vinod upadhyay

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गुरुवार, 6 मार्च 2014

राजनीति में पूर्व नौकरशाहों की बढ़ती भागीदारी

मध्यप्रदेश में नौकरशाहों की ऐसी बड़ी फौज हमेशा रही है जिनकी दिलचस्पी अपने प्रशासनिक कामकाज से ज्यादा राजनेताओं को राजनीतिक सलाह देने में रहती है। प्रदेश में बीते दो दशकों के दौरान नौकरशाहों के बढ़ते दबदबे के बीच अफसर शाहों का राजनीति प्रेम उन्हें राजनीतिक दलों की तरफ खींचने लगा है। पिछले तीन दशकों में देखा जाए तो मध्यप्रदेश के जिलों में कलेक्टर सबसे बड़े नेता समझे जाते हैं। देश में सबसे अहम पीएम (प्रधानमंत्री) और सीएम (मुख्यमंत्री) की कहावत का विस्तार डीएम (डिस्ट्रक्ट मजिस्ट्रेट) तक हो गया है। प्रधानमंत्री सचिवालय में कार्यरत पुलिस महानिदेशक स्तर के अफसर यशोवर्धन आजाद जब सागर के पुलिस अधीक्षक थे तो कांग्रेसी विधायक से उनकी बहस हो गई थी। तब बिहार के मुख्यमंत्री भगवत झा आजाद के इस बेटे ने उन्हें यह कहकर चुप करा दिया था कि वे विधायक बन सकते हैं लेकिन वे (विधायक) आईपीएस नहीं बन सकते। बहरहाल, हकीकत तो यह है कि दिग्विजय सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल में नौकरशाहों की महत्ता सबसे ज्यादा बढ़ी। इस कदर कि बड़े और अहम जिलों के कलेक्टरों से वे सुबह रोज सीधे बात करके जिलों का राजनीतिक फीडबैक लिया करते थे। वे कलेक्टरों को उनके नाम और सरनेम के साथ क्वहायÓ करके बात करते थे। दिग्गी राजा के राज में तो दलित अफसरों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा उफान पर थी। उनकी कोर मंडली के कई अफसर कांग्रेस के साथ बसपा के साथ पींगे बढ़ाते रहे। दिग्गी को 2003 में दलित एजेंडा के फेर मे उलझा दिया। जाहिर है कि ऐसे अनुकूल हालात ने अफसरों की राजनीतिक हसरतों को बढ़ाने का काम खूब किया। हालांकि इसके पहले अजीत जोगी के मन में राजनीति के बीज तभी अंकुरित होने लगे थे जब वे सीधी में कलेक्टर थे। जोगी खुद बताते हैं कि उस वक्त सीधी जिले में अर्जुन सिंह के गृह जिले में सबसे कड़ी चुनौती उस दौर के दिग्गज नेता चंद्रप्रताप तिवारी से मिलती थी। जोगी इन दोनों राजनीतिक प्रतिद्बंदियों के बीच सेतु का काम करते-करते राजनीति की एबीसीडी तभी सीख गए थे। बाद में उन्होंने कलेक्टरी छोड़कर राज्यसभा के जरिए राजनीति के मैदान में प्रवेश लिया था। यदि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की राजनीति में सबसे कामयाब अफसरों की बात की जाए तो जोगी ही सबसे ऊपर माने जाएंगे जो लोकसभा चुनावों में हारने और जीतने के बावजूद मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। वैसे जोगी के पहले नौकरी छोड़कर राजनीति के अखाड़े में कूदने वालों में पद्म भूषण एमएन बुच रहे हैं। उनकी अर्जुन सिंह से नजदीकियां किसी से छुपी नहीं रहीं। बहुत कम लोगों को पता है कि भोपाल के नए इलाके के एक बाजार का नाम बिटृन मार्केट किसी और के नाम पर नहीं, बल्कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की पत्नी सरोज सिंह के क्वनिकनेमÓ पर रखा था। लेकिन उन्होंने किसी राजनीतिक दल का दामन थामने के बजाए 1984 के लोकसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर चुनाव लड़ा। हालांकि कि इंदिरा गांधी की शहादत से उपजी लहर के बावजूद उन्होंने एक लाख वोट हासिल किए। 1976 बैच के एक और समाजसेवी स्वभाव के चिंतक अफसर थे अजय सिंह यादव। उन्हें आईएएस की नौकरी रास नहीं आई तो 1997 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी। समाजसेवा करते हुए 1999 में उन्होंने भोपाल से निर्दलीय चुनाव भी लड़ा। पिछले साल ही उनका असमायिक निधन हो चुका है। दिग्गी राजा ने तो अपने दलित नौकरशाहों का इस्तेमाल 1998 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी से चुनावों में रणनीतिक साझेदारी करने में किया। हालांकि इसका खामियाजा बसपा ने 2003 के चुनाव में भुगता और वह दो सीटों पर सिमट गई। दिग्गी राजा के राज में मान दाहिमा ने उज्जैन से कांग्रेस का लोकसभा टिकट पाने के लिए खूब जोर लगाया। लेकिन दिग्गी राजा के ज्यादातर दलित अफसरों का अनुराग बसपा के प्रति ही बना रहा। केवल भागीरथ प्रसाद ही ऐसे आईएएस अफसर थे जो पिछले चुनाव में भिंड लोकसभा से कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े लेकिन हार गए। डॉ. भागीरथ प्रसाद इस बार भिंड जिले की गोहद सीट से विधानसभा का चुनाव लडऩे की दावेदारी जता रहे हैं। जहां ज्यादातर दलित अफसरों का झुकाव कांग्रेस और बसपा की तरफ रहा है, वहीं बेहद ईमानदार और कड़क छवि वाले मध्यप्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक सुभाष चंद्र त्रिपाठी ने पिछले चुनाव के वक्त बसपा का दामन थामकर सबको चौंकाया था। हालांकि त्रिपाठी ने सत्ता की राजनीति के बजाए खुद को संगठन और समाजसेवा तक सीमित कर रखा है। त्रिपाठी ने बसपा सुप्रीमो मायावती के सबसे करीबी सतीश चंद्र मिश्रा के कारण बसपा में कदम रखा था। मध्यप्रदेश में अजीत जोगी के बाद जो अफसर राजनीति के मैदान में उतरे वे थे रिटायर्ड आईएएस अफसर सुशील चंद्र वर्मा। 1977 में जनता पार्टी के शासन के दौरान प्रदेश के मुख्य सचिव रहे सुशील चंद्र वर्मा को भाजपा ने 1989 में शामिल कराया। वर्मा लगातार तीन बार भोपाल से सांसद भी चुने गए लेकिन वर्मा भाजपा में लंबी संसदीय पारी खेलने के बावजूद राजनेताओं से ज्यादा क्वमिक्स अपÓ नहीं हो सके। छह अक्तूबर 2011 को छत से गिरकर उनकी मौत हो गई। भाजपा में वर्मा के बाद सबसे ज्यादा कामयाब रहने वाले अफसर थे। रुस्तम सिंह। राज्य पुलिस सेवा से पदोन्नत होकर आईजी के ओहदे तक पहुंचे रुस्तम सिंह को उमा भारती ने भाजपा में प्रवेश कराया और उन्हें मुरैना से विधानसभा चुनाव में उतारा। दरअसल भाजपा के पास तब तक कोई प्रभावी गुर्जर नेता नहीं था। इसके चलते ग्वालियर और चंबल संभाग के गूजर समुदाय में बने कांग्रेसी किलों में कोई सेंधमारी नहीं कर पा रहा था। लेकिन रुस्तम सिंह के कंधों पर बैठकर भाजपा ने गुर्जर बहुल मुरैना विधानसभा चुनाव में धमाकेदार जीत दर्ज कराई। उमा भारती ने रुस्तम सिंह को काबीना में सीधे कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ दिलाकर उन्हें पूरे सम्मान से नवाजा। हालांकि रुस्तम सिंह 2008 में अपनी जीत को दोहरा नहीं सके। बावजूद इसके गुर्जर समाज में पैठ बनाने की खातिर रुस्तम सिंह को पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष बनाकर कैबिनेट मंत्री के दर्जे से नवाजा गया। रुस्तम सिंह के पहले भारतीय पुलिस सेवा के मप्र कैडर के आईपीएस अफसर पन्नालाल ने भी 2003 में देवास जिले की सोनकच्छ सीट से अपनी किस्मत आजमाई थी लेकिन मौजूदा कांग्रेसी सांसद सज्जन सिंह वर्मा से वे कड़े मुकाबले में चुनाव हार गए थे। पन्नालाल ने पिछले चुनाव में शाजापुर जिले की आगर सुरक्षित सीट से टिकट की कोशिश की थी लेकिन उन्हें कामयाबी नहीं मिली। पन्नालाल के बाद दलित समाज से झुड़े एक रिटायर्ड आईपीएस अफसर आरसी छारी ने भाजपा की सदस्यता ली। वे चुनाव तो नहीं लड़े, लेकिन मुरैना में उनके समाज के वोट जुटाने में भाजपा ने छारी की मदद जरू र ली। भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक और अफसर एसएस उप्पल ने रिटायर्ड होने के बाद भाजपा का पल्लू थामा। पर वे सत्ता की राजनीति के बजाए संगठन की सेवा कर रहे हैं। इस बार विस चुनाव के पहले भारतीय पुलिस सेवा के एक अफसर हरीसिंह यादव रिटायरमेंट के तीन माह पहले नौकरी से तौबा कर भाजपा के साथ हो लिए। वीरता पदक पा चुके हरीसिंह ने दतिया जिले कीसेवढ़ा विधानसभा सीट से टिकट की आस में रिटायर होने से पहले नौकरी छोड़ी है। छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी मुख्यमंत्री बने थे तो उनके सलाहकारों में दो पूर्व आईपीएस अफसर थे आरएलएस यादव और रामलाल वर्मा। हालांकि उनकी पारी सलाहकार से आगे राजनीति में तब्दील नहीं हो सकी। अजीत जोगी की 2003 में भाजपा के हाथों करारी हार के बाद उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं परवान नहीं चढ़ सकी। विभाजन के बाद छत्तीसगढ़ कैडर में शरीक हो चुके सरगुजा के मूल निवासी पुलिस महानिदेशक रैंक के अफसर वासुदेव दुबे ने 2008 के चुनाव में सिंगरौली से चुनाव लडऩे की कवायद की थी, लेकिन तब पार्टी ने अफसर के बजाए पेशेवर राजनीतिज्ञ रामलल्लू वैश्य पर भरोसा जताया। वैश्य सिंगरौली के महापौर बनने के बाद विधायक बने। वासुदेव दुबे की तरह दिग्गी राजा के करीबी रहे मप्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक अयोध्यानाथ पाठक की भी राजनीतिक हसरतें परवान नहीं चढ़ सकीं। पाठक वैसे तो बिहार के हैं, लेकिन उन्होंने पुलिस कप्?तानी के दौरान ग्वालियर चंबल में खासी लोकप्रियता हासिल की थी। वे इसी इलाके से टिकट के तलबगार थे।
