vinod upadhyay

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गुरुवार, 6 मार्च 2014

अवैध खदानों से हर साल 20,000 करोड़ का धंधा

एनजीटी के अनुसार प्रदेश की एक भी रेत खदान लीगल नहीं !
भोपाल। मध्य प्रदेश में नर्मदा, चंबल, बेतवा, केन और बेनगंगा आदि बड़ी नदियों के साथ ही अन्य नदियों में जितनी रेत खदानें हैं,वह सभी अवैध हैं। इन खदानों के संचालन में न तो एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल)के नियमों का पालन हो रहा है और न ही प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के मापदंडों का पालन हो रहा है। नियमों को दरकिनार नदियों का कलेजा चीर कर माफिया सालाना 20,000 करोड़ का अवैध धंधा कर रहा है जबकि सरकार को मासिक केवल 70 करोड़ की आय हो रही है। मध्यप्रदेश में रेत खदानें सोना उगलती हैं। इसलिए इस कारोबार में माफिया सबसे अधिक सक्रिय है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि रेत खनन का वैध तरीके से कम अवैध रूप से अधिक चल रहा है। किसी के पास वैधानिक मंजूरी नहीं है। जो खदान चल रहीं हैं उनके पास पर्यावरण मंजूरी नहीं है। प्रशासन अनजान बन रहा है और अवैध उत्खनन खुलेआम जारी है। जबकि वन एवं पर्यावरण मंत्रालय दिसंबर माह में ही माइनिंग के लिए नई गाइडलाइन जारी कर चुका है। मप्र प्रदूषण बोर्ड का दावा है कि प्रदेश में जितनी भी रेत खदान चल रही है उनमें से अधिकांश के पास पर्यावरण मंजूरी नहीं है। बिना मंजूरी के सभी खदान अवैध हैं। प्रशासन को भी खदान आवंटन से पहले पर्यावरण मंजूरी की जानकारी लेना चाहिए था। रेत के अवैध उत्खनन, अबैध भण्डारण व ओव्हरलोड परिवहन के कारण नदियों की सभी स्वीकृत रेत खदानों का 90 प्रतिशत रेत पूरी तरह समाप्त हो चुका है। खनन माफिया ऐसे स्थानों से रेत का उत्खनन कर रहे है, जहां खदान स्वीकृत नहीं है। इससे नर्मदा, चंबल, बेतवा, केन,बेनगंगा आदि नदियों के हालात खनन के कारण गंभीर हैं।
10 सालों में तेजी से बढ़ा कारोबार
मध्यप्रदेश में खनन कारोबार का पिछले दस सालों में इस कदर विस्तार हुआ है कि राज्य के हर हिस्से में खदानों का खनन हो रहा था जिसके चलते अवैध उत्खनन का ग्राफ बढ़ गया है। माफिया ने अपने पैर फैला लिए है। अवैध उत्खनन की बार-बार बढऩे की शिकायतें के बाद अब केंद्र सरकार ने खदानों की अनुमति लेने की शर्त केंद्र से अनिवार्य कर दी है। इसके चलते खनन कारोबारी घबरा गए हैं। मप्र का खनिज विभाग भी विचलित है।
नई गाइडलाइन में क्या
वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने पिछले साल 24 दिसंबर को गाइडलाइन जारी की है। जिसकी प्रति प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड के पास भी भेजी गई। उसमें बिना पर्यावरण मंजूरी के कोई भी रेत खदान नहीं चलने की बात कही गई है। इसके अलावा 5 हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल की कोई भी रेत खदान का अब संचालन नहीं होगा। यह नियम 2006 से पूर्व आवंटित खदानों पर लागू नहीं होगा। लेकिन करीब दो माह का समय बीतने के बाद भी नियमों का पालन नहीं हो रहा है।
खदान व्यवसायियों पर मेहरबान सरकार
राज्य सरकार खदान व्यवसायियों पर मेहरबान नजर आ रही है। इसी कारण 2011 में भू-राजस्व संहिता 1959 में हुए संशोधन के बाद कृषि भूमि के अन्य उपयोग के लिए डायवर्सन का जो प्रस्ताव तैयार हुआ था, उसे अंतिम रूप देने की बजाय उसकी दरों में भारी कटौती कर दी गई। हाल ही में मुख्य सचिव अंटोनी जेसी डिसा की अध्यक्षता में हुई उच्च स्तरीय सचिव समिति की बैठक में नए कानून में खदान व्यवसायियों के लिए प्रस्तावित की गई दरों में कटौती की गई है। खनन कारोबारी इस कदर राज्य में ताकतवर हो गये हैं कि उनसे खनन विभाग अरबों की वसूली नहीं कर पा रहा है। इसके चलते खनिज विभाग को हर साल करोड़ों की चपत पर चपत लग रही है। दूसरी ओर अवैध उत्खनन का कारोबार थमा नहीं है। इस पर नकेल कसने के लिए केंद्र सरकार ने अब खनन की अनुमति की अनिवार्य शर्त तय कर दी है जिसके तहत केंद्र सरकार से अनुमति लेनी पड़ेगी, तभी खनन से उत्खनन शुरू होगा। इसके चलते खनन कारोबारी विचलित हो गये हैं और उनके दबाव में राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दिया है।
नई शर्त से खनन कारोबार प्रभावित
प्रदेश में फैला खनन का कारोबार केंद्रीय अनुमति की अनिवार्यता की नई शर्त की वजह से ठप होने की कगार पर है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में राज्य सरकार की अपील खारिज हो जाने से प्रदेश में जहां खनन के नए लीज प्रकरणों में केंद्रीय अनुमति अनिवार्य कर दी गई है, वहीं पहले से चल रही खदानों पर भी नियम प्रभावशील माना जाएगा। एनजीटी की इस शर्त से प्रदेश में चल रही खदानों को अब केंद्रीय अनुमति मिलने तक बंद रखना होगा। राज्य सरकार की अपील खारिज करने के साथ ही एनजीटी ने साफ किया है कि जब तक केंद्र की तरफ से गठित स्टेट इनवॉयरमेंट इंपेक्ट असेसमेंट अथॉरिटी नवीन एवं पूर्व स्वीकृत प्रोजेक्ट पर मुहर नहीं लगा देती तब तक किसी भी प्रकार का खनन उत्पादन कानून के विरूद्व माना जाएगा।
नौ हजार खदाने प्रभावित
प्रदेश ने वित्तीय वर्ष 2013-14 के लिए प्रदेश में लगभग 9 हजार खनन प्रोजेक्ट पर लीज स्वीकृत कर रख है। इनमें विभिन्न किस्म के खनिजों की 8 हजार 500 खदानों का संचालन खनिज संसाधन एवं भौमिक विभाग द्वारा किया जा रहा है, जबकि रेत की 425 छोटी-बड़ी रेत खदानों का संचालन एमपी स्टेट मायनिंग कार्पोरेशन की ओर से किया जा रहा है। इन सभी मायनिंग प्रोजेक्ट में राज्य सरकार ने अपने प्रावधानों के अनुरूप लीज अनुमति स्वीकृत कर रखी है। एनजीटी में दायर याचिका में भी सरकार ने यही पक्ष रखा था, ट्रिब्यूनल ने इसे नाकाफी माना। एनजीटी के मुताबिक खनन लीज जारी करने से पूर्व अब हर प्रकरण में केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय सहित स्टेट इनवॉयरमेंट इंपेक्ट असेसमेंट अथॉरिटी से अनुमति लेना अनिवार्य रहेगी।
सुप्रीम गई मप्र सरकार
एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) द्वारा सभी प्रकार के खनिज उत्खनन के लिये पर्यावरणीय एनओसी अनिवार्य किए जाने के बाद अब राज्य सरकार एनजीटी के आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चली गई है। राज्य सरकार का तर्क है कि एनजीटी के इस आदेश से राज्य सरकार को जहां करोड़ों रुपए के राजस्व की हानि होगी, वहीं अवैध खनन को बढ़ावा भी मिलेगा। सूत्रों के अनुसार राज्य सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपील में सरकार ने 5 एकड़ तक की गौण खनिज की खदानों को पर्यावरणीय एनओसी से मुक्त रखने का आग्रह किया है। राज्य सरकार का कहना है कि मध्यप्रदेश में गौण खनिज की छोटी-छोटी खदानों की संख्या अधिक है तथा राज्य सरकार को खनिज मद में सबसे ज्यादा राजस्व इंहीं खदानों से प्राप्त होता है। सरकार के अनुसार यदि छोटी खदानों के लिये भी एनओसी अनिवार्य कर दी जाती है तो खदान संचालक खदानें ही बंद कर देंगे तथा फिर यह अवैध रूप से खनन करेंगे, जिससे इनसे प्राप्त होने वाले करोड़ों रुपए के राजस्व से सरकार को वंचित होना पड़ेगा।
28 जिलों में है एकछत्र राज
