vinod upadhyay

vinod upadhyay

शनिवार, 2 जुलाई 2016

कुम्बले बनेंगे क्रिकेट के द्रोणाचार्य

ऐसा क्या है जो अनिल कुंबले को सबसे ज्यादा सम्माननीय और प्रेरणादायी भारतीय खिलाड़ी की पहचान दिलाता है सम्मान के ये तमगे हैं- फिरोजशाह कोटला में 74 रन देकर दस विकेट लेना या वह नेतृत्व- जो विवादास्पद मंकीगेट सीरीज के दौरान उन्होंने ऑस्ट्रेलिया में दिया था या वह जज्बा- जो उन्होंने एंटीगा (2002) में जबड़ा टूटा होने के बावजूद गेंदबाजी करते हुए दिखाया था? तो जवाब है ऊपर दिए ये सभी। इस सबमें यह भी शामिल कर लीजिए कि उन्होंने अपने सम्मान और त्याग को टीम के हित से ऊपर कभी नहीं रखा। कोई यह कैसे भूल सकता है कि उन्हें उनके करियर के एकमात्र वर्ल्डकप फाइनल में नहीं खिलाया गया (ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध, जोहानेसबर्ग 2003)। या, विदेशों में खेले गए दर्जनों टेस्ट में टीम के कप्तान ने कुंबले के बजाए उनके जूनियर हरभजन को एकमात्र स्पिनर के रूप में टीम में चुना। सौरव गांगुली ही थे, जिन्होंने कप्तान के रूप में ये कड़े फैसले लिए और फिर भी वे कुंबले को जेंटलमैन कहते हैं क्योंकि उन्होंने कभी निजी मनमुटाव को सामने नहीं आने दिया। गांगुली कहते हैं मेरी कप्तानी पारी का यह सबसे बड़ा खेद का विषय रहा, जब मुझे उन्हें कई बार टीम से बाहर रखना पड़ा। लेकिन कुंबले न कभी इससे विचलित हुए और न ही शिकायत की। हां, एक बार हुआ था कुछ ऐसा। 2001 में अपनी कंधे की सर्जरी के बाद से कुंबले खराब दौर से गुजर रहे थे। 2003-04 की ऑस्ट्रेलिया सीरीज के ब्रिसबेन टेस्ट के लिए गांगुली ने जो अंतिम 11 खिलाड़ी तय किए, उसमें कुंबले को बाहर कर हरभजन को शामिल किया। पहले दिन का खेल खत्म होने के बाद जब टीम होटल पहुंची तो गांगुली अपने परिवार के साथ हो लिए। लेकिन शाम को ही कुंबले ने उनके कमरे का दरवाजा खटखटाया और बोले, मैं इस टेस्ट के खत्म होते ही सन्यास लेना चाहता हूं और जल्द से जल्द घर वापस जाना चाहता हूं। घबराए हुए से गांगुली कुछ पल के लिए उनका चेहरा देखते रह गए। आखिर उन्होंने भीतर से अपनी पत्नी डोना को बुलवाया और कुंबले को समझाने को कहा। कम से कम सीरीज खत्म होने तक वे इस बारे में कुछ न सोचें। और जैसा कि भाग्य से होता है, हरभजन की उस टेस्ट में अंगुली टूट गई और उन्हें सर्जरी करानी पड़ी। बाकी सीरीज के लिए कुंबले टीम में आए और उन्होंने अगले तीन टेस्ट में 24 विकेट लिए। इसमें एडिलेड टेस्ट की वह ऐतिहासिक जीत भी शामिल है। फिर कुंबले ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा जब तक कि उन्होंने खुद सन्यास का फैसला नहीं किया (2 नवंबर 2008 की दोहपर कोटला में)। कप्तानी भी कुंबले के पास अनायास ही आई। लेकिन जिस साल उन्होंने टीम इंडिया का नेतृत्व किया, टेस्ट में अपने खिलाडिय़ों से उनका सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करवाया। और जब उन्हें लगा कि वे यह जिम्मेदारी और नहीं संभाल पाएंगे तो उन्होंने बीच सीरीज में सन्यास ले लिया, जबकि ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ वह सीरीज भारत जीतने वाला था। उन्होंने गावस्कर-बॉर्डर ट्रॉफी के अंतिम मैच का इंतजार भी नहीं किया और कमान नए कप्तान एमएस धोनी को सौंप दी। बिलकुल एक जेंटलमैन की तरह। इस एक साल में कुंबले को कठिन परीक्षा से गुजर कर भारतीय क्रिकेट को बुलंदियों की ऊंचाई तक ले जाना होगा। अगले महीने से शुरू हो रहे वेस्टइंडीज दौरे से उनकी परीक्षा की शुरूआत हो जाएंगी। अब सवाल ये उठता है कि क्या इस एक साल में कुंबले अपने आपको साबित कर पाएंगे! आइए एक नजर डालते हैं कि इस एक वर्ष में कुंबले को कितने मैचों में टीम इंडिया के कोच की जिम्मेदारी निभानी है। कठिन है कुंबले की परीक्षा कुंबले अगले महीने से वेस्टइंडीज दौरे पर टेस्ट सीरीज के लिए जा रही भारतीय टीम के साथ कोच के तौर पर जुड़ जाएंगे। यानी