समाजसेवा में भी पीछे नहीं हैं अफसर
मध्यप्रदेश में राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले अफसरों से इतर देखा जाए तो आईएएस की नौकरी से रिटायरमेंट या फिर नौकरी छोड़कर समाज सेवा में जुटने वाले अफसरों की भी लंबी फेहरिश्त है। एमएन बुच की भाजपा में पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा नगरीय विकास मंत्री बाबूलाल गौर से भी अच्छी दोस्ती रही है लेकिन उन्होंने राजनीति के बजाए एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) के जरिए समाजसेवा के विकल्प को चुना। आईएएस रहते या नेता बनकर उन्हें वह सम्मान नहीं मिलता जो उन्हें आज मिल रहा है। 2011 में केंद्र सरकार ने उन्हें पद्म भूषण के सम्मान से नवाजा है। ब्रह्मदत्त शर्मा तो काफी पहले नौकरी छोड़ चुके हैं और अब भी वे यह काम कर रहे हैं। पिछले साल ही सुकमा के कलेक्टर एलेक्स पाल को जब नक्सलियों ने अगवा किया तो उनकी रिहाई में मध्यस्थ की अहम भूमिका एमएन बुच की पत्नी के निर्मला बुच के साथ ब्रह्मदेव शर्मा ने ही निभाई थी। हर्ष मंदर भी मध्यप्रदेश के ऐसे आईएएस अफसर रहे हैं जिन्होंने अखिल भारतीय सेवा जैसी महत्वपूर्ण नौकरी को तिलांजलि देकर समाजसेवा का रास्ता अपनाया। मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे शरतचंद्र बेहार को दिग्विजय सिंह का बेहद करीबी माना जाता है। वे भी एनजीओ से जुड़े रहे हैं। उन्होंने मुख्य सचिव रहते हुए नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर और सरकार के बीच सेतु की भूमिका कई दफे निभाई थी, तो एकता परिषद के सुब्बाराव को साधने का काम भी उन्होंने सरकार के लिए बखूबी किया।
सियासी डगर पर नौकरशाह
राजनेताओं ने चुनाव जीतने के लिए बाहुबलियों और सरकार चलाने के लिए नौकरशाहों का निजी हित में उपयोग शुरू किया था तब उन्हें इस बात का इलहाम नहीं रहा होगा कि सियासत के सपोर्टिंग ये एक्टर-बाहुबली और नौकरशाह खुद राजनेताओं को बेदखल कर राजनीति की रपटीली डगर पर कुलांचे भरने लगेंगे। वर्ष 1990 के दौरान बूथ लूटने और बूथ कैप्चरिंग के मार्फत अपने चहेते नेता के सिर विजय मुकुट बांधने का काम करने वाले बाहुबलियों के दिमाग में यह घर कर गया कि वे कब तक क्वएक्स पार्टीÓ का रोल अदा करते रहेंगे। नतीजतन, उन्होंने भी माननीय बनने के अपने सपनों को पंख देना शुरू कर दिया। तकरीबन दो-ढाई दशकों में यह चलन कहां तक पहुंचा है उसे इसी से समझा जा सकता है हर राजनीतिक दल बाहुबलियों से किनारा करने को लेकर स्यापा तो पीटता है पर किसी में इनसे छुट्टी पाने की ताकत नहीं है। कुछ इसी तर्ज पर कभी राजनेताओं के क्वसपोर्टिंग ग्रुपÓ के रूप में काम करने वाले नौकरशाहों ने भी अपनी स्थिति तैयार करनी शुरू कर दी है। सरकार चलाने में नेताओं की मदद करने वाले नौकरशाहों ने राजनेताओं से पहले निजी ताल्लुक बनाए फिर इस क्वटाइम टेस्टेडÓ नौकरशाही ने खुद सियासत की डगर पकड़ ली।
सूबे के चतुर सुजान नौकरशाहों ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की क्वशासन सटकÓ अवधारणा को पीछे छोड़ दिया है। इसका अहसास राजनीति में उनकी बढ़ती दखल से हो रहा है। हालांकि कुछ लोगों का मानना है कि सूबे की नौकरशाही पूरी तरह राजनीतिक खेमों में बंट गई है। अभी चुनावी रणभेरी बजने में भले ही पांच-छह महीने का समय हो पर सूबे के राजनीतिक दलों में इन दिनों अचानक सेवानिवृत्त नौकरशाहों की आमद-रफ्त बढ़ गई है। अपने राजनीतिक आकाओं की मदद से कल के नौकरशाह आने वाले कल के राजनेता बनने की तैयारी में हैं। उत्तर प्रदेश में इन दिनों राजनीति का जादू नौकरशाहों के सिर चढ़ कर इस तरह बोल रहा है कि अगर उन्हें बड़े राजनीतिक दलों में पनाह नहीं मिल पाई तो छोटे दलों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आशियाना बना लिया है।
सत्यपाल सिंह : बीते 24 जनवरी को उत्तर प्रदेश के स्थापना दिवस पर मुंबई में आयोजित एक उत्तर भारतीय सम्मेलन के मंच पर मुंबई के पुलिस आयुक्त सत्यपाल सिंह कार्यक्रम खत्म होने के ठीक एक-डेढ़ मिनट पहले पहुंचे। पर डेढ़ मिनट के ही अपने भाषण में उन्होंने मजमा लूट लिया। भाषण देकर उतरते समय इस संवाददाता ने उनसे कहा था, क्वमैं किसी पुलिस वाले को नहीं राजनेता को सुन रहा था क्या, सतपाल सिंह बोले नहीं, मैं बचपन से अच्छा बोलता हूं। उन्हें तंज भी कसा गया कि आम पुलिसवालों की तरह आप भी कार्यक्रम में देर से आए जबकि सुना जाता है कि मुंबई पुलिस बड़ी मुस्तैद है। उस समय वहां उपस्थित सतपाल सिंह को छोड़कर किसी को इलहाम नहीं रहा होगा कि पुलिस महकमे का यह तेजतर्रार अफसर जल्दी ही खाकी से खादी की ओर बढऩे वाला है। सतपाल सिंह ने जिस समय खादी पहनने का मन बनाया उस समय देश नरेंद्र मोदी के उभार के जुनून में था और उप्र के बागपत निवासी सत्यपाल सिंह उसी जुनून का एक बड़ा हिस्सा बन चुके थे।
महाराष्ट्र में शरद पवार की एनसीपी और विचारधारा के स्तर पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले सत्यपाल सिंह बीस साल से ज्यादा महाराष्ट्र के कई प्रमुख पदों पर रहे। नक्सल प्रभावित इलाकों में काम करते हुए उन्होंने ख्याति अर्जित की। रालोद अध्यक्ष अजित सिंह के निकट रिश्तेदार सत्यपाल सिंह ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के बाद कहा, क्वमैं राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सौहार्द और विश्व शांति के लिए काम करना चाहता हूं। किसी राजनीतिक पार्टी से जुडऩे के बारे में अभी कोई निर्णय नहीं लिया है। पर हकीकत यह है कि 24 जनवरी से पहले ही सत्यपाल सिंह की मुलाकात भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह और पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी से हो चुकी थी। सत्यपाल सिंह ने बीते जाड़े के दिनों में लोगों को कंबल बांटने सरीखे कई सामाजिक कार्यों की भी बागपत और मेरठ में शुरुआत कर दी थी। बीते एक-दो सालों से उनका अपने गांव में आना-जाना भी बढ़ गया था। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि राजनीतिक की डगर पकडऩे का उनका फैसला इत्तिफाकन था। भाजपा से वह बागपत से अजित सिंह के खिलाफ उम्मीदवार होंगे। हालांकि उनके लिए मेरठ और गाजियाबाद की सीट भी कम सुरक्षित नहीं है।
पीएल पुनिया : उत्तर प्रदेश में इन दिनों कांग्रेस के सांसद और अनुसूचित जाति व जनजाति के अध्यक्ष पन्ना लाल पुनिया नौकरशाहों के रोल मॉडल हैं। यह पुनिया के हुनर का ही तकाजा है कि सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती भले ही नदी की धारा के दो ऐसे किनारे हों जिनका मिलना असंभव हो, पर पुनिया समानांतर चलने वाली इन धाराओं को साध कर खासे प्रिय बन बैठे। यह उनका राजनीतिक कौशल ही है कि मायावती और मुलायम पर लगातार हमला करने वाली कांग्रेस ने उन्हें सिर-माथे बिठा रखा है। उनकी राजनीतिक पारी अच्छी चल रही है। बाराबंकी में विधानसभा चुनाव हारने के ठीक दूसरे दिन ही पुनिया मतदाताओं के बीच जा धमके थे। उनके राजनीतिक कौशल का ही कमाल था कि वर्षों के घुटे राजनेता बेनी प्रसाद वर्मा को भी नाको चने चबाने पड़े। वह कहते हैं कि यह सेवानिवृत्ति के बाद की पारी नहीं, मेरा नया जन्म है। पुनिया ने इसे साबित भी किया। वह सूबे के इकलौते नौकरशाह हैं जिन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद रिटायर्ड आईएएस अफसर लिखकर अपने अतीत को कंधे पर नहीं बिठाया। पुनिया इसे फख्र से बताते भी हैं। मायावती और मुलायम से सीखी गई राजनीतिक इबारत का ही तकाजा है कि उनका अनुभव उम्र को पीछे छोड़ जाता है। बाढ़ की आपदा हो या और कोई सुख-दुख का मौका, हर जगह सधे हुए राजनेता की मानिंद उपस्थित रहना उनकी दिनचर्या का हिस्सा है। वह कहते हैं, क्वएक दिन में मैंने 38 शादियां अटेंड की। मैं शादी वाले घरों में पहुंचा तो लोग सो चुके थे। मैंने जगा कर न्योता दिया।Ó पुनिया बताते हैं कि अधिकारी अपनी क्वपोजीशन ऑफ अथॉरिटी से काम करता है। राजनीति में दूसरे से मांगना होता है। याचना करके जनता का भला करना होता है। अधिकारी की पूंछ लपेटे रहने वाले कामयाब नहीं हो सकते हैं।
