विनय उपाध्याय
भोपाल. नौकरशाही की दिशाहीन दखलंदाजी से कैसे तबाह हो रही है शिक्षा, इसका ताजा उदाहरण है माध्यमिक शिक्षा मंडल का यह मामला। मध्यप्रदेश सरकार ने अपने ही एक फैसले के खिलाफ अदालत में मुकदमा लड़ा।
हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक। 20 साल में 70 सुनवाइयां। इस बीच शिक्षा मंडल में सात चेयरमैन आए और गए। अब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के 25 साल पुराने फैसले को ही सही ठहराया है।
इसी के खिलाफ खुद सरकार 1991 से यह केस लड़ रही थी। शिक्षा मंडल की एक्जीक्यूटिव कमेटी ने 1985 में निर्णय लिया था कि पत्राचार कोर्स के सीनियर लेक्चरर और असिस्टेंट प्रोफेसर को मिलाकर एक कैडर बनाया जाए।
इसका पदनाम असिस्टेंट प्रोफेसर होगा। एक ही वेतनमान होगा। फरवरी 1986 में सरकार ने मंडल के इस निर्णय को मंजूरी दे दी। इसी साल चौथा वेतनमान आया, जो जनवरी 1990 में लागू हुआ।
लेकिन चौथे वेतनमान का फायदा मंडल में सीनियर लेक्चरर और असिस्टेंट प्रोफेसर को उनके पुराने कैडर व वेतनमान के मुताबिक अलग-अलग घोषित किया गया। जबकि चार साल पहले ये दोनों ही पद एक ही कैडर में तब्दील हो चुके थे।
तब मंडल में 27 सीनियर लेक्चरर (जो असिस्टेंट प्रोफेसर हो चुके थे) पदस्थ थे। उन्होंने इस विचित्र फैसले की तरफ मंडल के अफसरों का ध्यान खींचा।
जब कुछ नहीं हुआ तो 18 सीनियर लेक्चरर जबलपुर हाईकोर्ट में गए। अदालत में इनकी दलील थी कि सरकार के ही फैसले से हम असिस्टेंट प्रोफेसर बने हैं। इसी के अनुरूप वेतनमान लागू होना चाहिए था।
जुलाई 2009 में मंडल के तत्कालीन अध्यक्ष एचसी जैन ने कोर्ट में कहा कि सीनियर लेक्चरर और असिस्टेंट प्रोफेसर के स्केल अलग होने चाहिए। अदालत ने पूछा कि आप यह आदेश कैसे दे सकते हैं? जब एक्जीक्यूटिव कमेटी दूसरा फैसला ले चुकी है तो याचिका दाखिल होने के बाद आप उलट निर्णय कैसे ले सकते हैं?
इन बीस सालों में असिस्टेंट प्रोफेसरों ने हर चेयरमैन से कहा भी कि इस केस में सरकार अपने ही फैसले के खिलाफ अदालत में है। यह हास्यास्पद है। मंडल को अपना पुराना फैसला याद क्यों नहीं आ रहा? लेकिन चेयरमैन का एक ही जवाब होता-'मामला चूंकि कोर्ट में जा चुका है, इसलिए वहीं तय होने दीजिए।Ó
इन बीस सालों में 18 में से 12 असिस्टेंट प्रोफेसर रिटायर हो गए और दो का देहावसान हो गया। इस वक्त सिर्फ चार ही मंडल में पदस्थ हैं। अदालत के आदेश से करीब एक करोड़ रुपए का एरियर इन्हें दिया जाना है।Ó
शिक्षा मंडल ने करीब पांच लाख रुपए वकीलों की फीस पर फूंके। मामले के वकील राकेश श्रोती कहते हैं कि शिक्षा की सर्वोच्च संस्थाओं का यह हाल पूरी व्यवस्था की कहानी बयान करता है। ऐसे तमाम मामले हैं, जिनमें टीचर सालों साल तक भटकते रहते हैं।
अब तक सात चेयरमैन.
1985 से अब तक शिक्षा मंडल में ये चेयरमैन रहे-एचसी जैन, धर्मेंद्र नाथ, ताजवर रहमान साहनी, शशि जैन, यूके सामल, एसके चतुर्वेदी और राकेश बंसल।
अदालत में चार बार अपीलें
1991- हाईकोर्ट में मंडल के निर्णय के खिलाफ सीनियर लेक्चरर की याचिका।
1995- जस्टिस एके माथुर का फैसला-सीनियर लेक्चरर चाहे गए वेतनमान के हकदार।
1996- शिक्षा मंडल ने जस्टिस माथुर के समक्ष उनके फैसले पर पुनरीक्षण याचिका। याचिका खारिज।
1997- अपने निर्णय पर अड़ा शिक्षा मंडल दो जजों की खंडपीठ में। यह याचिका भी खारिज।
1998- मंडल सुप्रीम कोर्ट की शरण में। जाने-माने वकील पीपी राव ने पैरवी की।
2000- चीफ जस्टिस एएस आनंद ने मामले को वापस हाईकोर्ट भेजा।
2005- हाईकोर्ट का आदेश-पांच फीसदी ब्याज के साथ चाहा गया वेतनमान दीजिए।
2006- शिक्षा मंडल फिर सुप्रीम कोर्ट में। एडिशनल सालिसिटर जनरल मोहन पाराशरन ने पैरवी की।
2011- आठ अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट का फैसला- एरियर पर ब्याज छोड़कर 1991 से चाहा गया वेतनमान दिया जाए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें