर समुदाय में बने कांग्रेसी किलों में कोई सेंधमारी नहीं कर पा रहा था। लेकिन रुस्तम सिंह के कंधों पर बैठकर भाजपा ने गुर्जर बहुल मुरैना विधानसभा चुनाव में धमाकेदार जीत दर्ज कराई। उमा भारती ने रुस्तम सिंह को काबीना में सीधे कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ दिलाकर उन्हें पूरे सम्मान से नवाजा। हालांकि रुस्तम सिंह 2008 में अपनी जीत को दोहरा नहीं सके। बावजूद इसके गुर्जर समाज में पैठ बनाने की खातिर रुस्तम सिंह को पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष बनाकर कैबिनेट मंत्री के दर्जे से नवाजा गया। रुस्तम सिंह के पहले भारतीय पुलिस सेवा के मप्र कैडर के आईपीएस अफसर पन्नालाल ने भी 2003 में देवास जिले की सोनकच्छ सीट से अपनी किस्मत आजमाई थी लेकिन मौजूदा कांग्रेसी सांसद सज्जन सिंह वर्मा से वे कड़े मुकाबले में चुनाव हार गए थे। पन्नालाल ने पिछले चुनाव में शाजापुर जिले की आगर सुरक्षित सीट से टिकट की कोशिश की थी लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। पन्नालाल के बाद दलित समाज से झुड़े एक रिटायर्ड आईपीएस अफसर आरसी छारी ने भाजपा की सदस्यता ली। वे चुनाव तो नहीं लड़े, लेकिन मुरैना में उनके समाज के वोट जुटाने में भाजपा ने छारी की मदद जरू र ली। भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक और अफसर एसएस उप्पल ने रिटायर्ड होने के बाद भाजपा का पल्लू थामा। पर वे सत्ता की राजनीति के बजाए संगठन की सेवा कर रहे हैं। इस बार विस चुनाव के पहले भारतीय पुलिस सेवा के एक अफसर हरीसिंह यादव रिटायरमेंट के तीन माह पहले नौकरी से तौबा कर भाजपा के साथ हो लिए। वीरता पदक पा चुके हरीसिंह ने दतिया जिले कीसेवढ़ा विधानसभा सीट से टिकट की आस में रिटायर होने से पहले नौकरी छोड़ी है। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने थे तो उनके सलाहकारों में दो पूर्व आईपीएस अफसर थे आरएलएस यादव और रामलाल वर्मा। हालांकि उनकी पारी सलाहकार से आगे राजनीति में तब्दील नहीं हो सकी। अजीत जोगी की 2003 में भाजपा के हाथों करारी हार के बाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं परवान नहीं चढ़ सकी। विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ कैडर में शरीक हो चुके सरगुजा के मूल निवासी पुलिस महानिदेशक रैंक के अफसर वासुदेव दुबे ने 2008 के चुनाव में सिंगरौली से चुनाव लडऩे की कवायद की थी, लेकिन तब पार्टी ने अफसर के बजाए पेशेवर राजनीतिज्ञ रामलल्लू वैश्य पर भरोसा जताया। वैश्य सिंगरौली के महापौर बनने के बाद विधायक बने। वासुदेव दुबे की तरह दिग्गी राजा के करीबी रहे मप्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक अयोध्यानाथ पाठक की भी राजनीतिक हसरतें परवान नहीं चढ़ सकीं। पाठक वैसे तो बिहार के हैं, लेकिन उन्होंने पुलिस कप्?तानी के दौरान ग्वालियर चंबल में खासी लोकप्रियता हासिल की थी। वे इसी इलाके से टिकट के तलबगार थे।
समाजसेवा में भी पीछे नहीं हैं अफसर
मध्यप्रदेश में राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले अफसरों से इतर देखा जाए तो आईएएस की नौकरी से रिटायरमेंट या फिर नौकरी छोड़कर समाज सेवा में जुटने वाले अफसरों की भी लंबी फेहरिश्त है। एमएन बुच की भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर से भी अच्छी दोस्ती रही है लेकिन उन्होंने राजनीति के बजाए एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) के जरिए समाजसेवा के विकल्प को चुना। आईएएस रहते या नेता बनकर उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जो उन्हें आज मिल रहा है। 2011 में केंद्र सरकार ने उन्हें पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा है। ब्रह्मदत्त शर्मा तो काफी पहले नौकरी छोड़ चुके हैं और अब भी वे यह काम कर रहे हैं। पिछले साल ही सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पाल को जब नक्सलियों ने अगवा किया तो उनकी रिहाई में मध्यस्थ की अहम भूमिका एमएन बुच की पत्नी के निर्मला बुच के साथ ब्रह्मदेव शर्मा ने ही निभाई थी। हर्ष मंदर भी मध्यप्रदेश के ऐसे आईएएस अफसर रहे हैं जिन्होंने अखिल भारतीय सेवा जैसी महत्वपूर्ण नौकरी को तिलांजलि देकर समाजसेवा का रास्ता अपनाया। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे शरतचंद्र बेहार को दिग्विजय सिंह का बेहद करीबी माना जाता है। वे भी एनजीओ से जुड़े रहे हैं। उन्होंने मुख्य सचिव रहते हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर और सरकार के बीच सेतु की भूमिका कई दफे निभाई थी, तो एकता परिषद के सुब्बाराव को साधने का काम भी उन्होंने सरकार के लिए बखूबी किया।
सियासी डगर पर नौकरशाह
राजनेताओं ने चुनाव जीतने के लिए बाहुबलियों और सरकार चलाने के लिए नौकरशाहों का निजी हित में उपयोग शुरू किया था तब उन्हें इस बात का इलहाम नहीं रहा होगा कि सियासत के सपोर्टिंग ये एक्टर-बाहुबली और नौकरशाह खुद राजनेताओं को बेदखल कर राजनीति की रपटीली डगर पर कुलांचे भरने लगेंगे। वर्ष 1990 के दौरान बूथ लूटने और बूथ कैप्चरिंग के मार्फत अपने चहेते नेता के सिर विजय मुकुट बांधने का काम करने वाले बाहुबलियों के दिमाग में यह घर कर गया कि वे कब तक क्वएक्स पार्टीÓ का रोल अदा करते रहेंगे। नतीजतन, उन्होंने भी माननीय बनने के अपने सपनों को पंख देना शुरू कर दिया। तकरीबन दो-ढाई दशकों में यह चलन कहां तक पहुंचा है उसे इसी से समझा जा सकता है हर राजनीतिक दल बाहुबलियों से किनारा करने को लेकर स्यापा तो पीटता है पर किसी में इनसे छुट्टी पाने की ताकत नहीं है। कुछ इसी तर्ज पर कभी राजनेताओं के क्वसपोर्टिंग ग्रुपÓ के रूप में काम करने वाले नौकरशाहों ने भी अपनी स्थिति तैयार करनी शुरू कर दी है। सरकार चलाने में नेताओं की मदद करने वाले नौकरशाहों ने राजनेताओं से पहले निजी ताल्लुक बनाए फिर इस क्वटाइम टेस्टेडÓ नौकरशाही ने खुद सियासत की डगर पकड़ ली।