अहमद हसन : लंबे समय से विधानपरिषद में समाजवादी पार्टी की कमान संभाल रहे पीपीएस से प्रोन्नति पाए आईपीएस अफसर रहे अहमद हसन भी सेवानिवृत्त नौकरशाहों में शुमार हैं। पार्टी की ओर से उन्हें काबीना मंत्री तो बनाया ही गया है। पार्टी का अल्पसंख्यक चेहरा कहे जाने वाले आजम खान जब-जब नाराज होते हैं तो विकल्प के तौर पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की आसपास की कुर्सियों पर अहमद हसन को देखा जा सकता है। लेकिन अहमद हसन पार्टी में पराक्रम नहीं, परिक्रमा का संदेश देते हैं। पार्टी उन्हें भले ही दस-पंद्रह सालों से प्रोजेक्ट कर रही हो पर अब भी पुनिया की तरह नौकरशाह का लबादा उतार कर फेंकने की स्थिति में वह नहीं हैं। यही वजह है कि आम लोगों को तो छोडि़ए, खास लोगों का भी उनसे मिलना मुश्किल है। हालांकि इसका नुकसान भी पार्टी को गाहे-बगाहे उठाना पड़ा है। शुरूआती दौर में सूचना आयुक्तों की सूची में अहमद हसन ने एक ऐसा नाम शामिल करा दिया था जिससे न केवल सरकार की किरकिरी हुई, बल्कि पूरी की पूरी सूची को रद्द करना पड़ा। जो बड़ी मुश्किल के बाद जारी हो पायी। अपने दल के नेता मुलायम सिंह यादव के जिले इटावा में चार साल तक पुलिस कप्तान के पद पर तैनात रहे अहमद हसन का मुलायम से उसी दौरान ऐसा लगाव हुआ कि 31 जनवरी, 1992 को सेवानिवृत्ति हुए अहमद हसन को मुलायम ने दो साल बाद अपनी सरकार में अल्पसंख्यक विभाग का मुखिया बना दिया। अहमद हसन जब गोरखपुर के डीआईजी पद पर तैनात थे तो उन्हीं दिनों एक बड़े एनकाउंटर में एक तेज तर्रार दरोगा काल-कवलित हो गया। हालांकि इस मुठभेड़ की जांच के आदेश भी उन्होंने दिए थे, पर नतीजे आज तक किसी को पता नहीं हैं।
हरिश्चन्द्ग : 33 साल की नौकरी में 49 बार तबादला, विभिन्न सरकारों में ढाई साल तक तैनाती की प्रतीक्षा और निलंबन। वजह वह क्रांतिकारी कार्यशैली जिसमें अपने सरकारी अफसर को भी जेल भेजने में गुरेज नहीं। सूबे के प्रमुख आईएएस अधिकारियों में शुमार रहे हरिश्चंद्ग का सेवा निवृत्ति के बाद राजनीति में आने का मकसद एमपी, एमएलए बनने के बजाय व्यवस्था में आमूल चूल परिवर्तन है। राजनीतिक दलों के दोमुंहÞपन से निराश होकर 14 अप्रैल 2008 में क्वराष्ट्रीय जनवादी पार्टी क्रांतिकारीÓका गठन किया। अब लोकसभा चुनाव में ताकत दिखाने की तैयारी है लेकिन राजनीतिक दलों ने जो भ्रष्टाचार का बीज बोया है वह चुनावी राजनीति को मुश्किल बना रहा है। वह कहते हैं कि कांग्रेस, बसपा, सपा और भाजपा सभी सरकारों को मैंने देखा है। इसी वजह से अलग दल बनाने का फैसला किया। जो लोग क्रांतिकारी विचार रखते हैं उन्हें एकजुट करने में लगा हूं।
यशपाल सिंह : राज्य के पूर्व पुलिस महानिदेशक रहे यशपाल सिंह, पूर्व आईएएस अधिकारी रमाशंकर सिंह ही नहीं और एसपी आर्या ने भी पीस पार्टी की शरण ली। हालांकि यशपाल की पत्नी गीता सिंह ने उनके नौकरी में रहने के दौरान ही सपा की राजनीति शुरू कर दी थी। सपा से वह विधायक भी हो गई थीं। उनके चुनाव के दौरान यशपाल सिंह उप्र के पुलिस महानिदेशक थे। विपक्षी दलों की शिकायत पर उन्हें पद छोडऩा पड़ा था। लेकिन यशपाल सिंह को सपा की साइकिल सिर्फ इसलिए रास नहीं आई, क्योंकि उसने उनकी पत्नी का टिकट काटकर दौड़ से बाहर कर दिया था। नतीजतन, यशपाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उन्हें पीस पार्टी का झंडा उठाने को मजबूर कर दिया। वह दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी बने। वह बताते थे कि राजनीति में सिर्फ जनसेवा के लिए आए हैं। इसलिए सेवानिवृत्ति के बाद घर बैठने के बजाय राजनीति का कठिन मार्ग चुना पर छह-सात महीने में उनका अनुभव बड़ा अजीब रहा। अब वह कहते हैं,क्वअफसर के तौर पर कार्य संस्कृति और राजनीतिक संस्कृति बिल्कुल भिन्न है। राजनीतिक संस्कृति में रहना कठिन भी है। नौकरी में हमेशा मेरिट को प्रोन्नति मिलती है। राजनीति में ऐसा नहीं है। यहां जो आपका सुप्रीमो है, वह मेरिट के बजाए चापलूसी और क्वकनिंगनेसÓ पर जोर देता है। योग्य लोगों से घबराता है। यहां भेडिय़ा धंसान है।Ó