प्रदेश में करीब 28 जिलों में तो खनन माफियाओं का एकछत्र राज है। इन पर न तो सरकार हाथ डाल पा रही है और न ही जिम्मेदार अधिकारी। खनिज विभाग के अफसर तो इनकी जानकारी देना तो दूर किसी प्रकार मुंह खोलने को भी तैयार नहीं होते। यही वजह है कि कई जिलों में अवैध उत्खनन के मामले में खनन माफियाओं पर लगाए गए अर्थदंड के अरबों रूपए वसूल नहीं हो पा रहे हैं। अकेले मंडला एवं सीहोर जिले में ही 1300 करोड़ रूपए का अर्थदंड खनन माफिया से वसूलने में प्रशासन नाकाम साबित हुआ है। हालत यह है कि प्रदेश के तकरीबन सभी जिलों में 50 से 100 प्रकरण लंबित हैं, जिसमें खनन माफिया पर कोई कार्यवाही नहीं हो सकी है। छतरपुर, रीवा, ग्वालियर में 100 से अधिक प्रकरण लंबित हैं, जबकि जबलपुर, बालाघाट, डिंडोरी, पन्ना, टीकमगढ़, सतना, सीहोर, रायसेन और देवास जिले में करीब 50 से 100 के बीच अवैध उत्खनन के प्रकरण लंबित हैं। वहीं अन्य जिलों में पचास से कम हैं। मजबूरी में वर्ष 2012 में राज्य सरकार को प्रदेश के सभी कलेक्टरों को सख्त पत्र लिखकर जुर्माने की वसूली एवं प्रकरण दर्ज करने के आदेश जारी करने पड़े, लेकिन खनिज संसाधन विभाग के मंत्रालय द्वारा जारी प्रमुख सचिव के पत्र का भी इन अफसरों पर खास असर नहीं हुआ है।
बंद होंगी 1600 रेत खदान
केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) के नए आदेश ने मध्य प्रदेश सरकार को रेत खनन के मोर्चे पर बड़ी परेशानी खड़ी कर दी है। इसमें पांच हैक्टेयर से छोटी रेत खदानों को पर्यावरण स्वीकृति के दायरे से बाहर कर दिया गया है। इसके चलते प्रदेश की पांच हैक्टेयर से छोटी करीब 1600 रेत खदानों को बंद करने की तैयारी की जा रही है। केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के इस आदेश में प्रदेश रेत खनन कारोबारियेां में हड़कंप का माहौल है। मध्य प्रदेश में बड़ी-छोटी सभी मिलाकर कुल 17,72 रेत खदानें है। इसमें 1,600 रेत खदानें पांच हैक्टेयर से छोटी है। इसमें से करीब 6,00 खदानें तो मध्य प्रदेश स्टेट माइनिंग कॉरपोरेशन की हैं। कॉरपोरेशन को सबसे बड़ी आमदनी रेत खदानों के माध्यम से होती है। छोटी खदानें बंद होने से उसकी आमदनी पर विपरीत असर भी पड़ेगा।
खदानों पर एक स्थिति :
1700 अवैध उत्खनन के प्रकरण लंबित
1890 करोड़ का अर्थदंड राजस्व न्यायालयों में
200 से अधिक प्रकरण लंबित बैतूल जिले में।
कहां कितना बकाया:
जिले रूपये (करोड़ में)
जबलपुर - 163
कटनी - 06
पन्ना - 06
छतरपुर - 45
सतना - 10
हरदा - 26
बैतूल - 21
उमरिया - 16
खरगौन - 13
देवास - 39
नदियों में डायइनामाइट लगाकर धमाका
प्रदेश में रेत माफिया इतने ताकतवर हो गए है कि वह नर्मदा, चंबल, बेतवा,केल, बेनगंगा आदि नदियों में डायइनामाइट लगाकर धमाका करने लगे हैं। इन धमाकों से नदियों के आस-पास की चट्टाने दरक रही हैं, लेकिन प्रशासन के कानों तक यह आवाज नहीं पहुंच पाती। यही कारण है प्रतिदिन दर्जनों ट्रैक्टर ट्रॉली पत्थर नदियों से निकाला जा रहा है।
पत्थर तोडऩे के लिए पेड़ चढ़ रहे बलि
नदियों में पत्थर निकालने के कारण नदियों के आस-पास ही हरियाली भी गायब हो रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि पत्थर तुड़ाई करने से पहले पत्थर की चट्टानों के आस-पास या नीचे आग चलाकर उन्हे गर्म किया जाता है। ऐसा करने से पत्थर की नमी कम हो जाती है और गर्म होने के कारण आसानी से टूट जाता है। पत्थर को गर्म करने के लिए मजदूर नदी किनारे के पेड़ों को काट रहे हैं। जिन नदियों के किनारे हरियाली व बड़े पेड़ थे वह भी गायब हो गए। सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान हो रहा है, लेकिन प्रशासन ने इस ओर कभी सोचा ही नहीं।
घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा
प्रदेश में खनिज और रेत माफियाओं के कारण वनों और नदियों के साथ ही जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। प्रदेश में अब बाघों के बाद घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रदेश का एक और अभ्यारण्य समाप्त होने की कगार पर है। वैसे तो प्रदेश का हर जिला ही अवैध उत्खनन का शिकार है, मगर दो दर्जन जिले तो बेहद संवेदनशील हैं।