उनकी परीक्षा की शुरुआत वेस्टइंडीज दौरे से होगी। इसके बाद न्यूजीलैंड की टीम भारत दौरे पर आएगी। न्यूजीलैंड के साथ भारत को टेस्ट और वनडे मैचों की सीरीज खेलनी है। न्यूजीलैंड के बाद इंग्लैंड की टीम भारत दौरे पर टेस्ट मैचों की सीरीज खेलने आ रही है। फिर भारत को बांग्लादेश के साथ एक टेस्ट मैच की सीरीज और फिर ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ चार टेस्ट मैचों की सीरीज खेलनी है। भारत को जून 2017 में इंग्लैंड में आयोजित होने वाले चैंपियंस ट्रॉफी में भी हिस्सा लेना है। जाहिर है कुंबले के एक वर्ष के कार्यकाल में भारत को दुनिया की बेहतरीन टीमों के खिलाफ क्रिकेट खेलना है। एक साल में इतने मैच खेलेगा भारत कुंबले की कप्तानी में भारत चार टेस्ट मैचों की सीरीज वेस्टइंडीज में खेलेगा इसके अलावा उसे 4 और टेस्ट मैच विदेशी धरती पर खेलने हैं। घरेलू मैदान पर कुंबले के कार्यकाल में भारत को भारत में 13 टेस्ट मैच खेलने हैं। एक साल में भारत 10 वनडे और इतने ही टी20 मैच खेलेगी। कुंबले के कोच रहते भारत को इंग्लैडं में चैंपियंस ट्रॉफी जैसे अहम प्रतियोगिता में भी हिस्सा लेना है। कुंबले को बिठानी होगी कप्तानों के साथ ट्यूनिंग कुंबले के लिए सबसे बड़ी चुनौती भारतीय क्रिकेट टीम के टेस्ट कप्तान विराट कोहली और वनडे व टी 20 कप्तान धोनी के साथ तालमेल बिठाना भी होगा। इन दोनों कप्तानों का अंदाज बिल्कुल अलग है साथ ही कुंबले को टीम के नए खिलाडिय़ों के साथ भी सामंजस्य बिठाना होगा। ----------------------------

प्रशासनिक सर्जरी मंत्री मंडल के विस्तार के बाद

प्रदेश में जल्द ही बड़ी प्रशासनिक सर्जरी की तैयार की जा रही है। लेकिन यह सर्जरी संभवत: मंत्रिमंडल विस्तार के बाद ही होगा। जिसमें कई प्रमुख सचिव, कमिश्नर, कलेक्टर से लेकर सचिव स्तर तक के अधिकारियों की नई पदस्थापनाएं की जाएगी। इसके साथ ही नगरीय विकास एवं पर्यावरण विभाग में से पर्यावरण को अलग करने के बाद इसमें अलग से प्रमुख सचिव पदस्थ किया जाएगा। अभी दोनों का जिमा प्रमुख सचिव मलय श्रीवास्तव के पास है, वहीं 1985 बैच के आईएएस अफसर प्रमुख सचिव चिकित्सा शिक्षा प्रभांशु कमल 30 जून को अपर मुख्य सचिव बन जाएंगे। उन्हें ये जिम्मेदारी 1982 बैच के अपर मुख्य सचिव राकेश अग्रवाल के सेवानिवृत्त होने के चलते मिलेगी। सूत्रों के मुताबिक अग्रवाल के सेवानिवृत्त होने के बाद मंत्रालय में नए सिरे से जमावट होगी, इसके लिए मुख्यमंत्री कार्यालय में वरिष्ठ अफसरों के बीच चर्चा भी हुई दरअसल, प्रमुख सचिव स्तर पर बदलाव के लेकर मुख्यमंत्री निर्देश दे चुके हैं चीन जाने से पहले फेरबदल की तैयारी थी, लेकिन इसे रोक दिया गया था। इस बीच कटनी कलेक्टर प्रकाश जांगरे को हटाना पड़ा। सागर व होशंगाबाद में कमिश्नर पद खाली है, तो शहडोल में पदस्थ डीपी अहिरवार नवंबर में रिटायर होंगे। शहडोल लोस उपचुनाव की संभावना को देखते हुए वहां नई पदस्थापना की जा सकती है। संभावित फेरबदल में करीब डेढ़ दर्जन जिलों के कलेक्टर बदलने जाना है। जबकि तीन संभाग होशंगाबाद, सागर एवं उज्जैन में संभागायुक्तों की तैनाती होनी है। होशंगाबाद एवं सागर संभागायुक्त प्रभार में चल रहे हैं। दो महीने पहले ग्वालियर संभागायुक्त बनकर गए एसएन रूपला को भी स्थानीय नेताओं के विरोध के चलते बदले जाने की संभावना है। हालांकि रूपला को हटाने का फैसला मुख्यमंत्री को करना है। सिंहस्थ के बाद उज्जैन से कलेक्टर कवीन्द्र कियावत, संभागायुक्त रवीन्द्र पस्तौर, एडीजी बी मधु कुमार, एसपी मनोहर सिंह वर्मा, नगर निगम आयुक्त अवनाश लवानिया को उज्जैन से हटाकर मनचाही पोस्टिंग मिल सकती है। कियावत को सागर संभागायुक्त या जनसंपर्क आयुक्त बनाया जा सकता है। इस फेरबदल में आधा सैकड़ा से अधिक अफसरों के फेरबदल की संभावना है। ये जिले हो सकते हंै प्रभावित इस फेरबदल में झाबुआ कलेक्टर अरुणा गुप्ता, उज्जैन कवीन्द्र कियावत, रतलाम बी चंद्रशेखर राव (केंद्रीय मंत्री ने सरकार से शिकायत की है), शिवपुरी कलेक्टर राजीव दुबे (भाजपा नेता और मंत्री नाखुश), भिण्ड कलेक्टर टी अलैया राजा (बड़े जिले की कमान मिल सकती है), रीवा कलेक्टर राहुल जैन, छतरपुर कलेक्टर मसूद अख्तर, भोपाल कलेक्टर निशांत बड़बरे, विदिशा कलेक्टर एमबी ओझा, नरसिंहपुर कलेक्टर सिबि चक्रवर्ती, सतना कलेक्टर के प्रभावित होने की संभावना है। कटनी कलेक्टर के लिए अवनीश लवानिया का नाम चर्चा में हैं। शीर्ष अफसरों के भी बदलेंगे विभाग राज्य मंत्रालय में आला अफसरों के विभाग बदले जा सकते हैं। जिनमें गृह विभाग में प्रमुख सचिव, सचिव डीपी गुप्ता, नगरीय प्रशासन, स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा, महिला एवं बाल विकास विभाग, ग्रामीण विकास विभाग, परिवहन, उद्योग विभाग में उप सचिव, सचिव एवं प्रमुख सचिव स्तर पर बड़ा फेरबदल होने की संभावना है। मुख्यमंत्री सचिवालय में भी फेरबदल की संभावना है। यह हो सकते हैं प्रभावित -इंदौर कमिश्नर संजय दुबे और श्रम आयुक्त केसी गुप्ता को मंत्रालय में नई जि मेदारी मिल सकती है। गुप्ता लोक निर्माण विभाग में जा सकते हैं। -पर्यावरण विभाग की जि मेदारी प्रमुख सचिव लोक निर्माण विभाग प्रमोद अग्रवाल को मिल सकती है। -प्रमुख सचिव श्रम बीआर नायडू और प्रमुख सचिव आदिम जाति कल्याण अशोक शाह के प्रभार बदल सकते हैं। -जिन कलेक्टरों की जि मेदारी में बदलाव होना है, उनमें विदिशा के एमबी ओझा, नरसिंहपुर के सिबि चक्रवर्ती, उज्जैन के कविंद्र कियावत के नाम हैं, इन्हें राजधानी में पदस्थ किया जा सकता है। पुलिस में भी होगी जमावट इसी महीने डीजीपी सुरेन्द्र सिंह रिटायर हो रहे हैं। एक जुलाई से आरके शुक्ला डीजीपी की कमान संभालेंगे। इसके बाद वे अपने हिसाब से मैदानी जमावट करेंगे। संभावत: डेढ़ दर्जन एसपी एवं कुछ रेंज आईजी की बदली हो सकती है। 17 बाबुओं का डिमोशन कर फिर बना दिया चपरासाी 6 साल तक कुर्सी में बैठकर बाबूगिरी करने वाले शिक्षा विभाग के 17 कर्मचारी अब कलम नहीं घसीट पाएंगे। संभागीय संचालक लोक शिक्षण (जेडी) ने प्रमोशन पाकर बाबू बने इन कर्मचारियों पर एक बार फिर प्यून का ठप्पा लगा दिया है। हाईकोर्ट के निर्देश के बाद महीनों की गई जांच और दस्तावेजों के वेरीफिकेशन के बाद जेडी ने 23 जून 2016 को नया आदेश जारी कर 2010 में प्यून से बाबू पद पर किए गए नियम विरुद्घ प्रमोशन रद्द कर दिए हैं। यानी प्रमोशन पाकर जो कर्मचारी इतने साल तक ठाठ से बाबूगिरी कर रहे थे उन्हें अब प्यून का काम करना होगा। 2010 में जबलपुर संभाग के करीब 55 चतुर्थ श्रेणी से तृतीय वर्ग श्रेणी में प्रमोशन किए गए। जेडी मनीष वर्मा ने जांच में पाया तत्कालीन जेडी द्वारा किए गए प्रमोशन में नियमों का पालन नहीं किया गया। 15 अपै्रल 2015 को जेडी मनीष वर्मा ने सभी के प्रमोशन रद्द कर दिए। इसमें जिले के 20 बाबू प्रभावित हुए। बाबुओं ने हाईकोर्ट याचिका की शरण ली। कोर्ट ने जेडी को नियमानुसार कार्रवाई करने के आदेश दिए। कोर्ट के निर्देश पर की गई दोबारा जांच और दस्तावेजों के वेरीफिकेशन, सुनवाई के बाद जेडी ने जिले के 17 बाबुओं के प्रमोशन नियम विरुद्घ करार देते हुए निरस्त कर दिए। संभागीय संचालक मनीष वर्मा ने बताया कि दस्तावेजों के वेरीफिकेशन और सुनवाई के बाद 2010 में किए गए नियम विरुद्घ प्रमोशन निरस्त कर दिए गए हैं। डीईओ को भी अवगत करा दिया गया है।

बिहार मे शिक्षा का चीरहरण

जिस बिहार में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को छात्र रहते, परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है का खिताब मिला, उसी बिहार में आज परीक्षार्थी औऱ परीक्षक दोनों आरोपी हैं। बिहार चुनाव में जनता ने सुशासन और व्यवस्था के नाम पर वोट तो दिया, लेकिन व्यवस्थाओं की नियत को शायद वोटरों की नियति समझ नहीं सकी। 2015 की तस्वीरें शायद सबके ज़ेहन में हों। दीवार पर स्पाइडरमैन की तरह चढ़कर परीक्षा फतह करना बिहार के अभिभावकों ने सिखा दिया। और, जब खुद अभिभावक ही अपने बच्चे को नकल करवाते रहे हों, तो वहां शिक्षा और उसके स्तर की बात बेमानी है। 2015 की घटना दुहराई ना जाए, ऐसा सोचकर आगे की रणनीति बनाई गयी। 2016 में सख्ती हुई और रिजल्ट का प्रतिशत नीचे रहा, लेकिन हैरानी तो तब हुई जब टॉपर ही लल्लन निकला। परीक्षा समिति ने जिस अध्यक्ष पर भरोसा किया, वही शिक्षा माफियाओं का सरगना निकला। सवाल व्यक्ति विशेष से आगे बढ़कर उस पद पर जा बैठे जो बड़े घोटाले के लिए जिम्मेदार है। बिहार में शिक्षा के स्तर में गिरावट का सही कारण अब सामने था। कई सवाल भी सामने थे। मसलन, बिहार के विद्यार्थी बाहर जाकर ही क्यूं पढऩा चाहते हैं? आजकल देश की नंबर वन परीक्षा में बिहार का कोई क्यूं जगह नहीं ले पाता? कानून के राज में माफिया राज, जनता और उन सभी छात्रों के भरोसे को तोड़ रहा है, जो बिहार का मान और सम्मान बढ़ाते। जो बिहार से बाहर बिहारी कहलाने में शर्म खाते हैं। आखिर किस किस को जवाब दिए जाएं? बिहार में विपक्ष के सवाल भी हैं और उन सवालों के सामने सरकार का जवाब भी। सवाल ये भी है कि आखिर एक ईमानदार व्यक्ति को शिक्षण संस्थान खोलने की सरकारी मंजूरी नहीं मिलती, वहीं एक शिक्षा माफिया हरी झंडी पाने में सफल रहता है। कहीं ना कहीं ये शिक्षा माफियाओं और शिक्षाविदों के बीच की सांठ गांठ को दिखाता है। बिहार में बस कुछ ऐसा ही दिख रहा है। बात भरोसे की है, जो सरकार और जनता ने बड़ी ही मुश्किल से कमाया था। लेकिन अब क्या होगा। इस दुष्प्रचार के बाद क्या होगा। क्या होगा उन छात्रों का, जो मेरिट से पास तो करते हैं, लेकिन इन कारणों से उनका भविष्य गर्त में होता है। इसे समझने के लिए उस चेन को समझना जरुरी होगा जो स्कूल की कमी का रोना रोने से शुरू होती है। उस भवन से होती है जो सिर्फ कागजों पर होते हैं। उस पढ़ाई से होती है, जो अंधेरे में होती है। उन शिक्षकों से होती है जो जैसे-तैसे पैसों के बल पर टीचर कहला जाते हैं। उन खाली पदों से भी होती है जो भर्ती प्रक्रिया के दोषी होने का ख़ामियाजा भोगती है। उन जातिगत ताने बाने पर होती है, जो चुनाव का आधार होते हैं। आखिरकार मेधावी छात्र ट्यूशन ही पढ़ाएंगे। जो पढऩे वाले हैं वो किसी ऐसे विद्यालय की टोह में होंगे जहां से उन्हें एक अदद डिग्री मिल जाए। बात रही शिक्षा और सिस्टम की तो फिलहाल के लिए ज़ीरो नंबर है। जरूरत, सरकार की तरफ से उठाए गए कारगर कदम की है ताकि फिर से कोई रुबी राय ना बने और ना ही कोई विषयों के नाम ना बता सके। जहां तक बात लालकेश्वर औऱ उनकी धर्म पत्नी ऊषा देवी की है, तो दोनों गिरफ्तार कर लिए गए हैं। सरकार कहती है कि दोषी नहीं बख्शे जाएंगे। आगे देखेंगे सरकार क्या करती है। समय के साथ बिहार बदला है। बिहार के वैशाली के विशुन राय कॉलेज ने बदलते बिहार का नमूना पेश किया है। इसके लिए किसी एक राजनेता और राजनीतिक दल को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। पूरी व्यवस्था में दोष है। इसके लिए समाज की मानसिकता भी दोषी है। समय के साथ बिहार भी बदला है। कई गलत सामाजिक मान्यताएं बिहार के लिए कलंक बनी रहीं। एक तरफ दहेज की व्यवस्था में बदलाव हुआ तो दूसरी तरफ पढ़ाई की व्यवस्था में। दहेज में रेडियो, साइकिल, स्कूटर की जगह कार और न्यूनतम रकम लाखों में मांगी जाने लगी। वहीं परीक्षा में अब नकल की जगह कंप्यूटर पर ही खेल होने लगा। हालांकि बिहार सरकार ने सख्त कदम उठाने के आदेश दिए। तीन टॉपरों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई। दोषी अधिकारियों के खिलाफ भी पुलिस जांच शुरू हो गई है। लेकिन सवाल है कि क्या रूबी राय, सौरभ श्रेष्ठ और राहुल कुमार पहले छात्र हैं, जो पास करने की योग्यता न रखते हुए भी टॉप कर गए? ईमानदारी से जांच की जाए तो बिहार के कई बड़े नेताओं और यूनिवर्सिटी के कई प्राध्यापकों की डिग्री पर सवाल उठ जाएंगे। 1980 के दशक से ही बिहार में इंटर और दसवीं के छात्र विषय पढऩे से ज्यादा तीन शब्दों को याद करने में दिलचस्पी लेने लगे- 'नकल, पैरवी और दहेजÓ। नकल प्राथमिक चरण था। नकल कराने के लिए छात्रों के परिवार के कई सदस्य परीक्षा केंद्रों के बाहर खड़े हो जाते थे। बाकायदा परीक्षा केंद्रों पर तैनात निरीक्षकों को एक दिन पहले ही प्रभावित करने की कोशिश की जाती थी। इसके बाद परीक्षा केंद्र पर नकल का दौर चलता था। कुछ स्कूल तो इस कदर बदनाम थे कि वे परीक्षा केंद्र भी अपनी मर्जी से बनवा लेते थे। वहां पर खुल कर नकल चलती थी। परीक्षा खत्म होने के बाद पैरवी का दौर चलता था। कॉपी किस जिले के किस जांच केंद्र में जांच के लिए गई है, ये छात्रों के अभिभावक पता लगवाने में कई दिन लगाते थे। जब जांच केंद्र का पता चलता था तो जांच कर रहे परीक्षकों को पकड़ा जाता था। उसके बाद पैरवी का दौर संपन्न होता था। पैरवी का दौर संपन्न हो जाने के बाद परिणाम की प्रतीक्षा होती थी। परिणाम आने के बाद दहेज का दौर होता था। किसी जमाने में बिहार में बाल विवाह ज्यादा होते थे। लड़की तो दसवीं के बाद ही ब्याह दी जाती थी जबकि लड़का इंटर पास होने के बाद शादी के योग्य माना जाता था। हालांकि आज भी बहुत-सी जातियों में दसवीं और इंटर पास होने के बाद ही लड़का-लड़की का विवाह कर दिया जाता है। जिसके जितने प्रतिशत नंबर उतना ही दहेज ज्यादा। कई जगहों पर तो स्थानीय सांसदों और विधायकों पर दबाव डाला जाता रहा है कि स्कूलों में वे खुली नकल की छूट दिलवाएं। 1990 के बाद बिहार में दसवीं, इंटर समेत उच्च शिक्षा पर संगठित माफिया गिरोहों का नियंत्रण हो गया। कई माफिया गिरोहों ने एक-एक दो-दो कमरों में स्कूल और कॉलेज खोल लिए। इनकी घुसपैठ बिहार स्कूल एजूकेशन बोर्ड, इंटर काउंसिल से लेकर राज्य की तमाम यूनिवर्सिटियों में है। ये अपनी मर्जी से परीक्षा केंद्र बनवाते हैं। कई माफिया तो अपने स्कूलों और कॉलेजों को परीक्षा केंद्र बनाने के लिए बड़े पैमाने पर घूस भी देते हैं। फिर संगठित तरीके से अपने स्कूल के छात्रों को नंबर भी दिलवाते हैं। इसके लिए जरूरी नहीं कि कॉपी पर परीक्षक ही नंबर दे। अब संगठित तरीके से बोर्ड, इंटर काउंसिल और यूनिवर्सिटियों में कंप्यूटरों पर नंबर बदले जा रहे हैं। अगर गंभीरता से जांच हो तो कई अधिकारी फंस जाएंगे। पदोन्नति के इंतजार में बैठे दूसरे राज्यों के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए बिहार के शिक्षण संस्थान स्वर्ग साबित हुए हैं। दूसरे राज्यों के कर्मचारी और अधिकारी बिहार में बिना परीक्षा दिए इंटर और बीए भी पास कर गए। बिहार की डिग्री पर दूसरे राज्यों में पदोन्नति घोटाला हुआ, यह ऑन रिकार्ड है। बिहार के मगध विश्वविद्यालय के एक बड़े अधिकारी इस मामले में जेल चले गए। पंजाब के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर मुकदमा दर्ज हो चुका है। पंजाब के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अपनी पदोन्नति में मगध विश्वविद्यालय की डिग्री का इस्तेमाल किया था। लेकिन उन्होंने जिस कॉलेज से जिस साल में डिग्री हासिल की उस साल में वह कॉलेज रिकार्ड में नहीं था। जांच के बाद मगध यूनिवर्सिटी के अधिकारियों और पंजाब पुलिस के अधिकारी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। बिहार पुलिस की टीम पंजाब पुलिस मुख्यालय तक जांच के लिए पहुंची। चंडीगढ़ के सेल्स टैक्स विभाग के एक अधिकारी ने अपनी विभागीय पदोन्नति के लिए मगध विश्वविद्यालय की डिग्री का इस्तेमाल किया। लेकिन डिग्री के लिए न तो उन्होंने परीक्षा दी, न ही कक्षा लगाई। जांच में पता चला कि हेराफेरी से उन्होंने डिग्री प्राप्त की। यह कहना गलत होगा कि बिहार की शिक्षा-व्यवस्था आज ही नष्ट हुई है। 1980 तक बिहार की स्कूली शिक्षा बहुत उच्च स्तर की थी। सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजूकेशन के बजाय बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड से पास छात्र बड़े पैमाने पर सिविल सर्विसेज परीक्षा में चयनित होते रहे हैं। यही नहीं, कई तो यूपीएससी की मेरिट लिस्ट में पहले दस के अंदर भी पहुंचे। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अधीन कई स्कूल बिहार की शिक्षा के प्रतिष्ठा के केंद्र थे। लेकिन 1980 के बाद हालात खराब हुए। घास-फूस की तरह बिहार में स्कूल और कॉलेजों की बाढ़ आ गई। जिस शहर में जाइए, वहीं अमुक शर्मा कॉलेज, अमुक यादव कॉलेजों की बाढ़ नजर आई। ये कॉलेज शिक्षा के केंद्र नहीं हैं। ये कॉलेज पैसे से डिग्री दिलवाने के केंद्र हैं। इसमें यूनिवर्सिटी, इंटर काउंसिल और बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड तक के अधिकारियों की मिलीभगत है। पहले परीक्षा केंद्र पर जम कर नकल और धांधली होती है। जो अभ्यर्थी परीक्षा में बैठ नहीं सकते हैं उनकी जगह किसी और को बिठाए जाने की व्यवस्था की जाती है। इसके लिए बाकायदा स्कूल प्रबंधन कुछ ज्यादा पैसे लेता है। यही नहीं, कई केंद्रों पर कॉपी भी बाद में लिखवा कर जमा कराई जाती है। उसके बाद कॉपी पर मनमर्जी से नंबर लगवाए जाते हैं। अगर कॉपी में कुछ समस्या आई तो समिति और इंटर काउंसिल के कंप्यूटर पर ही नंबर बदल दिए जाते हैं। इसमें बड़े अधिकारियों से लेकर निचले क्लर्कों तक की भूमिका होती है। चूंकि एक नियत समय के बाद कॉपी रिकार्ड रूम से हटा दी जाती है, इसलिए सिर्फ कंप्यूटर का रिकार्ड मूल रिकार्ड के रूप में रह जाता है। बिहार में स्कूली शिक्षा से लेकर कॉलेज शिक्षा तक हालत बदतर है। वहां 'शिक्षा माफियाÓ एक प्रचलित शब्द है। बड़े पैमाने पर माफियाओं ने कॉलेज खोल रखे हैं। कई बड़े नेताओं का स्कूलों और कॉलेज में बड़ा निवेश है। निजी स्कूलों को दसवीं और बारहवीं स्तर तक की मान्यता के लिए जिला शिक्षा पदाधिकारी से लेकर बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड और इंटर काउंसिल तक घूस का रेट तय है। एक से दो कमरे में स्कूल चलाने वाला स्कूल मालिक दो से ढाई लाख रुपए जिला स्तर पर पैसे देकर अपने पक्ष में रिपोर्ट बनवाता है। इसके बाद इंटर काउंसिल और बोर्ड में भी घूस की दर तय है। अगर पैसा पहुंच गया तो स्कूल को बिना इन्फ्रास्ट्रक्चर के मान्यता मिल जाती है। इस तरह के मान्यता प्राप्त स्कूल दसवीं और इंटर में बड़े पैमाने पर नंबर दिलवाने का ठेका भी लेते हैं। उसके लिए छात्रों से अलग पैसा चार्ज किया जाता है। ग्रामीण इलाकों के छात्रों के अभिभावकों की भीड़ इन स्कूलों के बाहर लगी होती है। क्योंकि यहां पर पढ़ाई के बिना ही छात्र को अच्छे नंबर मिलते हैं। ज्यादातर ग्रामीण इलाकों के गरीब अभिभावक इन स्कूलों में इसलिए आते हैं कि उनका बच्चा अच्छे नंबर से पास हो जाएगा, तो उसकी शादी में कुछ अच्छा दहेज मिल जाएगा। बिहार के छोटे शहरों में कई बड़े नेताओं के स्कूल और कॉलेज हैं। वे इतने दबंग हैं कि उनके केंद्रों पर परीक्षा के दौरान जांच के लिए उडऩदस्ते की टीम भी डर कर नहीं जाती है। इस बार बताया जाता है कि काफी सख्ती बिहार सरकार ने कर रखी थी। उसका परिणाम दिखा। नकल पर काफी बड़े पैमाने पर रोक लग गई। लेकिन अब नया मामला सामने है। वैशाली के विशुनदेव राय कॉलेज के परिणाम देख कर पता चलता है कि ऊपरी स्तर पर हेराफेरी कर अंक तालिका में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया गया है। नेताओं का शिक्षा में निवेश इस कदर है कि ये यूनिवर्सिटी के कामकाज को भी प्रभावित करते हैं। वह वहां अपने कॉलेज के छात्रों को नंबर लगवाने में सफल होते हैं। इसकी एवज में छात्रों से अलग पैसे लिए जाते हैं। जबकि बिहार में सरकारी स्कूलों की हालत काफी खराब है। बिहार में मानदेय पर शिक्षकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति की गई। लेकिन शिक्षकों का स्तर काफी खराब है। राज्य सरकार का मानना था कि शिक्षकों की नियुक्ति का पहला उद्देश्य शिक्षा का स्तर सुधारना नहीं था, बल्कि राज्य में बड़े पैमाने पर फैली बेरोजगारी को खत्म करना था। पहले तो मानदेय के तौर पर महज दस हजार रुपए दिए जाते रहे। लेकिन बीते विधानसभा चुनावों से ठीक पहले राज्य सरकार ने शिक्षकों के दबाव में उनका मानदेय बढ़ा दिया। हालांकि इसके बाद भी शिक्षा का स्तर नहीं सुधरा।

