vinod upadhyay

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मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

दुविधा में कांग्रेस और राहुल गांधी

नई दिल्ली। चुनावी चिंताओं के बीच कांग्रेस की रणनीति रंग नहीं पकड़ पा रही है। कई पावर सेंटरों से चल रहे रणनीतिक अभियान की वजह से पार्टी का चुनाव प्रचार दिग्भ्रमित होता जा रहा है। बदलते मुद्दों और रणनीति में होते बदलाव के बीच चुनावी समर में खड़ी पार्टी के लिए तालमेल बनाना मुश्किल हो चला है। समन्वय में कमी से चुनावी समर जीतने के लिए तैयार पार्टी के कई अचूक बाण तरकश में ही रह गए। दस साल से सत्ता में रही पार्टी ने चुनावों से पहले आम जनता तक पहुंचने के लिए पदयात्राओं का कार्यक्रम बनाया था। चुनाव अभियान समिति ने चुनाव कार्यक्रम घोषित करने से पहले प्रत्येकलोकसभा में इन यात्राओं को पूरा करने का लक्ष्य रखा था। पर एक दो राज्यों को छोड़कर योजना परवान ही नहीं चढ़ सकी। नाकामी की बड़ी वजह टिकटों का सही समय पर बंटवारा न होना रहा। उम्मीदवार दिल्ली दरबार में टिकट के लिए टकटकी लगाए रहे और पदयात्रा का कार्यक्रम शुरू ही नहीं हो सका। जबकि टिकट बंटवारे को लेकर पार्टी उपाध्यक्ष चाहते थे कि यह साल भर पहले ही हो जाए। इसके लिए बाकायदा एक कमेटी गठित की गई थी। लेकिन अलम यह है कि पहले चरण के मतदान को आठ दिन रहते हुए भी पार्टी अभी तक सारे प्रत्याशियों की घोषणा नहीं कर सकी है। इसी तरह कांग्रेस ने भाजपा के आक्रामक चुनाव प्रचार को संप्रग की उपलब्धियों के बल पर घेरने की रणनीति बनाई थी। संप्रग के मंत्रियों को प्रत्येक राज्य की राजधानी में जाकर सरकार की उपलब्धियों को जनता के सामने रखना था, पर मंत्रियों के ठंडे रुख के चलते यह योजना भी परवान नहीं चढ़ सकी। इसी तरह पार्टी पदाधिकारियों को चुनावों में न उतारने के फैसले को पलटना भी कांग्रेस को भारी पड़ता दिख रहा है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों में पार्टी अध्यक्षों और प्रभारी महासचिवों के चुनावी मैदान में उतरने से राज्य में संगठन को दिशा देने वाला कोई नहीं है। आंध्रप्रदेश में बंटवारा, तमिलनाडु में तमिलों की नाराजगी और गठबंधन की कमी व केरल में सत्ता विरोधी रूझान के बाद हिंदी पट्टी में पार्टी की यह चूक बड़ा नुकसान कर सकती है। कांग्रेस का भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी को लेकर ऊहापोह भी चुनावों में भारी पड़ता दिख रहा है। पार्टी पहले तो उन पर बात करने से बचती रही फिर आक्रामक हुई तो जहर की खेती करने वाला बताकर भाजपा को ध्रुवीकरण की राजनीति का मौका दे चुकी है।
राज्यों में हाल खस्ता संप्रग दो में कांग्रेस को सबसे बड़ी पार्टी बनाने वाले राज्यों में पार्टी की हालत खस्ता है। आंध्र प्रदेश में 31 सीटें जीतने वाली कांग्रेस बंटवारे के बाद सीमांध्र में हाशिये पर खड़ी है। पार्टी को तेलंगाना में भी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं है। राज्य के गठन पर विलय का वादा करने वाली टीआरएस ने गठबंधन तक से इन्कार कर दिया है। लोकसभा में 21 सीटें देने वाले राजस्थान में भी पार्टी की हालत अच्छी नहीं है। हाल में ही हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की ऐतिहासिक पराजय हुई थी और लोकसभा चुनावों में पार्टी भितरघात से मुकाबिल है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में भी दो दर्जन के करीब सीटें जीतने वाली कांग्रेस के लिए इस बार दहाई का आंकड़ा पार करना चुनौती बना हुआ है। खुद पार्टी उपाध्यक्ष की सीट को सुरक्षित करने के लिए भाजपा से पींगे बढ़ा रहे संजय सिंह को असम से राज्यसभा व उनकी पत्नी को सुल्तानपुर का उम्मीदवार बनाना पड़ा।
कांग्रेस के संकट में साथ नहीं 'संकटमोचक'
चार दशक तक अपनी राजनीतिक समझ व दूरदर्शिता से कांग्रेस के संकटमोचक बने रहे प्रणब दा की इस बार के लोकसभा चुनाव में पार्टी को बड़ी याद आ रही है। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार संप्रग तीन बनाने की जुगत भिड़ा रही कांग्रेस की राह इस बार सबसे ज्यादा दुरूह है। इसके अलावा 40 सालों में पहली बार प्रणब मुखर्जी की सक्रिय भूमिका के अभाव में ये रास्ता और लंबा नजर आता है। अपनी कूटनीतिक बुद्धि और रणनीति से बड़े-बड़े को पछाड़ने वाले प्रणब दा को बंगाल के कांग्रेसी नेता बहुत याद करते हैं। प्रणब के करीबी माने जाने वाले अधीर रंजन चौधरी बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष हैं। 40 वर्षो से अधिक समय तक कांग्रेस का लोकसभा चुनाव का घोषणापत्र तैयार करने से लेकर उसे जारी करने तक में प्रणब दा की अहम भूमिका होती थी। लेकिन इस बार प्रणब दा को इन सबसे कुछ लेना-देना नहीं है। वर्ष 1969 में पहली बार कांग्रेस के टिकट से राज्यसभा पहुंचने वाले प्रणब ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। वो एकमात्र ऐसे कांग्रेसी नेता थे जो इंदिरा गांधी से लेकर 2012 तक सभी कांग्रेसी प्रधानमंत्री के मंत्रिमंडल में शामिल रहे। अपने सियासी सफर में करीब 35 साल तक लोकसभा का रुख नहीं करने वाले प्रणब की रणनीति पर पार्टी नेता अमल करते थे। राजनीति के गलियारों में अपने फन का लोहा मनवाने के बाद प्रणब अब देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आसीन हैं। सरकार और राजनीति में उनके 45 वर्षों के अनुभव का कोई सानी नहीं है। इस दौरान जब भी उनकी पार्टी और सरकार पर मुसीबत आई तो वे सबसे आगे नजर आते और समस्या को सुलझा देते। लेकिन इस बार चुनावी रण में कांग्रेस को अपने 'राजनीतिक पितामह' के बिना ही जीत हासिल करने की चुनौती स्वीकारनी होगी। हालांकि संकट इस कदर है कि जंगीपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रहे पुत्र अभिजीत मुखर्जी की सहायता के लिए भी वे मैदान में नहीं आ सकते।

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