vinod upadhyay

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शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

' मुन्नी...जैसे गानों को लोकगीत कहना लोकगीतों का शोषण है'



भोजपुरी लोकगीतों में रुचि रखने वालों के लिए मालिनी अवस्थी एक परिचित नाम हैं. लोकगीतों को फूहड़ता की छाया से बाहर निकालने और उन्हें बड़े शहरों के अल्ट्रा मॉडर्न तबके के बीच स्थापित करने में उनकी अहम भूमिका है.

एक दौर की जानी-पहचानी गजल गायिका लोकगायिका कैसे बन गई?

आकाशवाणी के लिए मैं ए ग्रेड की गजल गायिका रही हूं. इसके बाद भी मुझे प्रसिद्धि और संतुष्टि लोकगीतों से ही मिली. मैं शहरी माहौल में पली-बढ़ी. इसके बावजूद बचपन से लोकगीत मुझे संगीत की किसी और भी विधा से ज्यादा अपनी तरफ खींचते थे. मुझे लगता है कि यह बीज इस जन्म से बहुत पहले का है जो तमाम प्रतिकारों के बाद भी आकार पाता गया. वरना जितने कारक किसी महिला के लिए संगीत सीखने में बाधा हो सकते थे वे सब मेरे साथ भी थे. लोकसंगीत के गायन में तो चुनौतियां और ज्यादा थीं.

आप किन चुनौतियों की बात कर रही हैं?

लोकगीत विशेषकर भोजपुरी लोकगीत फूहड़ता का पर्याय बनते जा रहे थे. बल्कि यूं कहें कि गमछा और खटिया वाले लोकगीतों के चलते पूरी भोजपुरी भाषा के प्रति ही यह नजरिया बनता जा रहा था. मेरा बचपन गोरखपुर और मिर्जापुर जैसे शहरों में गुज़रा है इसलिए मुझे हमेशा इस बात का दुःख होता था. हालांकि मैं मूलतः अवधी हूं और ज्यादातर अवधी लोकगीत ही प्रस्तुत करती हूं लेकिन मेरी लोकप्रियता में भोजपुरी का अहम योगदान है. मुझे खुशी है कि बिना सतही गाने गाए भी मुझे पसंद किया गया. इसकी वजह भी यही थी कि भोजपुरी समाज अपनी भाषा को अश्लील बताए जाने और उसकी लोकसंस्कृति को गंदला किए जाने के दंश से गुजर रहा था, इसलिए उसे खुशी हुई कि भोजपुरी न होते हुए भी मैंने भोजपुरी को अपनाया और उसका सम्मान भी बचा कर रखा. दूसरी चुनौती यह थी कि लोकगायकों को दूसरे दर्जे का गायक समझ कर व्यवहार किया जाता था. शास्त्रीय गजल और फिल्मी गायकों के आगे उनको कभी गंभीरता से नहीं लिया जाता था. मैं खुश हूं कि कम से कम यह धारणा थोड़ी ही सही कम जरूर हुई है.

बहुमुखी प्रतिभा होते हुए भी आप लोकगायिका के रूप में मशहूर हो गई हैं, क्या कभी टाइपकास्ट होना अखरता नहीं?

लोकगीतों का क्षेत्र इतना व्यापक है कि इससे ऊबना संभव ही नहीं है. मेरी कोशिश लोकसंगीत के ज्यादा से ज्यादा रूपों को जनता के सामने लाने की है. अभी बहुत काम बाकी है. दूसरी विधाओं के बारे में सोचना तो तब उचित है जब मैं लोकसंगीत के क्षेत्र में पूरा काम कर लूं. मैं आज भी नए लोकगीतों की खोज में रहती हूं, नई धुनें तलाशती रहती हूं, कभी किसी गांव की माई से तो कभी किसी किसान से.

पिछले कुछ समय से फिल्मों में लोकगीतों की वापसी पर आप क्या सोचती हैं?

लोकगीत ही नहीं मुझे लगता है कि लोकसंस्कृति भी कहीं न कहीं वापस आई है. इससे यह पूर्वाग्रह भी टूटा है कि बड़े बजट और विदेशों में शूटिंग करके ही फिल्में हिट हो सकती हैं. वेल डन अब्बा और वेलकम टू सज्जनपुर की आलोचना एक भी सुधी व्यक्ति नहीं कर सकता. श्याम बेनेगल जैसे लोग इसीलिए बड़े कहे जाते हैं कि वे इस मीडियम की जिम्मेदारियां समझते हैं.

मुन्नी बदनाम हुई खूब चर्चित हो रहा है.

ऐसे गानों को लोकगीत की श्रेणी में डालना लोकगीतों का शोषण करना है. दूसरे, यह गाना जिस गीत पर बना है वह भी कोई बहुत शिष्ट गाना नहीं है, लेकिन फिर भी नौटंकी और वैसे गाने का अपना एक मौका और स्थिति होती है. और उस पर आप यह भी दावा कर रहे हैं कि इसके बोल आपके हैं. और बोल भी क्या हैं, मैं झंडू बाम हुई.. दरअसल, आप लोकगीतों के नाम पर अपने एक घटिया गीत को भुनाना चाहते हैं. आप इतना काम कर चुके हैं और इसके बाद भी आपसे एक ढंग का गाना नहीं बनता.

पूरे देश में गाने के बाद वापस लखनऊ या बनारस में गाना कैसा लगता है?

लखनऊ में गाने जैसा तो कोई अनुभव हो ही नहीं सकता. यह मेरा अपना घर है. यहां मैं उसी तरह बेफिक्री से गाती हूं जिस तरह कोई छोटी बच्ची अपने घर के आंगन में गाती-खेलती है. बनारस में गाते हुए थोडा सा सचेत सी रहती हूं या कहूं कि गायिकी में यह भाव अपने आप ही आ जाता है क्योंकि ऐसा लगता है मानो मेरी गुरु गिरिजा देवी की आंखें मुझे देख-परख रही हैं. दूसरे, यह ऐसा शहर है जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां का नवैय्या (नाविक) भी एक आम गायक से ज्यादा सुरीला होता है.

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