vinod upadhyay

vinod upadhyay

शनिवार, 2 जुलाई 2016

बिहार मे शिक्षा का चीरहरण

जिस बिहार में देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेन्द्र प्रसाद को छात्र रहते, परीक्षार्थी परीक्षक से बेहतर है का खिताब मिला, उसी बिहार में आज परीक्षार्थी औऱ परीक्षक दोनों आरोपी हैं। बिहार चुनाव में जनता ने सुशासन और व्यवस्था के नाम पर वोट तो दिया, लेकिन व्यवस्थाओं की नियत को शायद वोटरों की नियति समझ नहीं सकी। 2015 की तस्वीरें शायद सबके ज़ेहन में हों। दीवार पर स्पाइडरमैन की तरह चढ़कर परीक्षा फतह करना बिहार के अभिभावकों ने सिखा दिया। और, जब खुद अभिभावक ही अपने बच्चे को नकल करवाते रहे हों, तो वहां शिक्षा और उसके स्तर की बात बेमानी है। 2015 की घटना दुहराई ना जाए, ऐसा सोचकर आगे की रणनीति बनाई गयी। 2016 में सख्ती हुई और रिजल्ट का प्रतिशत नीचे रहा, लेकिन हैरानी तो तब हुई जब टॉपर ही लल्लन निकला। परीक्षा समिति ने जिस अध्यक्ष पर भरोसा किया, वही शिक्षा माफियाओं का सरगना निकला। सवाल व्यक्ति विशेष से आगे बढ़कर उस पद पर जा बैठे जो बड़े घोटाले के लिए जिम्मेदार है। बिहार में शिक्षा के स्तर में गिरावट का सही कारण अब सामने था। कई सवाल भी सामने थे। मसलन, बिहार के विद्यार्थी बाहर जाकर ही क्यूं पढऩा चाहते हैं? आजकल देश की नंबर वन परीक्षा में बिहार का कोई क्यूं जगह नहीं ले पाता? कानून के राज में माफिया राज, जनता और उन सभी छात्रों के भरोसे को तोड़ रहा है, जो बिहार का मान और सम्मान बढ़ाते। जो बिहार से बाहर बिहारी कहलाने में शर्म खाते हैं। आखिर किस किस को जवाब दिए जाएं? बिहार में विपक्ष के सवाल भी हैं और उन सवालों के सामने सरकार का जवाब भी। सवाल ये भी है कि आखिर एक ईमानदार व्यक्ति को शिक्षण संस्थान खोलने की सरकारी मंजूरी नहीं मिलती, वहीं एक शिक्षा माफिया हरी झंडी पाने में सफल रहता है। कहीं ना कहीं ये शिक्षा माफियाओं और शिक्षाविदों के बीच की सांठ गांठ को दिखाता है। बिहार में बस कुछ ऐसा ही दिख रहा है। बात भरोसे की है, जो सरकार और जनता ने बड़ी ही मुश्किल से कमाया था। लेकिन अब क्या होगा। इस दुष्प्रचार के बाद क्या होगा। क्या होगा उन छात्रों का, जो मेरिट से पास तो करते हैं, लेकिन इन कारणों से उनका भविष्य गर्त में होता है। इसे समझने के लिए उस चेन को समझना जरुरी होगा जो स्कूल की कमी का रोना रोने से शुरू होती है। उस भवन से होती है जो सिर्फ कागजों पर होते हैं। उस पढ़ाई से होती है, जो अंधेरे में होती है। उन शिक्षकों से होती है जो जैसे-तैसे पैसों के बल पर टीचर कहला जाते हैं। उन खाली पदों से भी होती है जो भर्ती प्रक्रिया के दोषी होने का ख़ामियाजा भोगती है। उन जातिगत ताने बाने पर होती है, जो चुनाव का आधार होते हैं। आखिरकार मेधावी छात्र ट्यूशन ही पढ़ाएंगे। जो पढऩे वाले हैं वो किसी ऐसे विद्यालय की टोह में होंगे जहां से उन्हें एक अदद डिग्री मिल जाए। बात रही शिक्षा और सिस्टम की तो फिलहाल के लिए ज़ीरो नंबर है। जरूरत, सरकार की तरफ से उठाए गए कारगर कदम की है ताकि फिर से कोई रुबी राय ना बने और ना ही कोई विषयों के नाम ना बता सके। जहां तक बात लालकेश्वर औऱ उनकी धर्म पत्नी ऊषा देवी की है, तो दोनों गिरफ्तार कर लिए गए हैं। सरकार कहती है कि दोषी नहीं बख्शे जाएंगे। आगे देखेंगे सरकार क्या करती है। समय के साथ बिहार बदला है। बिहार के वैशाली के विशुन राय कॉलेज ने बदलते बिहार का नमूना पेश किया है। इसके लिए किसी एक राजनेता और राजनीतिक दल को दोषी ठहराना ठीक नहीं है। पूरी व्यवस्था में दोष है। इसके लिए समाज की मानसिकता भी दोषी है। समय के साथ बिहार भी बदला है। कई गलत सामाजिक मान्यताएं बिहार के लिए कलंक बनी रहीं। एक तरफ दहेज की व्यवस्था में बदलाव हुआ तो दूसरी तरफ पढ़ाई की व्यवस्था में। दहेज में रेडियो, साइकिल, स्कूटर की जगह कार और न्यूनतम रकम लाखों में मांगी जाने लगी। वहीं परीक्षा में अब नकल की जगह कंप्यूटर पर ही खेल होने लगा। हालांकि बिहार सरकार ने सख्त कदम उठाने के आदेश दिए। तीन टॉपरों के खिलाफ एफआइआर दर्ज की गई। दोषी अधिकारियों के खिलाफ भी पुलिस जांच शुरू हो गई है। लेकिन सवाल है कि क्या रूबी राय, सौरभ श्रेष्ठ और राहुल कुमार पहले छात्र हैं, जो पास करने की योग्यता न रखते हुए भी टॉप कर गए? ईमानदारी से जांच की जाए तो बिहार के कई बड़े नेताओं और यूनिवर्सिटी के कई प्राध्यापकों की डिग्री पर सवाल उठ जाएंगे। 1980 के दशक से ही बिहार में इंटर और दसवीं के छात्र विषय पढऩे से ज्यादा तीन शब्दों को याद करने में दिलचस्पी लेने लगे- 'नकल, पैरवी और दहेजÓ। नकल प्राथमिक चरण था। नकल कराने के लिए छात्रों के परिवार के कई सदस्य परीक्षा केंद्रों के बाहर खड़े हो जाते थे। बाकायदा परीक्षा केंद्रों पर तैनात निरीक्षकों को एक दिन पहले ही प्रभावित करने की कोशिश की जाती थी। इसके बाद परीक्षा केंद्र पर नकल का दौर चलता था। कुछ स्कूल तो इस कदर बदनाम थे कि वे परीक्षा केंद्र भी अपनी मर्जी से बनवा लेते थे। वहां पर खुल कर नकल चलती थी। परीक्षा खत्म होने के बाद पैरवी का दौर चलता था। कॉपी किस जिले के किस जांच केंद्र में जांच के लिए गई है, ये छात्रों के अभिभावक पता लगवाने में कई दिन लगाते थे। जब जांच केंद्र का पता चलता था तो जांच कर रहे परीक्षकों को पकड़ा जाता था। उसके बाद पैरवी का दौर संपन्न होता था। पैरवी का दौर संपन्न हो जाने के बाद परिणाम की प्रतीक्षा होती थी। परिणाम आने के बाद दहेज का दौर होता था। किसी जमाने में बिहार में बाल विवाह ज्यादा होते थे। लड़की तो दसवीं के बाद ही ब्याह दी जाती थी जबकि लड़का इंटर पास होने के बाद शादी के योग्य माना जाता था। हालांकि आज भी बहुत-सी जातियों में दसवीं और इंटर पास होने के बाद ही लड़का-लड़की का विवाह कर दिया जाता है। जिसके जितने प्रतिशत नंबर उतना ही दहेज ज्यादा। कई जगहों पर तो स्थानीय सांसदों और विधायकों पर दबाव डाला जाता रहा है कि स्कूलों में वे खुली नकल की छूट दिलवाएं। 1990 के बाद बिहार में दसवीं, इंटर समेत उच्च शिक्षा पर संगठित माफिया गिरोहों का नियंत्रण हो गया। कई माफिया गिरोहों ने एक-एक दो-दो कमरों में स्कूल और कॉलेज खोल लिए। इनकी घुसपैठ बिहार स्कूल एजूकेशन बोर्ड, इंटर काउंसिल से लेकर राज्य की तमाम यूनिवर्सिटियों में है। ये अपनी मर्जी से परीक्षा केंद्र बनवाते हैं। कई माफिया तो अपने स्कूलों और कॉलेजों को परीक्षा केंद्र बनाने के लिए बड़े पैमाने पर घूस भी देते हैं। फिर संगठित तरीके से अपने स्कूल के छात्रों को नंबर भी दिलवाते हैं। इसके लिए जरूरी नहीं कि कॉपी पर परीक्षक ही नंबर दे। अब संगठित तरीके से बोर्ड, इंटर काउंसिल और यूनिवर्सिटियों में कंप्यूटरों पर नंबर बदले जा रहे हैं। अगर गंभीरता से जांच हो तो कई अधिकारी फंस जाएंगे। पदोन्नति के इंतजार में बैठे दूसरे राज्यों के कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए बिहार के शिक्षण संस्थान स्वर्ग साबित हुए हैं। दूसरे राज्यों के कर्मचारी और अधिकारी बिहार में बिना परीक्षा दिए इंटर और बीए भी पास कर गए। बिहार की डिग्री पर दूसरे राज्यों में पदोन्नति घोटाला हुआ, यह ऑन रिकार्ड है। बिहार के मगध विश्वविद्यालय के एक बड़े अधिकारी इस मामले में जेल चले गए। पंजाब के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी पर मुकदमा दर्ज हो चुका है। पंजाब के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने अपनी पदोन्नति में मगध विश्वविद्यालय की डिग्री का इस्तेमाल किया था। लेकिन उन्होंने जिस कॉलेज से जिस साल में डिग्री हासिल की उस साल में वह कॉलेज रिकार्ड में नहीं था। जांच के बाद मगध यूनिवर्सिटी के अधिकारियों और पंजाब पुलिस के अधिकारी के खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ। बिहार पुलिस की टीम पंजाब पुलिस मुख्यालय तक जांच के लिए पहुंची। चंडीगढ़ के सेल्स टैक्स विभाग के एक अधिकारी ने अपनी विभागीय पदोन्नति के लिए मगध विश्वविद्यालय की डिग्री का इस्तेमाल किया। लेकिन डिग्री के लिए न तो उन्होंने परीक्षा दी, न ही कक्षा लगाई। जांच में पता चला कि हेराफेरी से उन्होंने डिग्री प्राप्त की। यह कहना गलत होगा कि बिहार की शिक्षा-व्यवस्था आज ही नष्ट हुई है। 1980 तक बिहार की स्कूली शिक्षा बहुत उच्च स्तर की थी। सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंड्री एजूकेशन के बजाय बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड से पास छात्र बड़े पैमाने पर सिविल सर्विसेज परीक्षा में चयनित होते रहे हैं। यही नहीं, कई तो यूपीएससी की मेरिट लिस्ट में पहले दस के अंदर भी पहुंचे। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अधीन कई स्कूल बिहार की शिक्षा के प्रतिष्ठा के केंद्र थे। लेकिन 1980 के बाद हालात खराब हुए। घास-फूस की तरह बिहार में स्कूल और कॉलेजों की बाढ़ आ गई। जिस शहर में जाइए, वहीं अमुक शर्मा कॉलेज, अमुक यादव कॉलेजों की बाढ़ नजर आई। ये कॉलेज शिक्षा के केंद्र नहीं हैं। ये कॉलेज पैसे से डिग्री दिलवाने के केंद्र हैं। इसमें यूनिवर्सिटी, इंटर काउंसिल और बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड तक के अधिकारियों की मिलीभगत है। पहले परीक्षा केंद्र पर जम कर नकल और धांधली होती है। जो अभ्यर्थी परीक्षा में बैठ नहीं सकते हैं उनकी जगह किसी और को बिठाए जाने की व्यवस्था की जाती है। इसके लिए बाकायदा स्कूल प्रबंधन कुछ ज्यादा पैसे लेता है। यही नहीं, कई केंद्रों पर कॉपी भी बाद में लिखवा कर जमा कराई जाती है। उसके बाद कॉपी पर मनमर्जी से नंबर लगवाए जाते हैं। अगर कॉपी में कुछ समस्या आई तो समिति और इंटर काउंसिल के कंप्यूटर पर ही नंबर बदल दिए जाते हैं। इसमें बड़े अधिकारियों से लेकर निचले क्लर्कों तक की भूमिका होती है। चूंकि एक नियत समय के बाद कॉपी रिकार्ड रूम से हटा दी जाती है, इसलिए सिर्फ कंप्यूटर का रिकार्ड मूल रिकार्ड के रूप में रह जाता है। बिहार में स्कूली शिक्षा से लेकर कॉलेज शिक्षा तक हालत बदतर है। वहां 'शिक्षा माफियाÓ एक प्रचलित शब्द है। बड़े पैमाने पर माफियाओं ने कॉलेज खोल रखे हैं। कई बड़े नेताओं का स्कूलों और कॉलेज में बड़ा निवेश है। निजी स्कूलों को दसवीं और बारहवीं स्तर तक की मान्यता के लिए जिला शिक्षा पदाधिकारी से लेकर बिहार स्कूल एग्जामिनेशन बोर्ड और इंटर काउंसिल तक घूस का रेट तय है। एक से दो कमरे में स्कूल चलाने वाला स्कूल मालिक दो से ढाई लाख रुपए जिला स्तर पर पैसे देकर अपने पक्ष में रिपोर्ट बनवाता है। इसके बाद इंटर काउंसिल और बोर्ड में भी घूस की दर तय है। अगर पैसा पहुंच गया तो स्कूल को बिना इन्फ्रास्ट्रक्चर के मान्यता मिल जाती है। इस तरह के मान्यता प्राप्त स्कूल दसवीं और इंटर में बड़े पैमाने पर नंबर दिलवाने का ठेका भी लेते हैं। उसके लिए छात्रों से अलग पैसा चार्ज किया जाता है। ग्रामीण इलाकों के छात्रों के अभिभावकों की भीड़ इन स्कूलों के बाहर लगी होती है। क्योंकि यहां पर पढ़ाई के बिना ही छात्र को अच्छे नंबर मिलते हैं। ज्यादातर ग्रामीण इलाकों के गरीब अभिभावक इन स्कूलों में इसलिए आते हैं कि उनका बच्चा अच्छे नंबर से पास हो जाएगा, तो उसकी शादी में कुछ अच्छा दहेज मिल जाएगा। बिहार के छोटे शहरों में कई बड़े नेताओं के स्कूल और कॉलेज हैं। वे इतने दबंग हैं कि उनके केंद्रों पर परीक्षा के दौरान जांच के लिए उडऩदस्ते की टीम भी डर कर नहीं जाती है। इस बार बताया जाता है कि काफी सख्ती बिहार सरकार ने कर रखी थी। उसका परिणाम दिखा। नकल पर काफी बड़े पैमाने पर रोक लग गई। लेकिन अब नया मामला सामने है। वैशाली के विशुनदेव राय कॉलेज के परिणाम देख कर पता चलता है कि ऊपरी स्तर पर हेराफेरी कर अंक तालिका में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया गया है। नेताओं का शिक्षा में निवेश इस कदर है कि ये यूनिवर्सिटी के कामकाज को भी प्रभावित करते हैं। वह वहां अपने कॉलेज के छात्रों को नंबर लगवाने में सफल होते हैं। इसकी एवज में छात्रों से अलग पैसे लिए जाते हैं। जबकि बिहार में सरकारी स्कूलों की हालत काफी खराब है। बिहार में मानदेय पर शिक्षकों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति की गई। लेकिन शिक्षकों का स्तर काफी खराब है। राज्य सरकार का मानना था कि शिक्षकों की नियुक्ति का पहला उद्देश्य शिक्षा का स्तर सुधारना नहीं था, बल्कि राज्य में बड़े पैमाने पर फैली बेरोजगारी को खत्म करना था। पहले तो मानदेय के तौर पर महज दस हजार रुपए दिए जाते रहे। लेकिन बीते विधानसभा चुनावों से ठीक पहले राज्य सरकार ने शिक्षकों के दबाव में उनका मानदेय बढ़ा दिया। हालांकि इसके बाद भी शिक्षा का स्तर नहीं सुधरा।

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