सूबे के चतुर सुजान नौकरशाहों ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की क्वशासन सटकÓ अवधारणा को पीछे छोड़ दिया है। इसका अहसास राजनीति में उनकी बढ़ती दखल से हो रहा है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि सूबे की नौकरशाही पूरी तरह राजनीतिक खेमों में बंट गई है। अभी चुनावी रणभेरी बजने में भले ही पांच-छह महीने का समय हो पर सूबे के राजनीतिक दलों में इन दिनों अचानक सेवानिवृत्त नौकरशाहों की आमद-रफ्त बढ़ गई है। अपने राजनीतिक आकाओं की मदद से कल के नौकरशाह आने वाले कल के राजनेता बनने की तैयारी में हैं। उत्तर प्रदेश में इन दिनों राजनीति का जादू नौकरशाहों के सिर चढ़ कर इस तरह बोल रहा है कि अगर उन्हें बड़े राजनीतिक दलों में पनाह नहीं मिल पाई तो छोटे दलों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आशियाना बना लिया है।
सत्यपाल सिंह : बीते 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश के स्थापना दिवस पर मुंबई में आयोजित एक उत्तर भारतीय सम्मेलन के मंच पर मुंबई के पुलिस आयुक्त सत्यपाल सिंह कार्यक्रम खत्म होने के ठीक एक-डेढ़ मिनट पहले पहुंचे। पर डेढ़ मिनट के ही अपने भाषण में उन्होंने मजमा लूट लिया। भाषण देकर उतरते समय इस संवाददाता ने उनसे कहा था, क्वमैं किसी पुलिस वाले को नहीं राजनेता को सुन रहा था क्या, सतपाल सिंह बोले नहीं, मैं बचपन से अच्छा बोलता हूं। उन्हें तंज भी कसा गया कि आम पुलिसवालों की तरह आप भी कार्यक्रम में देर से आए जबकि सुना जाता है कि मुंबई पुलिस बड़ी मुस्तैद है। उस समय वहां उपस्थित सतपाल सिंह को छोड़कर किसी को इलहाम नहीं रहा होगा कि पुलिस महकमे का यह तेजतर्रार अफसर जल्दी ही खाकी से खादी की ओर बढऩे वाला है। सतपाल सिंह ने जिस समय खादी पहनने का मन बनाया उस समय देश नरेंद्र मोदी के उभार के जुनून में था और उप्र के बागपत निवासी सत्यपाल सिंह उसी जुनून का एक बड़ा हिस्सा बन चुके थे।
महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी और विचारधारा के स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले सत्यपाल सिंह बीस साल से ज्यादा महाराष्ट्र के कई प्रमुख पदों पर रहे। नक्सल प्रभावित इलाकों में काम करते हुए उन्होंने ख्याति अर्जित की। रालोद अध्यक्ष अजित सिंह के निकट रिश्तेदार सत्यपाल सिंह ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद कहा, क्वमैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सौहार्द और विश्व शांति के लिए काम करना चाहता हूं। किसी राजनीतिक पार्टी से जुडऩे के बारे में अभी कोई निर्णय नहीं लिया है। पर हकीकत यह है कि 24 जनवरी से पहले ही सत्यपाल सिंह की मुलाकात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी से हो चुकी थी। सत्यपाल सिंह ने बीते जाड़े के दिनों में लोगों को कंबल बांटने सरीखे कई सामाजिक कार्यों की भी बागपत और मेरठ में शुरुआत कर दी थी। बीते एक-दो सालों से उनका अपने गांव में आना-जाना भी बढ़ गया था। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि राजनीतिक की डगर पकडऩे का उनका फैसला इत्तिफाकन था। भाजपा से वह बागपत से अजित सिंह के खिलाफ उम्मीदवार होंगे। हालांकि उनके लिए मेरठ और गाजियाबाद की सीट भी कम सुरक्षित नहीं है।
पीएल पुनिया : उत्तर प्रदेश में इन दिनों कांग्रेस के सांसद और अनुसूचित जाति व जनजाति के अध्यक्ष पन्ना लाल पुनिया नौकरशाहों के रोल मॉडल हैं। यह पुनिया के हुनर का ही तकाजा है कि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती भले ही नदी की धारा के दो ऐसे किनारे हों जिनका मिलना असंभव हो, पर पुनिया समानांतर चलने वाली इन धाराओं को साध कर खासे प्रिय बन बैठे। यह उनका राजनीतिक कौशल ही है कि मायावती और मुलायम पर लगातार हमला करने वाली कांग्रेस ने उन्हें सिर-माथे बिठा रखा है। उनकी राजनीतिक पारी अच्छी चल रही है। बाराबंकी में विधानसभा चुनाव हारने के ठीक दूसरे दिन ही पुनिया मतदाताओं के बीच जा धमके थे। उनके राजनीतिक कौशल का ही कमाल था कि वर्षों के घुटे राजनेता बेनी प्रसाद वर्मा को भी नाको चने चबाने पड़े। वह कहते हैं कि यह सेवानिवृत्ति के बाद की पारी नहीं, मेरा नया जन्म है। पुनिया ने इसे साबित भी किया। वह सूबे के इकलौते नौकरशाह हैं जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद रिटायर्ड आईएएस अफसर लिखकर अपने अतीत को कंधे पर नहीं बिठाया। पुनिया इसे फख्र से बताते भी हैं। मायावती और मुलायम से सीखी गई राजनीतिक इबारत का ही तकाजा है कि उनका अनुभव उम्र को पीछे छोड़ जाता है। बाढ़ की आपदा हो या और कोई सुख-दुख का मौका, हर जगह सधे हुए राजनेता की मानिंद उपस्थित रहना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। वह कहते हैं, क्वएक दिन में मैंने 38 शादियां अटेंड की। मैं शादी वाले घरों में पहुंचा तो लोग सो चुके थे। मैंने जगा कर न्योता दिया।Ó पुनिया बताते हैं कि अधिकारी अपनी क्वपोजीशन ऑफ अथॉरिटी से काम करता है। राजनीति में दूसरे से मांगना होता है। याचना करके जनता का भला करना होता है। अधिकारी की पूंछ लपेटे रहने वाले कामयाब नहीं हो सकते हैं।
अहमद हसन : लंबे समय से विधानपरिषद में समाजवादी पार्टी की कमान संभाल रहे पीपीएस से प्रोन्नति पाए आईपीएस अफसर रहे अहमद हसन भी सेवानिवृत्त नौकरशाहों में शुमार हैं। पार्टी की ओर से उन्हें काबीना मंत्री तो बनाया ही गया है। पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा कहे जाने वाले आजम खान जब-जब नाराज होते हैं तो विकल्प के तौर पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की आसपास की कुर्सियों पर अहमद हसन को देखा जा सकता है। लेकिन अहमद हसन पार्टी में पराक्रम नहीं, परिक्रमा का संदेश देते हैं। पार्टी उन्हें भले ही दस-पंद्रह सालों से प्रोजेक्ट कर रही हो पर अब भी पुनिया की तरह नौकरशाह का लबादा उतार कर फेंकने की स्थिति में वह नहीं हैं। यही वजह है कि आम लोगों को तो छोडि़ए, खास लोगों का भी उनसे मिलना मुश्किल है। हालांकि इसका नुकसान भी पार्टी को गाहे-बगाहे उठाना पड़ा है। शुरूआती दौर में सूचना आयुक्तों की सूची में अहमद हसन ने एक ऐसा नाम शामिल करा दिया था जिससे न केवल सरकार की किरकिरी हुई, बल्कि पूरी की पूरी सूची को रद्द करना पड़ा। जो बड़ी मुश्किल के बाद जारी हो पायी। अपने दल के नेता मुलायम सिंह यादव के जिले इटावा में चार साल तक पुलिस कप्तान के पद पर तैनात रहे अहमद हसन का मुलायम से उसी दौरान ऐसा लगाव हुआ कि 31 जनवरी, 1992 को सेवानिवृत्ति हुए अहमद हसन को मुलायम ने दो साल बाद अपनी सरकार में अल्पसंख्यक विभाग का मुखिया बना दिया। अहमद हसन जब गोरखपुर के डीआईजी पद पर तैनात थे तो उन्हीं दिनों एक बड़े एनकाउंटर में एक तेज तर्रार दरोगा काल-कवलित हो गया। हालांकि इस मुठभेड़ की जांच के आदेश भी उन्होंने दिए थे, पर नतीजे आज तक किसी को पता नहीं हैं।