बाबा हरदेव : राज्य सिविल सेवा संवर्ग के अध्यक्ष के पद पर लंबे समय तक रहने वाले नौकरशाह बाबा हरदेव सिंह राष्ट्रीय लोकदल में राजनीतिक पारी खेल रहे हैं। रालोद के प्रदेश अध्यक्ष रहे हरदेव सिंह ने आगरा के एत्मादपुर विधानसभा सीट से पिछले विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई पर भला नहीं हो सका। राजनीति में अच्छे लोगों को जरूरी बताने वाले हरदेव सिंह अब मानते हैं कि राजनीति अच्छे लोगों को नहीं रहने देती। राजनीति और ब्यूरोक्रेसी जाति-पांत में उलझ गई है। वाराणसी निर्वाचन क्षेत्र से राजनीतिक पारी की शुरुआत भी अच्छी नहीं रही। अब उन्हें इलहाम होने लगा है कि वह राजनीति को कुछ-कुछ समझने लगे हैं।
एसपी आर्या : सेवानिवृत्त आईएएस अफसर और पीस पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव एसपी आर्या हालांकि यह मानते हैं कि राजनीति हमारे देश की संवैधानिक व्यवस्था है। इसमें अच्छे व खराब दोनों ही व्यक्ति हैं। मैं राजनीति को खराब इसलिए नहीं कहूंगा क्योंकि 35 साल के कार्यकाल में मेरा किसी राजनेता से झगड़ा नहीं हुआ। मुझमें राजनीति के कोई गुण-सूत्र नहीं थे।
रमाशंकर सिंह : पीस पार्टी के एक दूसरे राष्ट्रीय महासचिव रमाशंकर सिंह भी आईएएस की नौकरी से रिटायर हुए हैं। वह कहते हैं, क्वनौकरी के दौरान मैंने यह पाया कि उस समय नीतियां तो बनीं थीं, लेकिन वह नीतियां ईमानदार नहीं थीं। गरीबों की गरीबी दूर करने के लिए सार्थक प्रयास नहीं किए गए। देश दो भागों में बंट गया है। एक इंडिया है और दूसरा भारत।Ó उनका मानना है कि कोई भी बदलाव नई जगह से लाया जा सकता है। इसीलिए पीस पार्टी को चुना।
महेंद्र सिंह यादव : प्रदेश की मुख्य सचिव रहीं नीरा यादव के पति महेंद्र सिंह यादव भी आईपीएस अधिकारी थे। 1996 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर राजनीतिक पारी शुरू करने का मन बनाया। इस महत्वाकांक्षा के लिए उन्हें भाजपा सबसे मुफीद लगी। 1996 और 2002 में वह भाजपा के टिकट पर बुलंदशहर से विधायक बने। भाजपा व बसपा के गठबंधन वाली कल्याण सिंह सरकार में शिक्षा मंत्री रहे। दिलचस्प यह रहा कि उस समय उनकी पत्नी इसी महकमे की प्रमुख सचिव थीं। लेकिन भाजपा में महेंद्र सिंह लंबी पारी नहीं खेल सके। 2007 में मुलायम की सपा से चुनाव लड़े और चुनाव हार गए। 2009 में उनका सपा से मोहभंग हुआ। राजनाथ सिंह का साथ लेकर दोबारा भाजपा की शरण ली। लेकिन एक साल बाद ही कमल को रौंदकर 2010 में रालोद में चले गए। नोएडा आवास घोटाले में उनकी पत्नी का नाम आने और सजा सुनाए जाने के बाद वह राजनीति से दूरी बनाए हुए हैं।
आरके सिंह : आरके सिंह भी नौकरी के बाद राजनीति करने वाले 1973 बैच के आईएएस अधिकारियों में शुमार हैं। हालांकि उन्होंने आईपीएस यशपाल सिंह के नक्शे कदम पर चलते हुए अपनी पत्नी ओमवती को नौकरी के दौरान ही राजनीति की डगर पकड़ा दी थी। जिस पर चलकर वह मंत्री भी बनीं। हालांकि ओमवती ने 1985 में कांग्रेस से राजनीति शुरू की थी। पर मंत्री मायावती सरकार में बनीं। वह सपा से विधायक और सांसद भी रहीं। अपनी पत्नी के हर चुनाव में छुट्टी लेकर आरके सिंह चुनाव प्रचार भी करते थे। नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद आरके सिंह बसपा के टिकट पर नगीना से लोकसभा का चुनाव लड़े। जहां सपा के यशवीर सिंह धोबी से हार गए। हालांकि उनकी हार की वजह उनके कंधे से अफसरी का चोला न उतर पाना बताई जाती है। वे चुनाव जरूर हारे, लेकिन उनकी पत्नी बसपा मंत्रिमंडल में बरकरार रहीं। पिछले महीने उन्होंने अपने हाथ में कमल थाम लिया है।
राय सिंह : पद पर रहते हुए राजनीति का चस्का लगने वाले अधिकारियों में राय सिंह का नाम भी शुमार है। सूबे के वरिष्ठ अधिकारी रहे राय सिंह उन लोगों में हैं जिन्हें उप्र में कांशीराम के साथ बहुजन समाज पार्टी खड़ी करने में मददगार माना जाता है। पहली बार जब मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं तब शपथ ग्रहण समारोह में आईएएस अधिकारी रहे राय सिंह कांशीराम के ठीक बगल में बैठे थे। बामसेफ के लिए भी उन्होंने काम किया। उनकी पत्नी राजरानी सिंह राज्य सरकार में मंत्री भी रहीं। यह बात दीगर है कि राय सिंह लंबे समय तक बसपा की राजनीति में जगह नहीं बनाए रख सके और कांशीराम के निधन के बाद उनकी इस कदर छुट्टी हुई कि उन्हें अपनी सियासी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का दामन थामना पड़ा।
ओम पाठक : सूबे में नौकरी छोड़कर राजनीति की डगर पकडऩे वालों में आईएएस ओम पाठक का नाम भी सुर्खियों में हैं। लखनऊ के जिलाधिकारी का पद छोड़कर अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर भाग्य आजमाने वाले ओम पाठक को कोई सियासी कामयाबी हासिल नहीं हुई । उन्होंने अफसरी के रसूख से अलग होने के बाद शिक्षण संस्थाओं पर इस कदर ध्यान केंद्रित किया कि नोएडा और देहरादून में उनके जाने-माने दो विद्यालय हैं।
गंगाराम : मंडलायुक्त पद से सेवानिवृत्ति के बाद 1984 में कांग्रेस की लहर में फिरोजाबाद से मैनपुरी निवासी गंगाराम को लोकसभा तक पहुंचने का मौका मिला था। केंद्र सरकार में सचिव रहे आगरा के डॉ चंद्रपाल भी आदर्श समाज पार्टी बनाकर कई सालों से राजनीति करने की कोशिश कर रहे हैं।
प्रभु दयाल श्रीवास : नौकरी में रहते हुए बसपा के मददगारों में शुमार प्रोन्नति पाए आईएएस अधिकारी प्रभु दयाल श्रीवास को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने के लिए हाथ का साथ मुफीद लगा। हालांकि इसके पहले उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद की खातिर अपने लिए जो ताना-बाना बुना था। वह स्वयंसेवी संगठन का था। जिसके तहत उन्होंने एक विद्यालय भी खोल रखा है। श्रीवास अपने जीवन का ध्येय वाक्य बयान करते हैं -सुख शीतल करूं संसार। वह बताते हैं कि सरकारी नौकरी के दौरान गांव में चौपाल लगाता था। सेवानिवृत्ति के बाद सोचने लगा कि समाज को असली फायदा राजनीति से ही मिल सकता है। अगर कांग्रेस ने मौका दिया तो जनता के बीच जाकर किस्मत आजमाएंगे।
दिवाकर त्रिपाठी : लखनऊ के मेयर के चुनाव में अपना भाग्य आजमाने की हसरत लिए हुए प्रोन्नति प्राप्त आईएएस अधिकारी दिवाकर त्रिपाठी अपनी राजनीतिक पारी सपा के साथ खेलने के सपने बुन रहे थे। पर परवान नहीं चढी पाया। दिवाकर अब बताते हैं, क्वराजनीति में दिलचस्पी नहीं थी। सत्ता केंद्र के कई साल तक निकट रहने की वजह से मुझे राजनीति के विभिन्न पहलुओं को करीब से देखने का मौका मिला। मेयर के चुनाव में हिस्सा लेने की सोची। लखनऊ शहर के विकास का एक विजन है। मेयर बनने पर मैं उसे पूरा कर सकता था। अब वह फैसले पर पहुंच गए हैं कि राजनीति में दुनिया की गंदगी बढ़ गई है। इसमें दस-बीस मुखौटे लगाने वाले लोग हैं। जमीर को मारकर ऊंचा उठना घाटे का सौदा है। इसलिए हमने राजनीति का दरवाजा नहीं खटखटाया।
देवी दयाल : वर्ष 2001 में नौकरशाही से विदा लेने वाले सेवानिवृत्त आईएएस अफसर देवी दयाल को प्रशासनिक और वित्त क्षेत्र का 36 साल का अनुभव है। 1966 बैच के उत्तर प्रदेश काडर के आईएएस अधिकारी देवी दयाल कहते हैं कि वह 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से प्रभावित होकर कांग्रेस में आए। बकौल देवीदयाल हिंदुस्तान की तरक्की और देश की जनता की भलाई को प्राथमिकता देने की सोनिया गांधी की सोच ने बरबस मेरा ध्यान कांग्रेस की ओर खींचा। देवीदयाल यह कहना नहीं भूलते कि राजनीति शरीफ लोगों के लिए नहीं है। साथ ही यह भी नसीहत देते हैं कि सभी शरीफ आदमी राजनीति से किनारा कर लेंगे तो राजनीति साफ-सुथरी कैसे रहेगी। देवीदयाल इस बात से संतुष्ट दिखते हैं कि पार्टी ने हमेशा उन पर विश्वास किया। 2004 में खुर्जा सुरक्षित सीट और 2009 में बुलंदशहर सुरक्षित सीट से टिकट दिया लेकिन सफल न हो सके।
डॉ. बीपी नीलरत्न : पिछले साल दिसंबर में पीसीडीएफ के एमडी पद से सेवानिवृत्त हुए डॉ. बीपी नीलरत्न ने सेवानिवृत्ति के चार माह बाद कांग्रेसी मंच से सियासी पारी शुरू की। वह कहते हैं कि अफसरी के दौरान ही उनका मकसद आम लोगों के दुख-दर्द कम करने की कोशिश करता था। राजनीति में भी उसी रास्ते चल रहा हूं। वह बताते हैं कि राजनीति में पैसा कमाने या लाल बत्ती का सुख भोगने नहीं आया, अगर आम लोगों के दुख-दर्द कम कर सका तो समझूंगा कि राजनीति में आना सफल रहा।