काले धन की खोज यानी चिराग तले अंधेरा

काले धन को उजागर कर उसे अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा में लाने की कोशिशों में सरकार लगी हुई है। काला धन एक रहस्यमय चीज है। लेकिन यह रहस्य ऐसा है जिसे सब जानते हैं और कोई नहीं जानता। आदमी पर एक नजर डालते ही पता चल जाता है कि उसके पास काला धन है या नहीं। लेकिन हममें से कोई भी व्यक्ति निश्चितता के साथ दावा नहीं कर सकता कि उसके पास जो धन है वह काला ही है। क्योंकि, किसके पास काला धन है और किसके पास नहीं, यह निर्णय करने का अधिकार सिर्फ सरकार को है। वही बताएगी कि किसके पास कितना काला धन है और किसका धन स्वच्छ है। इधर, इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने विदेशी बैंकों में जमा भारतीयों के करीब 13 हजार करोड़ रुपये काले धन का पता लगाया है। लेकिन इनमें एक भी खाते की खोज का श्रेय भारतीय जांच एजेंसियों को नहीं जाता। 2011 में फ्रांस सरकार ने जिनेवा के एचएसबीसी बैंक में भारतीयों द्वारा जमा करवाई गई रकम के करीब 400 मामलों की जानकारी दी थी। इनमें करीब 8,186 करोड़ रुपये जमा थे। 2013 में इंटरनैशनल कंसॉर्शियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स की वेबसाइट पर 700 भारतीयों के बैंक अकाउंट्स के बारे में पता चला, जिनमें 5000 करोड़ रुपये के डिपॉजिट्स थे। इस तरह दोनों को मिलाकर भारतीयों के कुल 1100 खातों में 13 हजार करोड़ रुपये की ब्लैक मनी का पता चला है। यह कोई बहुत बड़ी राशि नहीं कही जाएगी, फिर भी सरकार चाहे तो कुछ नहीं से कुछ भला की तर्ज पर अपनी पीठ थपथपा सकती है। काले धन की बरामदगी को लेकर सरकारी एजेंसियों के रवैये में अभी कोई बदलाव तो नहीं नजर आ रहा है, लेकिन सरकार ने काले धन पर अपना सख्त रुख दोहरा कर उम्मीद जिलाए रखी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते दिनों रेडियो पर 'मन की बातÓ कार्यक्रम में इसकी चर्चा की और कहा कि अघोषित आय रखने वालों के पास 30 सितंबर तक अपनी आय का खुलासा करने का आखिरी मौका है। ऐसा नहीं करने वालों को बाद में तकलीफ का सामना करना पड़ सकता है। ब्लैक मनी को उजागर कर और टैक्स का दायरा बढ़ाकर अपना राजस्व बढ़ाना सरकार का एक प्रमुख अजेंडा रहा है, हालांकि इसमें कोई खास सफलता नहीं मिल पा रही। बाहर से काला धन लाकर हर भारतीय के खाते में 15 लाख रुपये जमा करना इस सरकार का एक बड़ा चुनावी मुद्दा था। बाद में सरकार ने खुद ही उसे जुमला मान लिया। अपनी पहल पर उसने ब्लैक मनी के खुलासे की जो योजना चलाई, उससे 3,770 करोड़ का ही खुलासा हो सका। प्रधानमंत्री को उम्मीद है कि उनके सख्त बयान से लोग अपने आप पैसे निकाल बाहर करेंगे। उनका यह कहना सही है कि 125 करोड़ लोगों में सिर्फ डेढ़ लाख लोगों की कर-योग्य आय 50 लाख रुपये से ज्यादा है, जबकि लाखों लोग करोड़ों के बंगले में रह रहे हैं। लेकिन सचाई यह है कि ऐसे लोगों से कर वसूलने की कोई प्रणाली सरकार विकसित नहीं कर पाई है। नतीजा यह है कि देश का व्यापारी वर्ग आयकर के दायरे से आम तौर पर बाहर है। यह वर्ग अक्सर कागजी कसरत के जरिये टैक्स देने से साफ बच जाता है। टैक्स न देने वाले सुपर अमीरों में वे राजनेता भी शामिल हैं, जो अपनी आमदनी का मुख्य जरिया खेती-किसानी को बताकर टैक्स का कोई झंझट ही अपने सामने नहीं आने देते। सरकार पारदर्शिता बरतना चाहती है तो हर लेवल पर बरते। किसी पर शिकंजा कसने और किसी को नजरअंदाज करने की