हरिश्चन्द्ग : 33 साल की नौकरी में 49 बार तबादला, विभिन्न सरकारों में ढाई साल तक तैनाती की प्रतीक्षा और निलंबन। वजह वह क्रांतिकारी कार्यशैली जिसमें अपने सरकारी अफसर को भी जेल भेजने में गुरेज नहीं। सूबे के प्रमुख आईएएस अधिकारियों में शुमार रहे हरिश्चंद्ग का सेवा निवृत्ति के बाद राजनीति में आने का मकसद एमपी, एमएलए बनने के बजाय व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन है। राजनीतिक दलों के दोमुंहÞपन से निराश होकर 14 अप्रैल 2008 में क्वराष्ट्रीय जनवादी पार्टी क्रांतिकारीÓका गठन किया। अब लोकसभा चुनाव में ताकत दिखाने की तैयारी है लेकिन राजनीतिक दलों ने जो भ्रष्टाचार का बीज बोया है वह चुनावी राजनीति को मुश्किल बना रहा है। वह कहते हैं कि कांग्रेस, बसपा, सपा और भाजपा सभी सरकारों को मैंने देखा है। इसी वजह से अलग दल बनाने का फैसला किया। जो लोग क्रांतिकारी विचार रखते हैं उन्हें एकजुट करने में लगा हूं।
यशपाल सिंह : राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे यशपाल सिंह, पूर्व आईएएस अधिकारी रमाशंकर सिंह ही नहीं और एसपी आर्या ने भी पीस पार्टी की शरण ली। हालांकि यशपाल की पत्नी गीता सिंह ने उनके नौकरी में रहने के दौरान ही सपा की राजनीति शुरू कर दी थी। सपा से वह विधायक भी हो गई थीं। उनके चुनाव के दौरान यशपाल सिंह उप्र के पुलिस महानिदेशक थे। विपक्षी दलों की शिकायत पर उन्हें पद छोडऩा पड़ा था। लेकिन यशपाल सिंह को सपा की साइकिल सिर्फ इसलिए रास नहीं आई, क्योंकि उसने उनकी पत्नी का टिकट काटकर दौड़ से बाहर कर दिया था। नतीजतन, यशपाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उन्हें पीस पार्टी का झंडा उठाने को मजबूर कर दिया। वह दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बने। वह बताते थे कि राजनीति में सिर्फ जनसेवा के लिए आए हैं। इसलिए सेवानिवृत्ति के बाद घर बैठने के बजाय राजनीति का कठिन मार्ग चुना पर छह-सात महीने में उनका अनुभव बड़ा अजीब रहा। अब वह कहते हैं,क्वअफसर के तौर पर कार्य संस्कृति और राजनीतिक संस्कृति बिल्कुल भिन्न है। राजनीतिक संस्कृति में रहना कठिन भी है। नौकरी में हमेशा मेरिट को प्रोन्नति मिलती है। राजनीति में ऐसा नहीं है। यहां जो आपका सुप्रीमो है, वह मेरिट के बजाए चापलूसी और क्वकनिंगनेसÓ पर जोर देता है। योग्य लोगों से घबराता है। यहां भेडिय़ा धंसान है।Ó
बाबा हरदेव : राज्य सिविल सेवा संवर्ग के अध्यक्ष के पद पर लंबे समय तक रहने वाले नौकरशाह बाबा हरदेव सिंह राष्ट्रीय लोकदल में राजनीतिक पारी खेल रहे हैं। रालोद के प्रदेश अध्यक्ष रहे हरदेव सिंह ने आगरा के एत्मादपुर विधानसभा सीट से पिछले विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई पर भला नहीं हो सका। राजनीति में अच्छे लोगों को जरूरी बताने वाले हरदेव सिंह अब मानते हैं कि राजनीति अच्छे लोगों को नहीं रहने देती। राजनीति और ब्यूरोक्रेसी जाति-पांत में उलझ गई है। वाराणसी निर्वाचन क्षेत्र से राजनीतिक पारी की शुरुआत भी अच्छी नहीं रही। अब उन्हें इलहाम होने लगा है कि वह राजनीति को कुछ-कुछ समझने लगे हैं।
एसपी आर्या : सेवानिवृत्त आईएएस अफसर और पीस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एसपी आर्या हालांकि यह मानते हैं कि राजनीति हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था है। इसमें अच्छे व खराब दोनों ही व्यक्ति हैं। मैं राजनीति को खराब इसलिए नहीं कहूंगा क्योंकि 35 साल के कार्यकाल में मेरा किसी राजनेता से झगड़ा नहीं हुआ। मुझमें राजनीति के कोई गुण-सूत्र नहीं थे।
रमाशंकर सिंह : पीस पार्टी के एक दूसरे राष्ट्रीय महासचिव रमाशंकर सिंह भी आईएएस की नौकरी से रिटायर हुए हैं। वह कहते हैं, क्वनौकरी के दौरान मैंने यह पाया कि उस समय नीतियां तो बनीं थीं, लेकिन वह नीतियां ईमानदार नहीं थीं। गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए सार्थक प्रयास नहीं किए गए। देश दो भागों में बंट गया है। एक इंडिया है और दूसरा भारत।Ó उनका मानना है कि कोई भी बदलाव नई जगह से लाया जा सकता है। इसीलिए पीस पार्टी को चुना।
महेंद्र सिंह यादव : प्रदेश की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव के पति महेंद्र सिंह यादव भी आईपीएस अधिकारी थे। 1996 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर राजनीतिक पारी शुरू करने का मन बनाया। इस महत्वाकांक्षा के लिए उन्हें भाजपा सबसे मुफीद लगी। 1996 और 2002 में वह भाजपा के टिकट पर बुलंदशहर से विधायक बने। भाजपा व बसपा के गठबंधन वाली कल्याण सिंह सरकार में शिक्षा मंत्री रहे। दिलचस्प यह रहा कि उस समय उनकी पत्नी इसी महकमे की प्रमुख सचिव थीं। लेकिन भाजपा में महेंद्र सिंह लंबी पारी नहीं खेल सके। 2007 में मुलायम की सपा से चुनाव लड़े और चुनाव हार गए। 2009 में उनका सपा से मोहभंग हुआ। राजनाथ सिंह का साथ लेकर दोबारा भाजपा की शरण ली। लेकिन एक साल बाद ही कमल को रौंदकर 2010 में रालोद में चले गए। नोएडा आवास घोटाले में उनकी पत्नी का नाम आने और सजा सुनाए जाने के बाद वह राजनीति से दूरी बनाए हुए हैं।
आरके सिंह : आरके सिंह भी नौकरी के बाद राजनीति करने वाले 1973 बैच के आईएएस अधिकारियों में शुमार हैं। हालांकि उन्होंने आईपीएस यशपाल सिंह के नक्शे कदम पर चलते हुए अपनी पत्नी ओमवती को नौकरी के दौरान ही राजनीति की डगर पकड़ा दी थी। जिस पर चलकर वह मंत्री भी बनीं। हालांकि ओमवती ने 1985 में कांग्रेस से राजनीति शुरू की थी। पर मंत्री मायावती सरकार में बनीं। वह सपा से विधायक और सांसद भी रहीं। अपनी पत्नी के हर चुनाव में छुट्टी लेकर आरके सिंह चुनाव प्रचार भी करते थे। नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद आरके सिंह बसपा के टिकट पर नगीना से लोकसभा का चुनाव लड़े। जहां सपा के यशवीर सिंह धोबी से हार गए। हालांकि उनकी हार की वजह उनके कंधे से अफसरी का चोला न उतर पाना बताई जाती है। वे चुनाव जरूर हारे, लेकिन उनकी पत्नी बसपा मंत्रिमंडल में बरकरार रहीं। पिछले महीने उन्होंने अपने हाथ में कमल थाम लिया है।
राय सिंह : पद पर रहते हुए राजनीति का चस्का लगने वाले अधिकारियों में राय सिंह का नाम भी शुमार है। सूबे के वरिष्ठ अधिकारी रहे राय सिंह उन लोगों में हैं जिन्हें उप्र में कांशीराम के साथ बहुजन समाज पार्टी खड़ी करने में मददगार माना जाता है। पहली बार जब मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं तब शपथ ग्रहण समारोह में आईएएस अधिकारी रहे राय सिंह कांशीराम के ठीक बगल में बैठे थे। बामसेफ के लिए भी उन्होंने काम किया। उनकी पत्नी राजरानी सिंह राज्य सरकार में मंत्री भी रहीं। यह बात दीगर है कि राय सिंह लंबे समय तक बसपा की राजनीति में जगह नहीं बनाए रख सके और कांशीराम के निधन के बाद उनकी इस कदर छुट्टी हुई कि उन्हें अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का दामन थामना पड़ा।
ओम पाठक : सूबे में नौकरी छोड़कर राजनीति की डगर पकडऩे वालों में आईएएस ओम पाठक का नाम भी सुर्खियों में हैं। लखनऊ के जिलाधिकारी का पद छोड़कर अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर भाग्य आजमाने वाले ओम पाठक को कोई सियासी कामयाबी हासिल नहीं हुई । उन्होंने अफसरी के रसूख से अलग होने के बाद शिक्षण संस्थाओं पर इस कदर ध्यान केंद्रित किया कि नोएडा और देहरादून में उनके जाने-माने दो विद्यालय हैं।
गंगाराम : मंडलायुक्त पद से सेवानिवृत्ति के बाद 1984 में कांग्रेस की लहर में फिरोजाबाद से मैनपुरी निवासी गंगाराम को लोकसभा तक पहुंचने का मौका मिला था। केंद्र सरकार में सचिव रहे आगरा के डॉ चंद्रपाल भी आदर्श समाज पार्टी बनाकर कई सालों से राजनीति करने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रभु दयाल श्रीवास : नौकरी में रहते हुए बसपा के मददगारों में शुमार प्रोन्नति पाए आईएएस अधिकारी प्रभु दयाल श्रीवास को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए हाथ का साथ मुफीद लगा। हालांकि इसके पहले उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद की खातिर अपने लिए जो ताना-बाना बुना था। वह स्वयंसेवी संगठन का था। जिसके तहत उन्होंने एक विद्यालय भी खोल रखा है। श्रीवास अपने जीवन का ध्येय वाक्य बयान करते हैं -सुख शीतल करूं संसार। वह बताते हैं कि सरकारी नौकरी के दौरान गांव में चौपाल लगाता था। सेवानिवृत्ति के बाद सोचने लगा कि समाज को असली फायदा राजनीति से ही मिल सकता है। अगर कांग्रेस ने मौका दिया तो जनता के बीच जाकर किस्मत आजमाएंगे।
दिवाकर त्रिपाठी : लखनऊ के मेयर के चुनाव में अपना भाग्य आजमाने की हसरत लिए हुए प्रोन्नति प्राप्त आईएएस अधिकारी दिवाकर त्रिपाठी अपनी राजनीतिक पारी सपा के साथ खेलने के सपने बुन रहे थे। पर परवान नहीं चढी पाया। दिवाकर अब बताते हैं, क्वराजनीति में दिलचस्पी नहीं थी। सत्ता केंद्र के कई साल तक निकट रहने की वजह से मुझे राजनीति के विभिन्न पहलुओं को करीब से देखने का मौका मिला। मेयर के चुनाव में हिस्सा लेने की सोची। लखनऊ शहर के विकास का एक विजन है। मेयर बनने पर मैं उसे पूरा कर सकता था। अब वह फैसले पर पहुंच गए हैं कि राजनीति में दुनिया की गंदगी बढ़ गई है। इसमें दस-बीस मुखौटे लगाने वाले लोग हैं। जमीर को मारकर ऊंचा उठना घाटे का सौदा है। इसलिए हमने राजनीति का दरवाजा नहीं खटखटाया।
देवी दयाल : वर्ष 2001 में नौकरशाही से विदा लेने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अफसर देवी दयाल को प्रशासनिक और वित्त क्षेत्र का 36 साल का अनुभव है। 1966 बैच के उत्तर प्रदेश काडर के आईएएस अधिकारी देवी दयाल कहते हैं कि वह 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से प्रभावित होकर कांग्रेस में आए। बकौल देवीदयाल हिंदुस्तान की तरक्की और देश की जनता की भलाई को प्राथमिकता देने की सोनिया गांधी की सोच ने बरबस मेरा ध्यान कांग्रेस की ओर खींचा। देवीदयाल यह कहना नहीं भूलते कि राजनीति शरीफ लोगों के लिए नहीं है। साथ ही यह भी नसीहत देते हैं कि सभी शरीफ आदमी राजनीति से किनारा कर लेंगे तो राजनीति साफ-सुथरी कैसे रहेगी। देवीदयाल इस बात से संतुष्ट दिखते हैं कि पार्टी ने हमेशा उन पर विश्वास किया। 2004 में खुर्जा सुरक्षित सीट और 2009 में बुलंदशहर सुरक्षित सीट से टिकट दिया लेकिन सफल न हो सके।
डॉ. बीपी नीलरत्न : पिछले साल दिसंबर में पीसीडीएफ के एमडी पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ. बीपी नीलरत्न ने सेवानिवृत्ति के चार माह बाद कांग्रेसी मंच से सियासी पारी शुरू की। वह कहते हैं कि अफसरी के दौरान ही उनका मकसद आम लोगों के दुख-दर्द कम करने की कोशिश करता था। राजनीति में भी उसी रास्ते चल रहा हूं। वह बताते हैं कि राजनीति में पैसा कमाने या लाल बत्ती का सुख भोगने नहीं आया, अगर आम लोगों के दुख-दर्द कम कर सका तो समझूंगा कि राजनीति में आना सफल रहा।