जगन्नाथ सिंह : चित्रकूट और झांसी जिले के डीएम रहे जगन्नाथ सिंह को लोकसभा का चुनाव लडऩे का ख्याल कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी की पहल से आया। बकौल जगन्नाथ सिंह राहुल ने उन्हें कांग्रेस का प्रत्याशी बनाने का फैसला किया था लेकिन कांग्रेस के एक बड़े नेता ने उन्हें कांग्रेस की लिस्ट से बाहर करा दिया। बाद मंव एल के आडवाणी ने भी उन्हें चुनाव मैदान में भेजने का फैसला किया लेकिन पार्टी की राजनीति ने इसे भी परवान नहीं चढ़ ने दिया। थक-हार कर जगन्नाथ सिंह निर्दलीय लोकसभा चुनाव में मैदान में उतरे। दस हजार लोगों ने वोट दिया। वह कहते हैं कि राजनीति इतनी टेढ़ी और चालबाज हो चुकी है कि अब उनके जैसे लोग इसमें रह नहीं सकते। छल-कपट और धोखा मुमकिन नहीं है इसलिए अब निजी स्तर पर समाजसेवा के कामों को पूरा कर रहे हैं।
उदित राज : मायावती के दलित कार्ड का जवाब और राम विलास पासवान की पासी राजनीति की तर्ज पर उप्र में दलित मतदाताओं के बीच अपनी जगह बनाने के लिए उदित राज भारतीय वित्त सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति हासिल करने के बाद इंडियन जस्टिस पार्टी के मार्फत सीधे सुप्रीमो बन बैठे और कई राज्यों में राजनीतिक दलों की बेचैनी बढ़ाने में कामयाब रहे। दलितों और पिछड़ों के उत्थान को राजनीतिक एजेंडा बनाने वाले उदित राज का नजरिया बेहद साफ है। उनका कहना है कि सरकारी नौकरी में रहकर समाज परिवर्तन का काम करना मुमकिन नहीं था। इस वजह से ही उन्होंने नौकरी से बाहर होना बेहतर समझा। दरअसल सरकारी नौकरी में रहकर सरकारी कानून और नियमों का पालन करना होता है। लेकिन जब कानून और नियम ही नए बनाने हों, पुराने को खारिज करना हो तो नौकरी में यह कैसे मुमकिन है। इसलिए राजनीतिक संगठन का निर्माण किया। काम जारी है लेकिन मौजूदा राजनीति को कालेधन ने निगल लिया है। सांप्रदायिकता से बड़ा जहर कालाधन है।
एसके वर्मा : हाल ही में नौकरी से छुट्टी पाने के बाद अपनी सियासी पारी खेलने वालों में प्रोन्नति प्राप्त सेवानिवृत्त आईएएस एसके वर्मा का भी नाम है। कमल का साथ देना वह अपनी आत्मा की आवाज बताते हुए कल्याण और राजनाथ सिंह के प्रभाव का जिक्र करने से नहीं चूकते हैं। वह बताते हैं कि समाजसेवा के लिए एक प्लेटफार्म चाहिए था। उसके लिए हमने राजनीति की डगर चुनी है।
रामेंद्र त्रिपाठी : समाजवादी पार्टी का दामन थामने वाले प्रोन्नति प्राप्त आईएएस अफसर रामेंद्र त्रिपाठी को पार्टी ने देवरिया से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया था। हालांकि उनका टिकट काट दिया गया है। किशन पटनायक की अध्यक्षता वाली समाजवादी युवजन सभा की राष्ट्रीय समिति में शामिल रहने का जिक्र करते हुए डॉ. राम मनोहर लोहिया के साथ व्यक्तिगत जुड़ाव की चर्चा करना वह नहीं भूलते।
डीबी राय : उप्र में 1992 में अयोध्या कांड के दौरान पुलिस कप्तान रहे डीबी राय भी उन अफसरों में शुमार हैं जिन्होंने नौकरी छोड़ते ही राजनीति की डगर पकड़ ली। डीबी राय सुलतानपुर से भाजपा के टिकट पर दो बार सांसद चुने गए।
श्रीश चंद्र दीक्षित : कहा जाता है कि एक समय अयोध्या आंदोलन के दौरान वीएचपी अध्यक्ष अशोक सिंघल को अयोध्या तक पहुंच पाने में श्रीश चंद्र दीक्षित (सूबे के पुलिस महानिदेशक रहे) की मदद के इनाम के तौर पर ही उन्हें भाजपा ने टिकट दिया और बनारस की जनता ने भी उन्हें दो बार इनाम देते हुए संसद तक पहुंचाया। अशोक सिंघल के भाई बीपी सिंघल भी नौकरशाही से राजनीति की डगर पकडऩे वालों में शुमार रहे हैं। उप्र में आईजी रहे बीपी सिंघल मुरादाबाद से भाजपा से लोकसभा पहुंचे और बाद में राज्यसभा में भी उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा किया।
तपेंद्र प्रसाद : प्रोन्नत होकर आईएएस बने तपेंद्र प्रसाद का वीआरएस लेकर सपा में शामिल होते ही प्रशासनिक सुधार विभाग में सलाहकार बनाया जाना अबूझ पहेली ही है। वह खुद को मेजा क्षेत्र का बताते हैं। वहां के लोग भी उनको नहीं जानते। ऐसे में उनका सपा के हित में क्या उपयोग यह यक्ष प्रश्न सुलझाने में इलाकायी सपाई सर खपा रहे हैं। प्रोन्नति प्राप्त आईपीएस अफसर राम भरोसे ने भी भाजपा की सदस्यता राजनीतिक पारी के लिए ग्रहण की।

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