नीति नहीं चलेगी। देश में काला धन के दो प्रकार हैं। एक, ऐसी कमाई जो काले ढंग से या काले कारनामों से की गई है। जैसे एक दारोगा अपने इलाके में स्थित मंडियों में हर व्यापारी से हर महीने एक निश्चित रूप से वसूल करता है। या, सुरक्षा टैक्स के नाम पर गुंडे अपने इलाके के रईस लोगों से जो धन वसूल करते हैं। यह सारा धन काला धन है, क्योंकि यह काले स्रोतों से कमाया हुआ धन है। यह गुप्त रूप से वसूल किया जाता है तो गुप्त रूप से रखा भी जाता है। यह वह कमाई है जो राष्ट्र की सकल आय में शामिल नहीं की जाती, क्योंकि इसके बारे में सभी को पता है और किसी को भी पता नहीं है। हमारे देश में काली कमाई का परिमाण बहुत बड़ा है, इतना बड़ा कि एक समानांतर अर्थशास्त्र काम कर रहा है। अधिकांश राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, दलाल, बिल्डर और पुलिस अधिकारी इस काली कमाई पर ही फूलते-फलते हैं। चूंकि सभी इसमें लिप्त रहते हैं, यहां तक कि आयकर के अधिकारी भी जिनका काम ही उस धन को खोज निकालना है जिस पर टैक्स नहीं दिया गया है, इसलिए कोई किसी पर उंगली नहीं उठाता। समानांतर अर्थव्यवस्था पूर्ण परस्पर सहमति से ही चल सकती है। काले धन का दूसरा प्रकार वह कमाई है जिसे कम करके दिखाया गया है। इसके पीछे मकसद आयकर देने से बचना है। यानी कमाई सफेद की है, पर उसका एक बड़ा हिस्सा काला धन में बदल जाता है। टैक्स चोरी व्यक्ति भी करते हैं और बड़े-बड़े निगम भी। इसके कई तरीके होते होंगे, जिनके बारे में मुझे कुछ नहीं मालूम, क्योंकि यह दुनिया मेरी नहीं है। ऐसे सौ लोगों के खिलाफ भी कार्यवाही शुरू हो जाए तो देश का वातावरण एकदम से बदल जाएगा। काला धन अदृश्य होता है, पर उसका उपभोग करने वाले तो दृश्य होते हैं। कुमारी जयललिता की काली कमाई के स्रोतों का पता नहीं लगाया जा सका, पर उनकी जीवन शैली चीख-चीख कर यह बता रही थी कि यह सब कुछ आय के वैध स्रोतों के बल पर नहीं हो सकता। काला धन की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उसे छुपाएं कैसे। यह कुछ-कुछ व्यभिचार को छुपाए रखने की समस्या की तरह है। गीता की शिक्षा को उलट दिया जाए तो इरादा यह होता है कि कर्म करें, पर फल से बचे रहें। कुछ धन देश के भीतर ही अनाप-शनाप खर्च कर दिया जाता है, तो कुछ को विदेश यात्रा के दौरान फना कर दिया जाता है। लेकिन रकम बड़ी हो और मु_ी छोटी, तब काले धन का एक बड़ा हिस्सा निर्यात कर दिया जाता है यानी विदेशी बैंकों में जमा कर दिया जाता है, जिनके पास धनधारी व्यक्ति की पहचान छिपाए रखने का अधिकार या सुविधा होती है। पराई मिट्टी पर जाकर काला धन सफेद धन में बदल जाता है। देसी बैंक में पैसा जमा करो तो सरकार उसकी खोज कर सकती है। पर विदेशी खातों में जमा धन के साथ एक तरह की कानूनी पवित्रता जुड़ जाती है। नाम बताने के पहले वहां का बैंकर बार-बार पूछेगा कि क्या सबूत है कि यह सफेद धन नहीं, काला धन है? क्या आपने इस खाताधारी पर मुकदमा चला रखा है? क्या आपने उसे काला धन रखने का दोषी पाया है? जाइए, पहले अपना हिसाब-किताब ठीक कीजिए, तब हमारे पास आइएगा। अगर आप बिना किसी सबूत के यानी खाली हाथ आए हैं, तो हमारे सच्चे और ईमानदार खाताधारियों पर नाहक शक करके उनका अपमान कर रहे हैं। बेशक बहुत-सा काला धन विदेश में भी पैदा होता है- विदेशी सौदों में खातों की बेईमानी कर। लेकिन काले धन का मूल निवास हमारे देश में ही है। अनुमान है कि जितना काला धन विदेशी बैंकों में जमा है, उसका हजारों गुना काला धन देश के भीतर है। जाहिर है, काला धन का जन्म यहीं होता है और उसका वही हिस्सा विदेशी बैंकों में जाता है जिसे यहां सधाया नहीं जा सकता। इसलिए काला धन के विरोधियों को यह मांग करते देखना कि विदेशों में जमा अवैध धन को भारत लाओ, ताज्जुब होता है। ऐसे लगता है कि ये या तो खुद मूर्ख हैं या दूसरों को मूर्ख बना रहे हैं। हो सकता है, दोनों ही बातें सही हों।