जगन्नाथ सिंह : चित्रकूट और झांसी जिले के डीएम रहे जगन्नाथ सिंह को लोकसभा का चुनाव लडऩे का ख्याल कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की पहल से आया। बकौल जगन्नाथ सिंह राहुल ने उन्हें कांग्रेस का प्रत्याशी बनाने का फैसला किया था लेकिन कांग्रेस के एक बड़े नेता ने उन्हें कांग्रेस की लिस्ट से बाहर करा दिया। बाद मंव एल के आडवाणी ने भी उन्हें चुनाव मैदान में भेजने का फैसला किया लेकिन पार्टी की राजनीति ने इसे भी परवान नहीं चढ़ ने दिया। थक-हार कर जगन्नाथ सिंह निर्दलीय लोकसभा चुनाव में मैदान में उतरे। दस हजार लोगों ने वोट दिया। वह कहते हैं कि राजनीति इतनी टेढ़ी और चालबाज हो चुकी है कि अब उनके जैसे लोग इसमें रह नहीं सकते। छल-कपट और धोखा मुमकिन नहीं है इसलिए अब निजी स्तर पर समाजसेवा के कामों को पूरा कर रहे हैं।
उदित राज : मायावती के दलित कार्ड का जवाब और राम विलास पासवान की पासी राजनीति की तर्ज पर उप्र में दलित मतदाताओं के बीच अपनी जगह बनाने के लिए उदित राज भारतीय वित्त सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति हासिल करने के बाद इंडियन जस्टिस पार्टी के मार्फत सीधे सुप्रीमो बन बैठे और कई राज्यों में राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ाने में कामयाब रहे। दलितों और पिछड़ों के उत्थान को राजनीतिक एजेंडा बनाने वाले उदित राज का नजरिया बेहद साफ है। उनका कहना है कि सरकारी नौकरी में रहकर समाज परिवर्तन का काम करना मुमकिन नहीं था। इस वजह से ही उन्होंने नौकरी से बाहर होना बेहतर समझा। दरअसल सरकारी नौकरी में रहकर सरकारी कानून और नियमों का पालन करना होता है। लेकिन जब कानून और नियम ही नए बनाने हों, पुराने को खारिज करना हो तो नौकरी में यह कैसे मुमकिन है। इसलिए राजनीतिक संगठन का निर्माण किया। काम जारी है लेकिन मौजूदा राजनीति को कालेधन ने निगल लिया है। सांप्रदायिकता से बड़ा जहर कालाधन है।
एसके वर्मा : हाल ही में नौकरी से छुट्टी पाने के बाद अपनी सियासी पारी खेलने वालों में प्रोन्नति प्राप्त सेवानिवृत्त आईएएस एसके वर्मा का भी नाम है। कमल का साथ देना वह अपनी आत्मा की आवाज बताते हुए कल्याण और राजनाथ सिंह के प्रभाव का जिक्र करने से नहीं चूकते हैं। वह बताते हैं कि समाजसेवा के लिए एक प्लेटफार्म चाहिए था। उसके लिए हमने राजनीति की डगर चुनी है।
रामेंद्र त्रिपाठी : समाजवादी पार्टी का दामन थामने वाले प्रोन्नति प्राप्त आईएएस अफसर रामेंद्र त्रिपाठी को पार्टी ने देवरिया से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया था। हालांकि उनका टिकट काट दिया गया है। किशन पटनायक की अध्यक्षता वाली समाजवादी युवजन सभा की राष्ट्रीय समिति में शामिल रहने का जिक्र करते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ व्यक्तिगत जुड़ाव की चर्चा करना वह नहीं भूलते।
डीबी राय : उप्र में 1992 में अयोध्या कांड के दौरान पुलिस कप्तान रहे डीबी राय भी उन अफसरों में शुमार हैं जिन्होंने नौकरी छोड़ते ही राजनीति की डगर पकड़ ली। डीबी राय सुलतानपुर से भाजपा के टिकट पर दो बार सांसद चुने गए।
श्रीश चंद्र दीक्षित : कहा जाता है कि एक समय अयोध्या आंदोलन के दौरान वीएचपी अध्यक्ष अशोक सिंघल को अयोध्या तक पहुंच पाने में श्रीश चंद्र दीक्षित (सूबे के पुलिस महानिदेशक रहे) की मदद के इनाम के तौर पर ही उन्हें भाजपा ने टिकट दिया और बनारस की जनता ने भी उन्हें दो बार इनाम देते हुए संसद तक पहुंचाया। अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल भी नौकरशाही से राजनीति की डगर पकडऩे वालों में शुमार रहे हैं। उप्र में आईजी रहे बीपी सिंघल मुरादाबाद से भाजपा से लोकसभा पहुंचे और बाद में राज्यसभा में भी उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।
तपेंद्र प्रसाद : प्रोन्नत होकर आईएएस बने तपेंद्र प्रसाद का वीआरएस लेकर सपा में शामिल होते ही प्रशासनिक सुधार विभाग में सलाहकार बनाया जाना अबूझ पहेली ही है। वह खुद को मेजा क्षेत्र का बताते हैं। वहां के लोग भी उनको नहीं जानते। ऐसे में उनका सपा के हित में क्या उपयोग यह यक्ष प्रश्न सुलझाने में इलाकायी सपाई सर खपा रहे हैं। प्रोन्नति प्राप्त आईपीएस अफसर राम भरोसे ने भी भाजपा की सदस्यता राजनीतिक पारी के लिए ग्रहण की।

60,000 करोड़ के कर्ज में डूबा जेपी ग्रुप

जेपी के 38,000 करोड़ के कोल ब्लॉक पर गहराया संकट
खनिज,कोयला,पर्यावरण और वन मंत्रालय ने कसी कंपनी पर नकेल
अल्ट्राटेक सीमेंट को एक प्लांट बेचने के बाद कुछ और प्लांट बेचने की तैयारी
भोपाल। मप्र खनिज विकास निगम से सांठगांठ कर 38 हजार करोड़ से अधिक के कोल ब्लॉक हथियाने वाली कंपनी जेपी एसोसिएट का रसूख सरकार के सभी विभागों पर भारी पड़ रहा है। इन सब के बावजुद जेपी ग्रुप 60,000 करोड़ रुपए के कर्ज में डूबा हुआ है। इस कर्ज से निजात पाने के लिए ग्रुप ने अल्ट्राटेक सीमेंट के गुजरात प्लांट को बेचा था,लेकिन कंपनी की देनदारियां दिन पर दिन बढ़ती जा रही हैं। उधर कोयला मंत्रालय ने भी जेपी के कोल ब्लॉकों में हो रही अनियमितता के खिलाफ नकेल कसनी शुरू कर दी है। जेपी एसोसिएट को आवंटित कोल ब्लॉकों को विकसित नहीं किए जाने पर कोयला मंत्रालय ने नोटिस थमाया है। वहीं केंद्र सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा भी जेपी ग्रुप के खिलाफ पर्यावरण नियमों का पालन नहीं किए जाने के खिलाफ भी कार्रवाई करने की तैयारी की जा रही है। जबकि जेपी की आठ खदानों को रीवा जिला खनिज कार्यालय द्वारा नोटिस जारी किए गए हैं। विभाग ने चेतावनी दी है कि कंपनी द्वारा अनुबंध की शर्तो का पालन नहीं किए जाने पर कार्रवाई की जा सकती है। जिसमें रायल्टी का भुगतान नहीं होने पर खनन संक्रियाएं प्रतिबंधित किया जाना भी शामिल है।