मध्य प्रदेश का पन्ना तथा छतरपुर प्रशासन ने जिले में रेत की खुदाई पर रोक लगा दी है लेकिन इससे अवैध उत्खनन रूकने वाला नहीं है क्योंकि यहां की कानून व्यवस्था ही माफिया के हाथों में गिरवी पड़ी है। अब प्रदेश में माफिया का दुस्शाहस इतना बढ़ गया है कि अगर कोई भी इनकी राह में बाधा बनेगा उसे मौत के घाट उतारने में इन्हें देर नहीं लगेगी। माफिया के काएण विंध्य क्षेत्र की सोन नदी के तट पर बने घडिय़ाल अभ्यारण्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी। इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है। प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है।
सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में सोन नदी की विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए मध्य प्रदेश शासन के आदेश से 23 सितम्बर 1981 को स्थापित किया गया था। इस अभ्यारण्य का उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 10 नवम्बर 1981 को किया गया था। अभ्यारण्य का कुल क्षेत्रफल 209.21 किमी का है। इसमें सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल जिले में प्रवाहित होने वाली सोन नदी के साथ गोपद एवं बनास नदी का कुछ क्षेत्र भी शामिल है। सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य नदियों के दोनों ओर 200 मीटर की परिधि समेत 418.42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित घोषित है। उस समय के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में मगरमच्छ और घडिय़ालों की कुल संख्या 13 बताई गई थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी। क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों के अनुसार इस क्षेत्र में घडिय़ालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और उसका प्रमुख कारण सोन नदी के तट पर अनधिकृत रूप से कार्यरत रेत माफिया हैं।
रेत माफिया के अवैध संग्रहण के कारण मगरमच्छ और घडिय़ाल सोन नदी से करीब बसाहट वाले गांव में घुसकर जानवरों और ग्रामीणों को शिकार बना रहे हैं। स्थानीय लोगों के अनुसार प्रतिवर्ष 40 से 50 लोग घडिय़ालों के हमले का शिकार होकर यहां आते है, जिनमें से कुछ को तो बचा लिया जाता है पर कई लोग अकाल मौत का भी शिकार हो जाते हैं। रेत माफिया सोन नदी से अवैध रूप से उत्खनन करने के लिए नदी को लगातार खोदने का काम करता है, परिणामत: पानी में होने वाली लगातार हलचल के परिणाम स्वरूप घडिय़ालों के लिए निर्मित किए गये इस प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आता है। मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी। इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है। प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है। रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है। सूत्रों की मानें तो भारत शासन द्वारा घडिय़ाल अभ्यारण्य में खर्च की जाने वाली राशि फर्जी बिल बाउचर्स के जरिए वन अधिकारियों एवं स्थानीय अधिकारियों के निजी खजाने में जा रही है। सोन नदी के जोगदाह पुल से कुछ आगे रेत का अवैध उत्खनन व्हील बना हुआ है, जहां से रेत माफिया इस क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं।
सोन घडिय़ाल के प्रभारी संचालक ने बताया कि 200 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र के लिए केवल 13 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध है। मगरमच्छ एवं घडिय़ालों की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख रूपये का बजट आवंटित किया जाता है। अब तक तकरीबन 250 मगरमच्छ एवं घडिय़ालों के बच्चे संरक्षित क्षेत्र में छोड़े गए हैं, जिनकी संख्या अब लगभग 150 के करीब है। उल्लेखनीय है कि चंबल सेंचुरी क्षेत्र में दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में डायनाशोर प्रजाति के इन घडिय़ालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडिय़ाल किसी किताब का हिस्सा न बनकर रह जाएं।

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