गौरतलब है कि अफसरों की लापरवाही के कारण प्रदेश के खनिज विभाग को पिछले पांच वर्ष में अरबों रूपए से अधिक का झटका लगा है। यह खुलासा नियंत्रक महालेखापरीक्षक (कैग) की रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट में इस बात का खुलासा किया गया है कि खनिज साधन विभाग द्वारा रॉयल्टी निर्धारण के मामलों की जांच और रॉयल्टी की कम वसूली, अनिवार्य भाटक व ब्याज के अनारोपण के कई मामले प्रकाश में आए हैं। ज्ञातव्य है कि जेपी गु्रप और एसीसी सीमेंट पर 150 करोड़ से अधिक खनिज राजस्व बकाया है। इसके बाद भी मप्र सरकार के उपक्रम राज्य खनिज विकास निगम ने 50 हजार करोड़ के कोयला भंडार वाले सात कोल ब्लॉकों का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट कर लिया था। इस खुलासे के बाद सरकार से लेकर कार्पोरेट हलकों तक हड़कंप मचा हुआ है। कोल ब्लॉक और लाइमस्टोन के प्रास्पेक्टिंग लाइसेंस मिलने के बाद जेपी एसोसिएट ने तो नियमित रायल्टी का भुगतान भी देना बंद कर दिया है।
कर्ज ने बढ़ाया मर्ज
इंफ्रा, सीमेंट, रियल एस्टेट,पावर कोराबार में तेजी से उभरते जेपी ग्रुप ने पिछले 6 साल में सीमेंट और पावर कोराबार में तगड़ा क्षमता विस्तार किया। लेकिन ये क्षमता विस्तार कर्ज के जरिए हुआ है। जिससें ग्रुप भारी भरकम कर्ज में डूबा है और कर्ज कम करने के लिए इसने 2013 में अपना गुजरात का एक सीमेंट प्लांट 3800 करोड़ रुपए में अल्ट्राटेक सीमेंट को बेच दिया है। इससे कंपनी हो हल्की राहत मिली है। जानकारी के अनुसार,पूरे जेपी ग्रुप पर 60,000 करोड़ रुपए का कर्ज है। जेपी ऐसोसिएट के अधिकारियों के अनुसार,कंपनी ने पिछले 6 साल में सीमेंट क्षमता 90 लाख टन से बढ़ाकर 3.35 करोड़ टन कर ली है। पिछले 6 साल में करचम, वांगटू, वास्पा, जैसे बड़े प्रोजेक्टस जोड़े हैं। इनके विस्तार के कारण कंपनी पर कर्ज बढ़ता गया। आज जेपी ग्रुप के सीमेंट कारोबार पर 16,500 करोड़ रुपए का कर्ज, जयप्रकाश पावर पर 23,000 करोड़ रुपए का कर्ज और जेपी इंफ्रा पर 8000 करोड़ रुपए का कर्ज है। वित्त वर्ष 2013 के अंत तक ग्रुप पर 60,283 करोड़ रुपए का कंसोलिडेटेड कर्ज है। वित्त वर्ष 2013 के अंत तक 25,000 करोड़ रुपए का स्टैंडअलोन कर्ज है। हालांकि अल्ट्राटेक सीमेंट के साथ हुए सौदे से कंसोलिडेटेड कर्ज में 6.3 फीसदी और स्टैंडअलोन कर्ज में 15 फीसदी की कमी आई है।
केआर चोकसी सिक्योरिटीज के देवेन चोकसी का कहना है कि जेपी ग्रुप ने कई सेक्टर में कारोबार फैला लिया है। लेकिन इसकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। जेपी ग्रुप का फोकस किसी एक दिशा में नहीं था जिसका नुकसान जेपी एसोसिएट्स, जेपी पावर, जेपी इंफ्रा को हुआ है। जेपी ग्रुप को अपना कर्ज कम करने के लिए कुछ और ऐसेट बेचने होंगे। शायद कंपनी जेपी पावर का प्लांट बेच सकती है। वित्त वर्ष 2014 में जेपी ग्रुप ने कर्ज 15,000 करोड़ रुपए कम करने का लक्ष्य रखा है जिसे हासिल करने के लिए कंपनी को कुछ और ऐसेट बेचने ही होंगे। उनका कहना है कि सीमेंट सेक्टर में अभी लगभग 2 साल तक मंदी की हालत बनी रहेगी जिसके चलते सीमेंट कंपनियों की दिक्कतें बनी रहेंगी। खासकर दक्षिण क्षेत्र में ज्यादा सप्लाई के चलते सीमेंट कंपनियां कम यूटिलाइजेशन पर कारोबार कर रही हैं। इसी के चलते जेपी एसोसिएट्स को अपना गुजरात प्लांट कम वैल्यूएशन पर बेचना पड़ा।
आठ खदानों को नोटिस
उधर, कर्ज में डूबे जेपी ग्रुप पर शिंकजा कसते हुए रीवा जिला खनिज कार्यालय द्वारा जेपी एसोसिएट की आठ खदानों नोटिस जारी किया गया है। खनिज कार्यालय के आंकड़ों के अनुसार जेपी एसोसिएट पर रीवा जिले में करीब 114 करोड़ का खनिज राजस्व बकाया है। जिसमें 22 करोड़ रूपए की नियमित रायल्टी भी शामिल है। जिसका भुगतान पिछले दस माह से नहीं किया जा रहा है। जबकि 80 करोड़ के बकाया राजस्व पर हाईकोर्ट और कमिश्नर कोर्ट का स्टे है। नियमित रायल्टी का भुगतान नहीं होने से विभाग वसूली के लक्ष्य में फिसड्डी हो गया है लिहाजा जेपी एसोसिएट की आठ खदानों को नोटिस जारी कर अनुबंध के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए जवाब मांगा गया है। साथ ही चेतावनी दी गई है कि वह रायल्टी चुकाए या फिर खदानें बंद करे। वरना खदानों की लीज निरस्त किए जाने की प्रक्रिया आरंभ की जाएगी।
रीवा जिला के खनिज अधिकारी आरएन मिश्रा कहते हैं कि जेपी एसोसिएट को रीवा हुजूर तहसील में आवंटित चूना पत्थर की आठ खदानो को नोटिस जारी किया गया है। कंपनी को अनुबंध का उल्लंघन करने पर चेतावनी देते हुए जवाब मांगा गया है। रायल्टी का भुगतान नहीं किए जाने पर अग्रिम कार्यवाई के लिए शासन को लिखा जाएगा। खनिज विभाग के नोटिस के बाद जेपी ग्रुप पर संकट गहरा गया है। रीवा जिले में उसकी 12 खदानों से चूना पत्थर का उत्पादन होता है। जिससे दो सीमेंट प्लांट संचालित किए जा रहे हैं। इनमें से आठ खदानें बंद कराए जाने से सीमेंट का उत्पादन प्रभावित हो सकता है। कंपनी की मुश्किलें भारत सरकार के कोयला मंत्रालय ने भी बढ़ा रखी हैं। इंटर मिनिस्ट्रियल ग्रुप(आईएमजी) की अनुशंसा पर उसे आवंटित मंडला नार्थ कोल ब्लॉक के साथ ही मप्र खनिज विकास निगम के ज्वाइंट वेंचर वाले तीन और कोल ब्लॉक्स अमिलिया नार्थ, डोंगरी ताल-2 एवं मंडला साउथ को विकसित नहीं किए जाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किया जा चुका है।
7 माह से रॉयल्टी नहीं दे रहा जेपी
उधर 50 हजार करोड़ रूपए के कोल ब्लॉक का तोहफा पाने वाली बकायादार कंपनियों जेपी एसोसिएट और एसीसी सीमेंट की खनिज विभाग ने रिपोर्ट तलब की है। दोनों कंपनियों पर सरकार ने रीवा और कटनी के खनिज अधिकारियों को बकाया राशि का ब्योरा देने के निर्देश दिए हैं। खनिज विभाग की रिपोर्ट बताती है कि जेपी द्वारा जुलाई 2013 से अब तक रॉयल्टी के रूप में एक रूपए का भी भुगतान नहीं किया गया है। लिहाजा उस पर नियमित रॉयल्टी की राशि बढ़कर साढे 22 करोड़ रूपए से ऊपर की हो गई है। इससे पहले जून 2013 में भी मासिक रॉयल्टी की बकाया राशि 3 करोड़ 59 लाख रूपए में से मात्र 74 लाख रूपए का भुगतान किया था। जेपी ग्रुप को लूट की खुली छूट करीब नौ माह से रायल्टी का भुगतान नहीं कर रहे जेपी एसोसिएट पर बकाया राशि बढ़कर 115 करोड़ रूपए से अधिक हो गई है। यह आंकडे तो केवल रीवा जिले के हैं। सतना और सीधी जिले में भी उस पर 15 करोड़ से अधिक की रकम बकाया है। तीन कोल ब्लॉक तो उसके कब्जे में हैं हीं साथ ही बिना रायल्टी का भुगतान किए कंपनी द्वारा व्यापक पैमाने पर रीवा, सतना और सीधी जिले में चूना पत्थर व अन्य खनिज का खनन कर चार सीमेंट फैक्ट्रियां संचालित कर रहा है। जिनमें हर माह अरबों रूपए की सीमेंट का उत्पादन हो रहा है। सरकार ने उसे लूट की खुली छूट दे रखी है।
बकाए के बावजुद लाइमस्टोन पैकेज भी
करोड़ों की बकायादार कंपनी जेपी एसोसिएट पर राज्य सरकार की एक और मेहरबानी सामने आई है। करीब 38 हजार करोड़ रूपए के मूल्य के कोल भंडार वाले तीन कोल ब्लॉकों का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट किए जाने के साथ ही 2500 हेक्टेयर का लाइमस्टोन पैकेज भी थमा दिया है। गौरतलब है कि जेपी एसोसिएट द्वारा रीवा, सीधी और सतना जिले मेे चार सीमेंट प्लांटों का संचालन किया जा रहा है। लेकिन कंपनी द्वारा रायल्टी सहित अन्य खनिज राजस्व का भुगतान रोक दिया है। जिससे बकाया राशि बढ़कर 124 करोड़ से ऊपर पहुंच गई है। इसके बाद भी मप्र सरकार के उपक्रम खनिज विकास निगम द्वारा करीब 380 मिलियन टन कोल भंडार वाले तीन कोल ब्लॉकों का पार्टनर बनाकर ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट कर लिया। निगम की ही तर्ज पर राज्य सरकार के खनिज विभाग ने भी जेपी एसोसिएट पर खासी मेहरबानी दिखाई और सतना जिले में 2500 हेक्टेयर से भी अधिक लाइमस्टोन के भंडार का प्रास्पेक्टिंग लाइसेंस जारी कर दिया। सतना जिले के रामनगर तहसील की भूमियों के जारी किए गए लाइसेंस के बाद जेपी एसोसिएट ने कथित तौर पर प्रास्पेक्टिंग का काम पूरा कर लिया और अब उसके द्वारा जमीन अधिग्रहण शुरू करते हुए माइनिंग लीज की प्रक्रिया शुरू कर दी है। कोल ब्लॉक के एग्रीमेंट के लिए जेपी एसोसिएट के एमडी सनी गौड़ द्वारा बकाया राशि जमा करने के लिए जो अंडरटेकिंग दी गई थी। उसमें लाइमस्टोन के प्रास्पेक्टिंग लाइसेस के लिए भी आग्रह किया गया था। कंपनी ने वादा किया था कि कोल ब्लॉक सहित लाइमस्टोन की पीएल मिलने के बाद जुलाई 2013 तक सभी खनिज राजस्व बकाया पटा दिया जाएगा। लेकिन कोल ब्लॉक का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट होने और लाइमस्टोन पीएल मिलने के बाद हाईकोर्ट की शरण ली और बकाया पर स्टे ले लिया।
नियमों को किया दरकिनार
खनिज नियमों के मुताबिक जिस किसी फर्म पर खनिज राजस्व बकाया हो तो उसे पीएल या एमएल ग्रांट नहीं की जा सकती। इससे पहले कंपनी को एनओसी देनी होती है। लेकिन इस नियम को शिथिल करने के लिए अंडरटेकिंग ले ली गई और पीएल आदेश जारी कर दिए गए। जबकि सतना जिले में कंपनी पर 10 करोड़ से अधिक का राजस्व बकाया है। जिला खनिज कार्यालय सतना के अनुसार जेपी एसोसिएट द्वारा जिले के रामनगर तहसील के दो दर्जन से अधिक गांवों के करीब 4200 हेक्टेयर भूमि पर प्रास्पेक्टिंग लाइसेंस जारी करने के लिए आवेदन लगाया था। इन भूमियो के नीचे चूना पत्थर का बड़ा भंडार दबा हुआ है। बाद में अल्ट्राटेक कंपनी और जेपी एसोसिएट के बीच हुए बंटवारे में जेपी ग्रुप को 2500 हेक्टेयर से अधिक का पीएल आदेश जारी किया गया। इस तरह जेपी एसोसिएट का रामनगर तहसील के सगौनी, मचमासी सहित दो दर्जन गांवों के लाइमस्टोन पर कब्जा हो गया है।
बिजली विभाग का 550 करोड़ दबाया
सरकार की मेहरबानियों के कारण जेपी एसोसिएट ने खनिज विभाग के सवा सौ करोड़ रूपए नहीं पटाने के साथ मप्र विद्युत वितरण कंपनी के भी 550 करोड़ रूपए भी दबा लिए हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया, लेकिन बिजली का बकाया बिल नहीं चुकाया। इन सब के बावजुद मप्र खनिज विकास निगम ने पॉवर प्लांट लगाने के नाम पर तीन कोल ब्लॉकों का ज्वाइंट वेंचर एग्रीमेंट कर लिया। सरकार ने इससे एक कदम आगे जाते हुए जेपी गु्रप से पॉवर परचेज एग्रीमेंट करने की मंजूरी भी दे दी। ना तो मप्र विद्युत मंडल ने इस पर आपत्ति जताई और ना ही सरकार ने अपने बकाया की चिंता की।
गौरतलब है कि जेपी एसोसिएट द्वारा नौबस्ता और बेला में दो सीमेंट प्लांटों का संचालन किया जा रहा है, जिनके लिए कंपनी द्वारा मप्र विद्युत मंडल से 36 मेगावाट विद्युत आपूर्ति का अनुबंध किया गया था। लेकिन जब बिल बढऩे लगा तो उसने मंडल से लोड घटाकर 18 मेगावाट किए जाने का अनुरोध किया। तब तक अस्तित्व में आ चुकी मप्र विद्युत वितरण कंपनी ने पिछला बकाया चुकाए बिना ऐसा करने से इनकार कर दिया।
इसी बीच जेपी एसोसिएट ने कैप्टिव पॉवर प्लांट स्थापित कर बिजली कंपनी के बकाया 550 करोड़ से अधिक से पल्ला झाड़ लिया, क्योंकि उसे बिजली कंपनी से बिजली खरीदने की जरूरत नहीं बची थी। अनुबंध के उल्लंघन और बकाया राशि जमा कराने के लिए बिजली कंपनी ने हाई कोर्ट में याचिका लगाई। इसके विरूद्ध जेपी एसोसिएट ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बिजली कंपनी ने जेपी एसोसिएट को दिए गए सभी कनेक्शन काट दिए लेकिन उसके 550 करोड़ अब तक जमा नहीं हुए। इस मामले में जेपी एसोसिएट का कहना है कि उसके लिखित आग्रह के बाद भी लोड नहीं घटाया गया और कैप्टिव पॉवर प्लांट लगाने के बाद जब उसे बिजली की जरूरत नहीं थी तब भी बिजली कंपनी ने बिल लगाया। तो मप्र विद्युत वितरण कंपनी रीवा के अधीक्षण यंत्री एआर वर्मा का तर्क है कि कनेक्शन कटवाने के लिए पहले जेपी एसोसिएट को पुराना बकाया चुकाना चाहिए था।

एसीएस की रेवड़ी बांट कर फंसी सरकार

12 की जगह 13 आईएएस को बनाया एसीएस
अब रावला ने बढ़ाई सरकार की चिंता
भोपाल। मप्र में शिवराज सरकार की हैट्रिक का जितना श्रेय मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता को दिया जा रहा है, उतने की ही भागीदार प्रदेश की नौकरशाही भी कही जा रही है। मुख्यमंत्री को लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचाने वाली योजनाएं बनाने से लेकर इन्हें क्रियान्वित करने के वाले प्रदेश के नौकरशाहों की पीठ भी खुद मुख्यमंत्री थपथपा चुके हैं। सरकार के प्रति आईएएस अधिकारियों के समर्पण का ही परिणाम है की नियमों को ताक पर रखकर प्रमोशन की रेवडिय़ां बांटी जा रही है। जिसका परिणाम यह हुआ है कि जहां प्रदेश में 12 एसीएस होने चाहिए,वहीं 13 बना दिए गए हैं। और हालात यह हैं कि प्रदेश की एक और वरिष्ठ अधिकारी केंद्र से प्रतिनियुक्ति से वापस आ रही हैं। वह एसीएस पद के लिए पात्र हैं। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या सरकार किसी जूनियर को रिवर्ट करेगी? केंद्र में सचिव के पद पर पदस्थ 1982 बैच की आईएएस अधिकारी स्वर्णमाला रावला इस माह प्रदेश वापस आने वाली हैं। यदि वह वापस आती हैं तो उन्हें एसीएस बनाना होगा। ऐसे में पहले से ही एक अधिक एसीएस का बोझ ढो रही सरकार की चिंता बढ़ गई है। उल्लेखनीय है कि सीएस वेतनमान के आईएएस संवर्ग में 6 पद स्वीकृत है और छह नॉन कैडर पदों पर अफसरों को प्रमोट अथवा पदस्थ किया जा सकता है, लेकिन हाल ही में 1982 बैच के आईएएस राकेश अग्रवाल और एसआर मोहंती को प्रमोशन देते समय एसीएस कैडर में पदस्थ अफसरों की संख्या 13 हो गई है। यानी एक अफसर ज्यादा एसीएस बन चुके हैं। ऐसे में रावला की प्रदेश वापसी सरकार की मुसीबत बढ़ा सकती है। वर्तमान में सीएस वेतनमान का एक भी पद रिक्त नहीं है, बल्कि एसीएस के पद पर हाल ही में राकेश अग्रवाल और मोहंती को पदोन्नति दी गई है। अग्रवाल के लिए पद रिक्त था, मगर मोहंती को प्रमोशन एसीएस उद्योग पीके दाश के रिटायरमेंट के कारण पद खाली होने की स्थिति में दिया गया है। यानी एसीएस के एक पद पर सरकार छह महीने तक ही किसी अफसर को रख सकती है। केंद्र सरकार में भारी उद्योग मंत्रालय सचिव स्वर्णमाला रावला का कार्यकाल समाप्त हो गया है। वे केंद्र सरकार में 11 अक्टूबर, 2006 से प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ हैं और उनके इस महीने मप्र लौटने की संभावना है। वैसे रावला के रिटायरमेंट में अभी डेढ़ साल से ज्यादा समय है, लेकिन उनकी मप्र में वापसी होने पर सरकार को उन्हें एसीएस के पद पर पदस्थ करना होगा। सीएस एन्टोनी डिसा से एक क्रम नीचे रावला को महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सरकार को देनी पड़ेगी, लेकिन मप्र में आईएएस कैडर में एसीएस का एक भी पद खाली नहीं है। छह माह तक पदस्थ रख सकती है सरकार एसीएस अथवा पीएस के पदों पर सरकार अतिरिक्त रूप से ज्यादा से ज्यादा छह महीने ही पदस्थ रख सकती है और उसके लिए केंद्र से अनुमति लेने के बाद। मोहंती को अप्रैल में रिटायर हो रहे एसीएस उद्योग पीके दाश के स्थान पर प्रमोशन दिया गया है। यदि रावला केंद्र से लौटती हैं, तो एसीएस स्तर के मप्र में दो अतिरिक्त अधिकारी हो जाएंगे, जिससे सरकार और अन्य एसीएस के अफसरों की दिक्कतें बढ़ सकती हैं, क्योंकि फिर सरकार को एक अफसर को रिवर्ट करना पड़ सकता है, यानी एसीएस से पीएस बनाना होगा। क्या रिवर्ट होंगी सुरंजना 1982 बैच में सबसे जूनियर सुरंजना रे हैं और सीनियर के पदस्थ होने पर जूनियर को ही रिवर्ट किया जा सकता है, जिससे सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं। सुपर सीनियर केंद्र में मप्र में प्रशासन की कमान कैडर में बीच के अफसरों के हाथों में है। कैडर के अधिकांश सीनियर अफसर लंबे समय से केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ हैं और कई महत्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रशासनिक मुखिया हैं। कैडर के सबसे सीनियर अधिकारी 1976 बैच के सुमित बोस केंद्रीय वित्त मंत्रालय के सचिव हैं। 1977 बैच के ओपी रावत, विश्वपति त्रिवेदी, पदमवीर सिंह, 1979 बैच के राजन एस. कटोच, विमल जुल्का, स्नेहलता कुमार भी केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर हैं। इनके अलावा कई बैचों के अधिकारी भी प्रतिनियुक्ति पर गए हैं। इस साल रिटायर होंगे 21 आईएएस इस मप्र कॉडर के 21 आईएएस अधिकारी रिटायर होंगे। विश्वपति त्रिवेदी, आभा अस्थाना, ओपी रावत रिटायर हो चुके हैं। जनवरी में जेटी एक्का, केपी सिंह और फरवरी में पदमवीर सिंह रिटायर हुए। सुमित बोस,जीपी कबीरपंथी मार्च में, पीके दाश अपै्रल में, महेंद्र ज्ञानी मई में, एसके वैद्य,प्रदीप खरे जुलाई में, अमिता शर्मा,अशोक कुमार शिवहरे,निलंबित अधिकारी टीनू जोशी अगस्त में, योगेंद्र शर्मा,अरूण भट्ट,राजकुमारी खन्ना, दिलीप सामंतरे सितंबर में, अरविंद जोशी नवंबर में रिटायर,व्हीएस निरंजन दिसंबर में होंगे। प्रमोटियों के भरोसे राज्य सरकार प्रदेश में विभागों की प्रशासनिक कमान तो सीधी भर्ती के आईएएस अधिकारियों के हाथों में संभागों और जिलों का प्रशासन प्रमोटी आईएएस अफसर संभाल रहे हैं। प्रदेश के दस संभागों में केवल दो संभागों इंदौर और जबलपुर में ही सीधी भती के आईएएस कमिश्नर हैं। इंदौर में संजय दुबे और जबलपुर में अभिलाष खांडेकर कमिश्नर हैं। बाकी के आठ संभागों में प्रमोटी अफसर कमिश्नर हैं। इसी तरह 51 में से 28 जिलों के कलेक्टर राज्य प्रशासनिक सेवा के प्रमोटी अफसर हैं। मुख्यमंत्री के गृह जिले सीहोर सहित सागर, धार, झाबुआ, रतलाम, रीवा, विदिशा आदि जिलों की कमान तक प्रमोटी आईएएस अधिकारी के हाथों में है। प्रदेश में 98 आईएएस की कमी इस बीच उल्लेखनीय तथ्य यह है कि प्रदेश में आईएएस अफसरों का जबर्दस्त टोटा है। दस- बीस नहीं 98 आईएएस अफसरों की कमी मप्र में है। मप्र कैडर में वर्तमान में 417 पद हैं। इनमें से 302 पद भरे हुए हैं। 115 पद अब भी खाली हैं। हालांकि इनमें वे 17 आईएएस अधिकारी शामिल हैं जो हाल ही राज्य प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नत किए गए हैं। यदि इन्हें भी शामिल कर लिया तो कैडर में अब भी 98 अफसरों की कमी है। मप्र कॉडर के 302 आईएएस अफसरों में से भी तीन अधिकारी, अरविंद जोशी, टीनू जोशी और शशि कर्णावत सस्पेंड हैं। शेष बचे अफसरों में से करीब 40 अफसर केंद्र सरकार में प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ हैं। इस तरह प्रदेश में केवल 259 आईएएस अफसर काम कर रहे हैं। जो अफसर प्रदेश में काम कर रहे हैं उनमें से 56 अफसर सबसे जूनियर हैं। ये अफसर 2009 से लेकर 2012 बैच के हैं।